Live News : खबर थी सजीव, बेरुखी से दफन हो गई
खबर थी सजीव, बेरुखी से दफन हो गई के. विक्रम राव य ह लेख भाषाई पत्रकारिता में चन्द कार्यरत मगर स्फूर्तिहीन मित्रों के चलताऊपन पर है। मानो कोविड-19 कीटाणु ने रिपोर्टिंग की भी सांस घोट दी हो। एक अत्यंत पठनीय, गमनीय, मानव-सुलभ रूचि से लबरेज और विधि- विधान से जुड़े खबरिया हादसे पर एक ढीली-ढाली रिपोर्टिंग और एडिटिंग की बाबत यह है। बेहतर प्रस्तुतीकरण का प्रयास किया जा सकता था। समूची प्रकाशित खबर ही नीरस, निस्वाद, फीकी, मीठी और सीठी बना दी जाय। अमूमन अंग्रेजी के रिपोर्टर ज्यादा सावधानी बरतते हैं। वरिष्ठों का दबाव जो रहता है। मगर वे भी इस बार चूक गए। बहाना हो सकता है कि घटना 1985 की थी जो कई संवाददाताओं के जन्म से वर्षों पूर्व की थी। जानकारी का अभाव हो सकता है। अर्थात मेरे इस लेख का मूलाधार यही है कि मीडिया कार्यालयों में संदर्भ शाखा का संपन्न न होना, प्रबंधक की अक्षमता है। भुगतता पत्रकार है। पत्रकार कहाँ सामग्री खोज सकें ? अधकचरी रपट को प्रांजल बना सकें? गूगल भी आधा-अधूरा ही है। मामला यह है कि फ़रवरी 1985 में भरतपुर रियासत के राजा म...