दलित बनाम गैर दलित साहित्यकार
लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की 75वीं वर्षगांठ कार्यक्रम के बाद दलित और गैर दलित साहित्यकारों में मुंहभाषा हो रही है। इस मुंहभाषा में साहित्यकारों की सोच के साथ ही उनकी गुटबाजी का भी एक बार फिर खुलासा हो रहा है।
लखनऊ में प्रलेस के कार्यक्रम में जेएनयू के प्रो. डा. तुलसीराम की आत्मकथा मुदर्हिया की समीक्षा को लेकर श्यौराज सिंह बेचैन के आरोपों से शुरू हुई यह मुंहभाषा रुकने का नाम नहीं ले रही है। श्यौराज सिंह बेचैन का यह आरोप कि गैर दलित साहित्यकार दलितों की पीड़ा को न तो समझते हैं और न ही उसको ठीक ढंग से लिख सकते हैं। बेचैन जी का मैं बहुत सम्मान करता हूं, लेकिन मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि मुदर्हिया तो एक दलित ने ही अपनी आत्मकथा लिखी है फिर उस पर उनको क्यों एतराज है? जहां तक साहित्यकारों की बात है, वह स्पष्ट तौर पर अकाट्य है कि कोई भी साहित्यकार अपनी कल्पना शक्ति के जरिए अपने पात्रों को न केवल बनाते हैं बल्कि उनको हीरो और विलेन साबित करते हैं। इसमें रामायण और महाभारत तक को लेकर टिका-टिप्पणी की जाती है और उनके लेखक भी सवालों के घेरे में रहते हैं, फिर मुंशी प्रेमचंद तो अधिक पुराने साहित्यकार भी नहीं हैं। वह अलग बात है कि उनकी रचनाएं कालजयी हैं और उनको लेकर जाति और धर्म की सीमा बांधना कतई गलत है। उनके द्वारा समाज के अंतिम व्यक्ति का दुखड़ा लिखा गया है, उसमें कहीं भी जाति को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए। इसके बावजूद यदि कोई आत्मकथा लिखी जाती है तो उसका अपना अलग ही मूल्य होता है और वह सत्य के काफी करीब मानी जाती है। मुदर्हिया में डा. तुलसीराम ने अपने जीवन का जो मार्मिक चित्रण किया है, वह वास्तव में दलित ही नहीं सभ्य मानव समाज के लिए सोचनीय कथा है, जिसके अलग-अलग रूप अभी भी समाज में हर ओर देखने को मिल रहे हैं। इस आत्मकथा मुदर्हिया की साहित्यकारों ने अपने-अपने तरीके से समीक्षा की है। ये समीक्षा अधिकांश गैर दलित साहित्यकारों ने ही की हैं। अच्छा लगता कि कोई बेचैन या मोहनदास नैमिशराय जी जैसा दलित साहित्यकार भी इसकी समीक्षा करके कुछ नए बिंदुओं से अवगत कराता, ऐसा तो हुआ नहीं बल्कि बेचैन जी ने मुदर्हिया को सामने रखकर साहित्यकारों की गुटबाजी विशेष रूप से दलित और गैर दलित साहित्यकारों को बहस का मुद्दा बना दिया।
बेचैन जी ने प्रलेस का नेतृत्व दलित को सौंपने की दरकार की है। इस पर प्रमुख साहित्यकारों विश्वनाथ शुक्ल ौर राजेन्द्र यादव जी ने तंज भी कसे हैं। इसको लेकर मैं बेचैन जी से कहना चाहता हूं कि पिछले सप्ताह ही दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में देश के प्रमुख दलित पूंजीपतियों ने एक डिनर पार्टी आयोजित की। इस पार्टी में कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह और दलित नेता केंद्रीय मंत्री मुकल वासनिक भी मौजूद थे। इस डिनर पार्टी में इस बात पर गहरी नाराजगी जाहिर की गई कि भारत के चैंबर आफ कामर्स एवं इंडस्ट्री में दलित कारोबारियों को केवल उनके दलित होने के कारण अहमियत नहीं दी जा रही है। इन दलित पूंजीपतियों ने एक नई मिसाल खड़ी करते हुए दलित इंडिया चैंबर आफ कामर्स एंड इंडस्ट्री का गठन किया और देशभर के दलित पूंजीपतियों और कारोबारियों से इस नए संगठन में जुड़ने का आह्वान किया। बेचैन जी आपको बता दें, ये वे ही दलित पूंजीपति हैं, जिन्होंने गत वर्ष इस इंटरनेशनल सेंटर में कार्यक्रम आयोजित करके नारा दिया था कि मर्सडीज खरीदों, मनु को भगाओ।
यह उदाहरण बेचैन जी आपको बताने का साफ तौर पर यह ही संदेश है कि आप क्यों प्रलेस के नेतृत्व संभालने की दरकार कर रहे हैं. आप इस तरह का संगठन खुद क्यों नहीं बना लेते, यह कोई भारत सरकार का गठन है, जो आपको कोई कानूनी अड़चन आ रही है?, नए संगठन को बनाने पर आप अपनी विचारधारा के लोगों को एकत्र करके अपनी शक्ति को इतना बढ़ाएं कि खुद प्रलेस से जुड़े लोग आपके संगठन की सदस्यता पाने के लिए ललचाएं। ऐसे में प्रलेस भी खुद महत्वहीन हो जाएगा।
बेचैन जी और अन्य दलित साहत्यिकारों के सामने ऐसे कई काम हैं, जिनपर उनको किसी मुंहभाषा में न उलझकर काम करना चाहिए। इनमें एक मुद्दा आजादी के 64 वर्ष बाद भी हर क्षेत्र में दलितों की उपेक्षा और अपमानित करने की घटना। हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट में एक दलित जज सीएस करणन को उनके साथी गैर दलित जजों ने सार्वजनिक तौर पर अपमानित किए जाने की घटना है और ऐसे तमाम मामले आए दिन सामने आ रहे हैं, जिनपर साहित्यकारों को अपनी लेखनी का जादू दिखाना चाहिए, ताकि हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे दलित सम्मान के साथ आगे बढ़ सके। चूंकि फिलहाल तो हाल यह है कि एससी और एसटी की रहनुमा होने का दम भरने वाली संस्था एससी-एसटी कमीशन भी कुछ नहीं कर पा रहा है। इस पर काम करने से तवलीन सिंह जैसी गैर दलित पत्रकारों को मुंहतोड़ जवाब भी मिल जाएगा, जिनका मानना है कि उनको अभी तक एक भी कोई दलित पत्रकार या साहित्यकार नहीं मिला है। उनको .ह बताने की जरूरत है कि दलित मसीहा कहे जाने वाले बाबा साहेब खुद जहां बड़े साहित्यकार थे उनकी सैकड़ों रचनाएं बाजार में उपलब्ध हैं। वह एक जुझारू पत्रकार थे, उनके संपादन में शुरू हुआ मूक नायक समाज की कुरीतियों पर हमला करने वाला प्रमुख समाचार पत्र था। इस दिशा में दलित साहित्यकारों के काम से उन लोगों को भी ताकत मिल सकेगी, जो विभिन्न क्षेत्रों में अहम भूमिका अदा करते हुए भी अपनी दलित होने की पहचान छिपाए हुए हैं।
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