युद्ध नहीं, बुद्ध चाहिए

युद्ध नहीं, बुद्ध चाहिए

नॉर्थगेट, सिएटल (वाशिंगटन) में सैर से लौटते हुए एक बहुत ही खूबसूरत स्थान देखने को मिला ,पता चला कि यह तो कब्रिस्तान है। लगभग 50-60 एकड़ में फैले इस पार्क नुमा स्थान पर जगह के मुताबिक कब्रें ही कब्रें थीं। पर एक जगह एक शिलालेख देखकर रुक गया वहाँ खुदा था कि ये उन अमेरिकी युवा सैनिकों की कब्रें हैं, जो अनेक युद्धों में मारे गए हैं। जानकारी मिली कि लड़ाइयों में इस देश के लाखों सैनिक मारे गए हैं।
अमेरिकन गृह युद्ध (1861-65) में 7,50,000 सैनिक, प्रथम विश्व युद्ध (1917-18) में 1,16,516 सैनिक, दूसरे विश्व युद्ध (1941-45) में 4,05,399 सैनिक, विएतनाम युद्ध (1961-75) 58,209 सैनिक, कोरियन युद्ध (1950-53) 54,246 सैनिक,  इराक युद्ध (2003-2011) 4,497 सैनिक, अफ़ग़ानिस्तान युद्ध (2001 से अबतक) 2,216 सैनिक मारे जा चुके हैं। जाहिर है इतने अमेरिकी सेनिकों की मौत के बाद उनकी कब्रें उनके पैतृक शहरों में ही बनी होंगी। पता चला कि अमेरिका के हर छोटे बड़े नगरों, कस्बों व गांवों के कब्रिस्तान सेनिकों की आरामगाहों से पटे हैं। 
इस मौके पर जावेद अख्तर की एक कविता बरबस याद आ गई, जिसके बोल हैं :
"बारूद से बोझल सारी फिज़ा, है मौत की बू फैलाती हवा
जख्मों पे है छाई लाचारी, गलियों में है फिरती बीमारी
ये मरते बच्चे हाथों में, ये माओं का रोना रातों में
मुर्दा बस्ती मुर्दा है नगर, चेहरे पत्थर हैं दिल पत्थर
मेरे दुश्मन, मेरे भाई, मेरे हमसाये
मुझ से तुझ से, हम दोनों से, सुन ये पत्थर कुछ कहते हैं
बर्बादी के सारे मंजर कुछ कहते हैं
मेरे दुश्मन, मेरे भाई, मेरे हमसाये

सन्नाटे की गहरी छाँव, ख़ामोशी से जलते गाँव
ये नदियों पर टूटे हुए पुल, धरती घायल और व्याकुल
ये खेत ग़मों से झुलसे हुए, ये खाली रस्ते सहमे हुए
ये मातम करता सारा समां, ये जलते घर ये काला धुआं
मेरे दुश्मन, मेरे भाई, मेरे हमसाये 
मुझे से तुझ से, हम दोनों से ये जलते घर कुछ कहते हैं 
बर्बादी के सारे मंजर कुछ कहते हैं
मेरे दुश्मन, मेरे भाई, मेरे हमसाये

मेरे दुश्मन, मेरे भाई, मेरे हमसाये
चेहरों के, दिलों के ये पत्थर, ये जलते घर
बर्बादी के सारे मंजर, सब तेरे नगर सब मेरे नगर, ये कहते हैं
इस सरहद पर फुन्कारेगा कब तक नफरत का ये अजगर
हम अपने अपने खेतो में, गेहूँ की जगह चावल की जगह
ये बन्दूके क्यों बोते हैं
जब दोनों ही की गलियों में, कुछ भूखे बच्चे रोते हैं
आ खाएं कसम अब जंग नहीं होने पाए
और उस दिन का रस्ता देखें,
जब खिल उठे तेरा भी चमन, जब खिल उठे मेरा भी चमन
तेरा भी वतन मेरा भी वतन, मेरा भी वतन तेरा भी वतन
मेरे दोस्त, मेरे भाई, मेरे हमसाये।"

( वाशिंगटन: राम मोहन राय की कलम से साभार)

Comments

Popular posts from this blog

mirror of society : समाज का आईना है "फीका लड्डू"