इंदिरा गांधी : न डरी, न थमी
"तीन अक्टूबर 1977 को जनता पार्टी का शासनकाल"
इन्दिराजी के निवास स्थान 12 विलिंगटन क्रिसेंट को सैकड़ों पुलिस वालों ने
घेर लिया था। इंदिरा जी को गिरफ्तार करने कुछ अफसर भीतर पहुंचे।इन्दिराजी
अपने कमरे में चली गईं और जेल जाने के लिए सामान ठीक करने लगीं। कुछ देर
बाद उनके वकील फ्रेंक एंथोनी (सांसद) पहुंचे और उन्होंने कहा, 'गिरफ्तारी
का वारंट दिखाइए' तो अफसर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। उनके पास वारंट
था ही नहीं। फ्रैंक एंथोनी ने फिर से वारंट की मांग की और बुलंद आवाज में
कहा,"बगैर वारंट के आप इन्हें कैसे गिरफ्तार कर सकते हैं?" घंटे भर बहस
चलती रही। बाहर लोगों की भीड़ बढ़ती रही। लोग क्षुब्ध थे। आखिर जब
इन्दिराजी कार में बैठ गईं तो कुछ क्षुब्ध युवक चिल्लाए, मोरारजी देसाई
मुर्दाबाद, चरणसिंह मुर्दाबाद। इंदिरा जी झट कार से उतरीं और उन्हें तुरंत
रोकते हुए बोलीं "हमें किसी के लिए भी मुर्दाबाद नहीं कहना है।" गांधीजी
ने हमें क्या सिखाया है, याद करो।युवक चुप हो गए" फिर इंदिरा गांधी
जिंदाबाद के नारों से आसमान गूंज उठा। कार बाहर निकली। पीछे था मोटरों का
एक काफिला। तेजी से दौड़ते हुए कार पहुंची एक रेलवे क्रॉसिंग के पास। रेल
आने का समय था। फाटक बंद था। काफिला रुक गया। गर्मी काफी थी। इंदिरा जी
साथ वाली अफसर से पूछकर नीचे उतरीं, पास वाली पुलिया पर बैठ गईं। ताकि कुछ
खुली हवा मिल सके। तब तक और गाड़ियां पहुंची। उसमें थे राजीव जी, संजय जी
और कुछ युवा वकील। वकीलों ने अफसरों से पूछा" आप तो दिल्ली पुलिस वाले
हैं।" इंदिरा जी को दिल्ली से बाहर हरियाणा ले जा रहे हैं। क्या आपके पास
ऑर्डर है?" बहस चलती रही। हरियाणा ले जाने का कोई ऑर्डर था ही नहीं? अब
क्या किया जाए? गृह मंत्रालय से संपर्क किया गया। गाड़ियां पीछे मुड़
गईं। ऊपर से हिदायत आने तक सारा काफिला उस रात दिल्ली के रिंग रोड पर गोल
घूमता रहा।आखिर संदेश आया और किग्स्वे कैंप के पुलिस ट्रेनिंग स्कूल के
अतिथि गृह में उन्हें पहुंचाया गया। मैं भी साथ थी।
"आखिर क्यों यह जेल ?" पंडित मोतीलाल नेहरू की पोती पंडित जवाहरलाल नेहरु की बेटी, जो 11 साल तक भारत की प्रधानमंत्री रह चुकी, उन्हें क्यों बिना कसूर जेल भेजा गया है? इंदिरा जी ने जान लिया कि मेरा मन भारी है। वे कहानियां सुनाने लगीं और मेरी हंसी न रुक सकी। बाहर खड़े हुए संतरी समझ नहीं पाए कि यह हंसी किसलिए। उन्होंने खिड़की से झांकने की कोशिश की, पर खिड़की बंद थी। थोड़ी देर बाद इंदिरा जी ने कहा निर्मला मुझे एक ही बात की चिंता है कि हिंसा न हो। कहीं लोग मेरी गिरफ्तारी पर हिंसा न कर बैठें। किसी तरह संदेश बाहर पहुंचा दो कि हमें गांधीजी को याद करना चाहिए और हिंसा नहीं होनी चाहिए। इस बात को दो बार दोहराकर वे शांति से सो गईं, जैसे अपने ही घर हों। मैं छत को देखती रही। उस रात मैं सो न सकी।
"सात नवंबर 1977 रूसी क्रांति की 60वीं वर्षगांठ"
सोवियत
दूतावास से निमंत्रण आया था। 11 साल के बाद इंदिरा जी को आज वहां जाना था
प्रधानमंत्री के नाते नहीं, एक साधारण नागरिक के नाते। मेरे मन में आशंका
थी, कैसा स्वागत होगा। हम कुछ देर से निकलीं दूतावास का प्रांगण खचाखच भरा
था। सभी देशों के दिल्ली स्थित राजदूत मंत्रिमंडल के सदस्य तथा अनेक
संभ्रांत नागरिक उपस्थित थे। इंदिरा जी को देखते ही जैसे खुशी की लहर दौड़
उठी। सारे कैमरे उनकी ओर मुड़े। हर अतिथि चाहता था कि इंदिरा जी के साथ
मेरी तस्वीर खींची जाए। करीब-करीब हर राजदूत या उसकी पत्नी धीरे से उनके
कान में फुसफुसाती !," मैडम गांधी वी आर विद यू (हम आपके साथ हैं)
।"गुडलक ( शुभकामना)। पाकिस्तान से गालिब महोत्सव के लिए आए हुए एक
प्रतिनिधिमंडल की नेता एक महिला ने कहा जिस अजीम हस्ती को देखने के लिए हम
हिंदुस्तान आए उनको देखकर सुकून मिल गया। उसने दसों फोटो खिंचवाई ।अफ्रीका
एशिया पूर्वी यूरोप के देशों के राजदूत और उनकी पत्नियां इंदिरा जी को
देखकर इस कदर खिल उठती जैसे सूरज को देख कर कमल। फोटो खिंचवाने में होड़
लगी थी। करीब 2 घंटे तक यही सिलसिला चलता रहा। फिर सोवियत राजदूत राज चाय
पिलाने के बहाने एक तरफ ले गए। बड़े स्नेह से बातचीत चलती रही।जैसे कोई
दादी नानी अपनों के लिए मिठाई की पोटली देती है उसी तरह राजदूत महोदय ने
दो चार मुट्ठी चाकलेट एक नैपकिन में रखकर पोटली बनाई और,"यह राहुल और
प्रियंका के लिए, प्यार के साथ लौटने के बाद मैंने कहा " डिप्लोमेटिक
कम्युनिटी भी गांव वालों की तरह आपको देख पागल हो गई।
"1978 गर्मी के दिन"
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में उपचुनाव हो रहा था। कांग्रेस की ओर से श्रीमती मोहसिना किदवई खड़ी थीं। जनता पार्टी के नेताओं ने उस इलाके का हर छोटा बड़ा डाक बंगला रिजर्व कर रखा था, ताकि इंदिरा जी के लिए कहीं ठहरने की जगह न रह पाए उस दिन एक गांव के छोटे से डाक बंगले में खाने भर के लिए रुकना था। खाना आया था गांव से। जब हमारा काफिला डाक बंगले के गेट पर पहुंचा तो कार्यकर्ताओं ने बताया कि यहां नहीं रह सकते । इंदिरा जी ने कहा कोई बात नहीं हम पेड़ों के नीचे बैठकर खाना खा लेंगे और वह भी उतर गईं। डाक बंगले का बूढ़ा मुसलमान चौकीदार दौड़ा आ रहा था। सलाम कर बोला "हजूर चलिए, मैंने एक कमरा खोल दिया है ।कमरा खाली ही था।" कार्यकर्ताओं ने भैया तुम्हारी नौकरी चली जाएगी। वह बोला, जाने दो। मुझे खुशकिस्मती कब नसीब होगी कि इंदिरा गांधी मेरे यहां ठहरीं।
"1978 गर्मी के दिन"
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में उपचुनाव हो रहा था। कांग्रेस की ओर से श्रीमती मोहसिना किदवई खड़ी थीं। जनता पार्टी के नेताओं ने उस इलाके का हर छोटा बड़ा डाक बंगला रिजर्व कर रखा था, ताकि इंदिरा जी के लिए कहीं ठहरने की जगह न रह पाए उस दिन एक गांव के छोटे से डाक बंगले में खाने भर के लिए रुकना था। खाना आया था गांव से। जब हमारा काफिला डाक बंगले के गेट पर पहुंचा तो कार्यकर्ताओं ने बताया कि यहां नहीं रह सकते । इंदिरा जी ने कहा कोई बात नहीं हम पेड़ों के नीचे बैठकर खाना खा लेंगे और वह भी उतर गईं। डाक बंगले का बूढ़ा मुसलमान चौकीदार दौड़ा आ रहा था। सलाम कर बोला "हजूर चलिए, मैंने एक कमरा खोल दिया है ।कमरा खाली ही था।" कार्यकर्ताओं ने भैया तुम्हारी नौकरी चली जाएगी। वह बोला, जाने दो। मुझे खुशकिस्मती कब नसीब होगी कि इंदिरा गांधी मेरे यहां ठहरीं।
चाहे
जो हो जाए हजूर को भीतर आना ही होगा। लाख मना करने पर भी नहीं माना। हम
भीतर गए, खाना खाया और चल पड़े। इन्दिराजी ने उस चौकीदार से घर का
हालचाल पूछा और विदा होते समय स्थानीय कार्यकर्ताओं से कहा अगर इसे नौकरी
से हटा दिया जाए तो आप इसका ख्याल रखिए। इसकी मदद कीजिए। इसका परिवार भूखा न
रहे और मुझे भी खबर दीजिए। "1978 की बरसात"
उत्तर
प्रदेश के पूर्वी जिलों में भयंकर बाढ़ आई थी। और कोई पहुंचे न पहुंचे
जनता के दुख-दर्द में इंदिरा गांधी को पहुंचना ही था। गोरखपुर हवाई अड्डे
पर उतरकर सीधे जीप से बाढ़ पीड़ित क्षेत्र की यात्रा आरंभ हुई। नहर के
किनारे जीप धीरे-धीरे बढ़ रही थी। चारों ओर पानी ही पानी था। कहीं दूर दलित
महिलाएं खड़ी थीं। बदन पर थे चीथड़े। वे चिल्लाई- रुकिये। इंदिरा जी ने
जीप रुकवाई। कंधे तक पानी था। उसी को चीरती हुई महिलाएं जीप के पास पहुंची
और एक बुढ़िया ने इंदिरा जी का हाथ पकड़कर अपना दुख सुनाया। इन्दिराजी ने
कहा, मैं आपकी बात प्रधानमंत्री तक पहुंचा दूंगी और अपने कार्यकर्ताओं से
भी कहूंगी कि आपकी सहायता करें। पर आप तो जानती हैं अभी मैं प्रधानमंत्री
नहीं हूं। पास खड़ी हुई महिलाएं बोली- "हमने तो तुम ही को वोट दिया था। तुम
कैसे प्रधानमंत्री नहीं बनी।"
बुढ़िया तुरंत बोली- तुम जल्दी प्रधानमंत्री बन जाओ। नहीं तो इस देश के गरीब मर जाएंगे।
1978
के प्रारंभ में 4 राज्यों -आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र और असम की
विधानसभाओं के चुनाव होने वाले थे। उस समय इंदिरा जी की चुनाव यात्रा
चौबीसों घंटे चलती रही। एक महीने तक हमने बिस्तर देखा ही नहीं। मोटर में
बैठे-बैठे जरा झपकी आई तो "इंदिरा गांधी जिंदाबाद "का जयघोष सुनाई देता।
कार्यक्रम के अनुसार प्रतिदिन 20- 25 मीटिंग का आयोजन रहता और उतनी ही
मीटिंग बगैर आयोजन के हो जाती। यात्रा मोटर से चल रही थी। रास्ते में हर
गांव में गांव वाले मंच बनाते, सभा का इंतजाम करते और हजारों लोग घंटों
इंतजार करते हुए खड़े रहते। फिर हमारी गाड़ी इतनी लेट चलती कि जहां दिन के
12 बजे पहुंचना हो वहां रात 12 बजे पहुंचते। इंदिरा गांधी को नजदीक से
देखने का अवसर कौन भला खो देता। लोग कहते कि फिर से प्रधानमंत्री बनने पर
हमें यह मौका कहां मिलेगा ? लोगों का प्यार इसी तरह उमड़ता जैसे बाढ़ का
पानी।
चाहे
रात के 2 बजे हो या भोर में 4। हर गांव में रुकना ही पड़ता। इंदिरा जी को
दो-चार मिनट बोलना ही पड़ता। दर्शन के लिए घंटों प्रतीक्षा करने वालों को
चंद मिनट खड़े रहकर संतोष देना ही पड़ता । एक महीने तक यही क्रम चलता रहा।
सुबह 6 बजने के समय जो स्थान आता वहीं पर नहा लेना और आगे बढ़ना। खाने के
लिए समय निकालना तो और मुश्किल होता ।कई बार मोटर में बैठे-बैठे इंदिरा जी
हाथ में ही पूरी सब्जी रखकर झट से खा लेती और कभी दिन का खाना जहां तय हो,
वहां रात 2 बजे खाना खाती। चुनाव समाप्त होने पर एक दिन मैंने जिद्द की थी
दो-चार दिन कहीं आराम करने चलिए तो उन्होंने फटकारते हुए कहा, निर्मला,
तुमने इतनी बार गीता पढ़ी है। क्या तुम जानती नहीं कि रेस्ट इज़ इन एटीट्यूड
ऑफ माइंड (आराम तो मन की एक प्रति भर है )आराम करने जाना नहीं पड़ता ।
"1978 चुनावों का अंतिम दौर"
सुबह 3:30 बजे हम मुंबई पहुंचे और 7:00 बजे दूसरे दिन का कार्यक्रम प्रारंभ होने वाला था। ठीक 7:00 बजे तैयार होकर आई देखा तो एक भी स्थानीय कार्यकर्ता नहीं पहुंचा था।कुछ देर बाद इंतजार करने के बाद बोलीं," लगता है कि इस देश में मैं अकेली ही वर्कर हूं। बाकी सब लीडर हैं और मुझसे कहा, गाड़ी मंगवाओ , चलो हम चलेंगे। तुम तो बंबई जानती हो ना। मैं सोच ही रही थी कि इन्हें अकेले कहां ले जाऊं? तो एक स्थानीय नेता हाँफते हाँफते वहां पहुंचे और मैंने चैन की सांस ली। देश के हर सूबे के कार्यकर्ता चाहते थे कि इन्दिराजी हमारे यहां आयें। कार्यक्रम बनाते समय सभी को संतोष देना सम्भव ना होता था ।उस साल किसी तरह मैने दिसंबर का कार्यक्रम बना लिया और उनके सामने पेश किया। जब उन्होंने दो कार्यक्रम काटे तो मैंने कहा लोग बहुत नाराज हो जाएंगे । बड़ी मुश्किल से कार्यक्रम बन पाया है तो उन्होंने कहा " साल में 2 दिन मैं कोई कार्यक्रम नहीं ले सकती। 9 दिसंबर सोनिया का जन्मदिन और क्रिसमस बड़ा दिन। इन 2 दिनों मै दिल्ली ही रहूंगी,सोनिया के पास ।
"चिकमंगलूर का उपचुनाव"
यह कोई मामूली चुनाव नहीं था। सारी दुनिया की आंखें लगी थी। क्या 1977 की हार के बाद इंदिरा जी फिर से पार्लियामेंट पहुंच सकती हैं? चिकमंगलूर की आम जनता गरीब स्टेट्स के मजदूर, महिलाएं सभी को गौरव महसूस हो रहा था कि उनके इस सुदूर के जंगल पहाड़ों वाले इलाके से इंदिरा गांधी खड़ी थी। उनका वोट इंदिरा अम्मा के लिए ही पड़ने वाला था। उस समय के केंद्रीय शासक दल के नेताओं ने देखा कि वे बाजी हार रहे हैं तो फिर उन्होंने हिंसा को अपनाया। चुनाव प्रचार के अंतिम दिन चिकमंगलूर शहर में आम सभा का आयोजन किया था। इंदिरा जी ठहरी हुई थी शहर से 40- 50 मील की दूरी पर एक स्टेट में एक सज्जन के निवास पर। दोपहर 2 बजे तक वहां पहुंचना था। खबरें आ रही थी कि उस दिन रास्ते में इंदिराजी पर कातिलाना हमला करने की योजनाएं बनी हैं।आम सभा में भी हिंसा होने वाली है। जिससे कि चुनाव ही स्थगित हो सके। कर्नाटक में कांग्रेस की हुकूमत थी। आईजी पुलिस टेलीफोन पर बार-बार अनुरोध कर रहे थे कि किसी तरह इंदिरा जी को रोक लीजिए। बहुत खतरा है। ठीक समय पर इंदिरा जी बाहर निकली। हमने प्रार्थना की " थोड़ा रुका जाएं, वहां से खबर आने पर चलेंगे। उन्होंने कहा समय हो गया, चलो। अब हमने बहाने करना शुरू किया "गाड़ियां भेजी गई हैं पेट्रोल लेने के लिए बस आ ही रही हैं।" 10-15 मिनट बाद वे फिर बोली, चलो हजारों लोग उधर इंतजार कर रहे होंगे। मुझे जाना ही चाहिए । हमने गिड़गिड़ा कर कहा,थोड़ा रुकिए। जब एक घंटा बीत गया तो वे नाराज होकर बोलीं, अब मैं किसी की नहीं सुनूंगी। अकेली चली जाऊंगी। जब एक सज्जन धीरे से बोले कुछ खतरा है रास्ते में।तो वह बिगड़ पड़ी ,"अब तो मैं जरूर जाऊंगी।" तुम लोग मुझे बचाना चाहते हो। मेरे जीवन में खतरा कब नहीं था। तुम नहीं जाओगे तो मैं अकेली चली जाऊंगी और वह तेजी से बाहर निकली। हमने सारी गाड़ियां भेज दी थी पर दुर्भाग्य से एक गाड़ी लौट आई थी। इंदिरा जी उसी में बैठी और ड्राइवर से कहा चलो चिकमंगलूर। मैंने धीरे से कर्नाटक के एक साथी से कहा, ड्राइवर से कहिए दूसरे रास्ते से ले चलो। उन्होंने कन्नड़ भाषा में कुछ कह दिया और गाड़ी चल पड़ी ।10 मिनट बाद इंदिरा जी को कुछ संदेह हुआ उन्होंने कहा गाड़ी रोको, यह चिकमंगलूर का रास्ता नहीं है। चलो वापस। मैं घबरा गई। अब क्या होगा? फिर यूं ही कह दिया," यह शॉर्टकट है इसी रास्ते से जल्दी पहुंचेंगे।" उनको संतोष हो गया। कुछ देर बाद उन्होंने फिर से घड़ी देखी और कहा अब तक तो आ जाना चाहिए था चिकमंगलूर ।लोग मेरा इंतजार कर रहे होंगे। एक गांव दिखाई दिया। गाड़ी रुकवाई यह पूछने के लिए कि हम कितनी दूरी पर हैं। घड़ी बता रही थी 3:30 और हम ठीक उलटी दिशा में जा रहे थे। मैंने राहत की सांस ली। अब इन्दिराजी समझ गई। तुम लोग मुझे धोखा दे रहे हो। दूसरे रास्ते पर ले आए हो। हम चुपचाप डांट सुन रहे थे। तब तक गांव की एक मजदूर महिला ने देख लिया और वे चिल्लाई ,"इंदिरा अम्मा आयी। आवो आवो। देखते देखते पचासो महिलाएं आ गईं। वह महिला इन्दिराजी का हाथ पकड़कर उन्हें अपनी झोपड़ी में ले गईं। एक फटा सा टाट बिछाया और कहा बैठिये। वह बोलती ही जा रही थी ,"अम्मा यह पेड़ है ना उसके पत्ते हम लोग खाया करते थे। पर तुमने हमारी मजदूरी बढ़वाई और आज हम दोनों समय अनाज खा रहे हैं। तुमने हमारे लिए बहुत कुछ किया, पर हमें भी परिश्रम करना चाहिए। सारा बोझ तुम पर नहीं डालना चाहिए। इंदिरा जी प्रेम से उसकी बात सुन रही थी अम्मा आप क्यूँ घूम रही हो? हमारे वोट तो आप ही को मिलेंगे। सारा गांव इकट्ठा हो गया था। आज उनकी कुटिया में इंदिरा अम्मा आई थी। घर वाली महिला ने पूछा,अम्मा चाय पियेंगी? तब तक कोई पड़ोसन चूल्हा जला चुकी थी। एक टूटे कप में काली चाय आई।इन्दिराजी ने प्रेम से पी ली जैसे अमृत पी रही हो। ग्रामीण महिलाओं के साथ उनका वार्तालाप इस तरह चल रहा था जैसे वे उनकी सहेली हो। जब हम वहां से विदा हुए तो अम्मा खूब खुश थीं। घड़ी बता रही थी 5:30। अब चुनाव प्रचार बंद हो गया ।चिकमंगलूर जाना टल गया। मैं मन ही मन भगवान को दुआ दे रही थी।
सुबह 3:30 बजे हम मुंबई पहुंचे और 7:00 बजे दूसरे दिन का कार्यक्रम प्रारंभ होने वाला था। ठीक 7:00 बजे तैयार होकर आई देखा तो एक भी स्थानीय कार्यकर्ता नहीं पहुंचा था।कुछ देर बाद इंतजार करने के बाद बोलीं," लगता है कि इस देश में मैं अकेली ही वर्कर हूं। बाकी सब लीडर हैं और मुझसे कहा, गाड़ी मंगवाओ , चलो हम चलेंगे। तुम तो बंबई जानती हो ना। मैं सोच ही रही थी कि इन्हें अकेले कहां ले जाऊं? तो एक स्थानीय नेता हाँफते हाँफते वहां पहुंचे और मैंने चैन की सांस ली। देश के हर सूबे के कार्यकर्ता चाहते थे कि इन्दिराजी हमारे यहां आयें। कार्यक्रम बनाते समय सभी को संतोष देना सम्भव ना होता था ।उस साल किसी तरह मैने दिसंबर का कार्यक्रम बना लिया और उनके सामने पेश किया। जब उन्होंने दो कार्यक्रम काटे तो मैंने कहा लोग बहुत नाराज हो जाएंगे । बड़ी मुश्किल से कार्यक्रम बन पाया है तो उन्होंने कहा " साल में 2 दिन मैं कोई कार्यक्रम नहीं ले सकती। 9 दिसंबर सोनिया का जन्मदिन और क्रिसमस बड़ा दिन। इन 2 दिनों मै दिल्ली ही रहूंगी,सोनिया के पास ।
"चिकमंगलूर का उपचुनाव"
यह कोई मामूली चुनाव नहीं था। सारी दुनिया की आंखें लगी थी। क्या 1977 की हार के बाद इंदिरा जी फिर से पार्लियामेंट पहुंच सकती हैं? चिकमंगलूर की आम जनता गरीब स्टेट्स के मजदूर, महिलाएं सभी को गौरव महसूस हो रहा था कि उनके इस सुदूर के जंगल पहाड़ों वाले इलाके से इंदिरा गांधी खड़ी थी। उनका वोट इंदिरा अम्मा के लिए ही पड़ने वाला था। उस समय के केंद्रीय शासक दल के नेताओं ने देखा कि वे बाजी हार रहे हैं तो फिर उन्होंने हिंसा को अपनाया। चुनाव प्रचार के अंतिम दिन चिकमंगलूर शहर में आम सभा का आयोजन किया था। इंदिरा जी ठहरी हुई थी शहर से 40- 50 मील की दूरी पर एक स्टेट में एक सज्जन के निवास पर। दोपहर 2 बजे तक वहां पहुंचना था। खबरें आ रही थी कि उस दिन रास्ते में इंदिराजी पर कातिलाना हमला करने की योजनाएं बनी हैं।आम सभा में भी हिंसा होने वाली है। जिससे कि चुनाव ही स्थगित हो सके। कर्नाटक में कांग्रेस की हुकूमत थी। आईजी पुलिस टेलीफोन पर बार-बार अनुरोध कर रहे थे कि किसी तरह इंदिरा जी को रोक लीजिए। बहुत खतरा है। ठीक समय पर इंदिरा जी बाहर निकली। हमने प्रार्थना की " थोड़ा रुका जाएं, वहां से खबर आने पर चलेंगे। उन्होंने कहा समय हो गया, चलो। अब हमने बहाने करना शुरू किया "गाड़ियां भेजी गई हैं पेट्रोल लेने के लिए बस आ ही रही हैं।" 10-15 मिनट बाद वे फिर बोली, चलो हजारों लोग उधर इंतजार कर रहे होंगे। मुझे जाना ही चाहिए । हमने गिड़गिड़ा कर कहा,थोड़ा रुकिए। जब एक घंटा बीत गया तो वे नाराज होकर बोलीं, अब मैं किसी की नहीं सुनूंगी। अकेली चली जाऊंगी। जब एक सज्जन धीरे से बोले कुछ खतरा है रास्ते में।तो वह बिगड़ पड़ी ,"अब तो मैं जरूर जाऊंगी।" तुम लोग मुझे बचाना चाहते हो। मेरे जीवन में खतरा कब नहीं था। तुम नहीं जाओगे तो मैं अकेली चली जाऊंगी और वह तेजी से बाहर निकली। हमने सारी गाड़ियां भेज दी थी पर दुर्भाग्य से एक गाड़ी लौट आई थी। इंदिरा जी उसी में बैठी और ड्राइवर से कहा चलो चिकमंगलूर। मैंने धीरे से कर्नाटक के एक साथी से कहा, ड्राइवर से कहिए दूसरे रास्ते से ले चलो। उन्होंने कन्नड़ भाषा में कुछ कह दिया और गाड़ी चल पड़ी ।10 मिनट बाद इंदिरा जी को कुछ संदेह हुआ उन्होंने कहा गाड़ी रोको, यह चिकमंगलूर का रास्ता नहीं है। चलो वापस। मैं घबरा गई। अब क्या होगा? फिर यूं ही कह दिया," यह शॉर्टकट है इसी रास्ते से जल्दी पहुंचेंगे।" उनको संतोष हो गया। कुछ देर बाद उन्होंने फिर से घड़ी देखी और कहा अब तक तो आ जाना चाहिए था चिकमंगलूर ।लोग मेरा इंतजार कर रहे होंगे। एक गांव दिखाई दिया। गाड़ी रुकवाई यह पूछने के लिए कि हम कितनी दूरी पर हैं। घड़ी बता रही थी 3:30 और हम ठीक उलटी दिशा में जा रहे थे। मैंने राहत की सांस ली। अब इन्दिराजी समझ गई। तुम लोग मुझे धोखा दे रहे हो। दूसरे रास्ते पर ले आए हो। हम चुपचाप डांट सुन रहे थे। तब तक गांव की एक मजदूर महिला ने देख लिया और वे चिल्लाई ,"इंदिरा अम्मा आयी। आवो आवो। देखते देखते पचासो महिलाएं आ गईं। वह महिला इन्दिराजी का हाथ पकड़कर उन्हें अपनी झोपड़ी में ले गईं। एक फटा सा टाट बिछाया और कहा बैठिये। वह बोलती ही जा रही थी ,"अम्मा यह पेड़ है ना उसके पत्ते हम लोग खाया करते थे। पर तुमने हमारी मजदूरी बढ़वाई और आज हम दोनों समय अनाज खा रहे हैं। तुमने हमारे लिए बहुत कुछ किया, पर हमें भी परिश्रम करना चाहिए। सारा बोझ तुम पर नहीं डालना चाहिए। इंदिरा जी प्रेम से उसकी बात सुन रही थी अम्मा आप क्यूँ घूम रही हो? हमारे वोट तो आप ही को मिलेंगे। सारा गांव इकट्ठा हो गया था। आज उनकी कुटिया में इंदिरा अम्मा आई थी। घर वाली महिला ने पूछा,अम्मा चाय पियेंगी? तब तक कोई पड़ोसन चूल्हा जला चुकी थी। एक टूटे कप में काली चाय आई।इन्दिराजी ने प्रेम से पी ली जैसे अमृत पी रही हो। ग्रामीण महिलाओं के साथ उनका वार्तालाप इस तरह चल रहा था जैसे वे उनकी सहेली हो। जब हम वहां से विदा हुए तो अम्मा खूब खुश थीं। घड़ी बता रही थी 5:30। अब चुनाव प्रचार बंद हो गया ।चिकमंगलूर जाना टल गया। मैं मन ही मन भगवान को दुआ दे रही थी।
"1977 के चुनाव के नतीजे"
आते रहे और मैं विश्वास न कर सकी।क्या इन्दिराजी हार सकती हैं? यह एक ऐसा सदमा था जिसको बर्दाश्त करना आसान नहीं था। मैं उसी हालत में इन्दिराजी के पास पहुंची। यह क्या हो गया । मैंने कहा। मेरे आंसू रुक न सके। वह शान्ति से बोली,"जो होना था हो गया। अब आगे की सोचो। क्या काम करना है और मुझे सांत्वना देने लगी थी। उनकी वह शान्त, स्थिर संतुलित प्रतिमा में कभी नहीं भूल सकती ।
"फिर आई 1980 की जनवरी"
बड़ी भारी जीत। 12 नंबर बिलिंगटन क्रिसेंट के प्रांगण में और सामने सड़क पर लोग खुशी से नाच रहे थे, झूम रहे थे ।इंदिरा गांधी जिंदाबाद के नारों से आसमान गूंज उठा।
आते रहे और मैं विश्वास न कर सकी।क्या इन्दिराजी हार सकती हैं? यह एक ऐसा सदमा था जिसको बर्दाश्त करना आसान नहीं था। मैं उसी हालत में इन्दिराजी के पास पहुंची। यह क्या हो गया । मैंने कहा। मेरे आंसू रुक न सके। वह शान्ति से बोली,"जो होना था हो गया। अब आगे की सोचो। क्या काम करना है और मुझे सांत्वना देने लगी थी। उनकी वह शान्त, स्थिर संतुलित प्रतिमा में कभी नहीं भूल सकती ।
"फिर आई 1980 की जनवरी"
बड़ी भारी जीत। 12 नंबर बिलिंगटन क्रिसेंट के प्रांगण में और सामने सड़क पर लोग खुशी से नाच रहे थे, झूम रहे थे ।इंदिरा गांधी जिंदाबाद के नारों से आसमान गूंज उठा।
मैं
उनके पास पहुंची।कहा ,"भगवान की कैसी कृपा थी जो आज का यह दिन देखा
।इन्दिराजी उसी तरह शांति से बोली ,"ठीक है, आगे के काम की बात सोचो।
उनकी वही प्रतिमा शांत, स्थिर संतुलित।और मुझे याद आया गीता का दूसरा
अध्याय। स्थित्पृज्ञ के लक्षणों का वह श्लोक
दुखेषु अनुद्विग्न मना:। सुखेषू विग तस्प्रह:।
वीतरागभयक्रोध:स्थितधीर मुनिरुच्य्ते।"
दुख में जो अनु द्विग्न,सुख में नित्य निस्पर्ह,
वीतराग भय क्रोध मुक्ति है स्थित भी वही।"
सुख-दुख दोनों में समान भाव, समान शांति, समान संतुलन।
साभार : दिवंगत सांसद निर्मला देशपांडे का 1985 में नित्यनूतन पत्रिका में प्रकाशित लेख
दुखेषु अनुद्विग्न मना:। सुखेषू विग तस्प्रह:।
वीतरागभयक्रोध:स्थितधीर मुनिरुच्य्ते।"
दुख में जो अनु द्विग्न,सुख में नित्य निस्पर्ह,
वीतराग भय क्रोध मुक्ति है स्थित भी वही।"
सुख-दुख दोनों में समान भाव, समान शांति, समान संतुलन।
साभार : दिवंगत सांसद निर्मला देशपांडे का 1985 में नित्यनूतन पत्रिका में प्रकाशित लेख
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