शहादत दिवस : मजबूती का नाम महात्मा गांधी

हात्मा गांधी पर बनी फिल्म "गांधी" कल बड़े पर्दे पर देखने का मौका मिला । बहुत ही बेहतरीन पटकथा, सुव्यवस्थित, ज्ञान एवं मनोरंजन से परिपूर्ण मूवी। हर कलाकार ने अपना किरदार बहुत ही खूबसूरत ढंग से निभाया है। आज के परिपेक्ष में यह फ़िल्म न केवल उपयोगी है, बल्कि प्रासंगिक भी है। हमारे देश ने बापू को बहुत सम्मान दिया है। राष्ट्रपिता का दर्जा दिया है। दिल्ली राजघाट उनकी समाधि पर हर कोई विदेशी राजनयिक व पर्यटक जो भारत आता है, वहाँ जाकर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता है। हर स्कूल-कॉलेज, न्यायालय तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर उनके चित्र दृष्टिगोचर होते है।  भारतीय मुद्रा पर भी उनका चित्र प्रकाशित किया है। इस देश में देवालयों में भगवान की मूर्ति स्थापना के अतिरिक्त यदि किसी एक व्यक्ति की कोई प्रतिमा है, तो वह गांधी की ही है। भारत में तो एक राज्य की राजधानी का नाम ही उनके नाम पर "गांधीनगर" है । मोहल्लों, बस्तियों और अन्य संस्थानों के नाम तो उनपर अगणित हैं। एक राजनीतिक पार्टी तो चलती ही "गांधी" के नाम पर है तो दूसरी ओर एक संगठन जो स्वयं एक अन्य राजनीतिक पार्टी का सरपरस्त एवंं जनक है। उसकी सुबह की प्रार्थना में वे  "प्रातः स्मरणीय" है।  देश में अनेक ऐसे दल एवं संगठन हैं, जो गांधी के नाम के समर्थन एवं विरोध के नाम पर ही चल रहे हैं।
महात्मा गांधी का पूरा जीवन सत्य और अहिंसा को ही समर्पित रहा। वे एक उच्च कोटि राजनेता के साथ-2 एक आध्यात्मिक विभूति एवं रचनात्मक कार्यकर्ता थे। अपनी आत्मकथा को उन्होंने सत्य के प्रयोग का नाम दिया। ईश्वर सत्य है, को उन्होंने परिभाषित करते हुए कहा कि सत्य ही ईश्वर है। अहिंसा को आत्मसात करते हुए उन्होंने सत्याग्रह की अनूठी रचना की। भारत की आज़ादी के  संपूर्ण आंदोलन को उन्होंने इसी प्रयोग से लड़ा और विजय प्राप्त की। अल्बर्ट आइंस्टीन ने सही कहा कि आने वाली पीढ़ियां इस हाड़ मांस के पुतले पर कभी यकीन नहीं करेंगी। यह था गांधी, जिससे अंग्रेज़ी साम्राज्य जिसके राज में कभी सूरज नहीं छिपता था, वह इस निहत्थे सैनिक की शक्ति के सामने टिक नहीं सका। बापू का मानना था कि हिंदुस्तान को आज़ादी इसलिए चाहिए ताकि वह दुनियां की सेवा कर सके। हमारे देश के आज़ाद होते ही पूरी दुनिया के गुलाम देशों के बंधन एक के बाद एक टूटने शुरू हो गए और अधिकांश ने अपना-अपना संघर्ष गांधी के रास्ते से ही लड़ा।
     गत वर्ष मुझे अमेरिका में कई माह रहने का अवसर मिला। जैसा कि हम जानते हैं कि वहां दुनियाभर के अनेक देशों के लोग रहते हैं। किसी से भी मिलने पर मैं उनसे पूछता की क्या वे इंडिया के बारे में जानते हैं ? उनके हां करने पर मैं उनसे देश के देवी-देवताओं, राजा-महाराजाओं, सल्तनत के बादशाहों-नवाबों और फिर राजनेताओं के बारे में पूछता। अक्सर उनका जवाब होता कि वे इनमें से किसी एक को भी नही जानते। पर जब मैं उनसे महात्मा गांधी के बारे में पूछता तो वे एक दम फटाक से बोलते "यस ,वी नो अबाउट गांधी"। पूरी दुनियां में यदि किसी एक नाम से इस देश की पहचान है तो वह गांधी का नाम है।
 मुझे मेरी गुरु दीदी निर्मला देशपांडे जी के साथ अनेक बार पाकिस्तान जाने का भी मौका मिला। यह देश तो बना ही गांधी की इच्छा के विरुद्ध था। उनके लिए स्वतंत्रता आंदोलन का कोई एक विलेन (खलनायक) था तो वह गांधी ही था। अपनी यात्रा में दीदी लगभग 50 किताबें बापू की आत्मकथा की उर्दू अनुवाद की प्रतियां (तलाश ए हक) ले गई थीं। हमने पाया बेशक वहाँ के शासक वर्ग ने गांधी विचार के बारे में नकारात्मक सोच का ही प्रचार किया हो, पर नौजवानों में बापू की पुस्तकों की मांग को हम पूरा न कर सके।
   पूरी दुनियां में बेशक गांधी के नाम व काम की धूम हो, परंतु हमारे देश में गांधी का नाम लेना इसलिए भी मजबूरी है, क्योंकि यह ही मजबूती का नाम है। कुछ हिंदुत्व वादी संगठन उनको इसलिए नापसंद करते हैं, क्योंकि वे मुसलमानों के समर्थक थे। मुस्लिम इसलिए, कि वे एक हिंदू नेता थे। कम्युनिस्ट इसलिए कि वे बुर्ज़वाजी के नेता थे आदि -2 । पर गांधी सबके विचार में तो है हीं। एक गोडसे वादी महिला साध्वी प्राची उनके पुतले पर गोली चलाकर गोडसे ज़िंदाबाद के नारे लगाकर अपनी हताशा प्रकट करती है और मुस्लिम युवक शारजील उन्हें एक फ़ासिस्ट कहकर अपनी भड़ास निकालता है। जहर इन दोनों में भरा है। एक इसे राष्ट्रवाद से सना मानता है दूसरे को देशद्रोही कहा जाता है पर हैं दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू ।
     15 अगस्त,1947 को जब सारा देश आज़ादी का जश्न मना रहा था तब यह महानायक  सांप्रदायिकता की आग में जल रहे कलकत्ता को अपनी प्राणों की बाज़ी लगाकर शांत करने में लगा था । यह था बापू। आज जब लोग आपसी तनाव व द्वेष पैदा करके अपनी राजनीतिक सत्ता का साम्राज्य बढ़ाना चाहते हैं, तब महात्मा गांधी और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।
महात्मा जी की शहादत की 73वीं वर्षगांठ पर आइए हम उस युगपुरुष को याद कर आज़ादी के लक्ष्यों के प्रति स्वयं को समर्पित करें ।
साभार : राम मोहन राय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

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