Good Sports Spirit : बड़ी नीक होती है खेल भावना

  • बड़ी नीक होती है खेल भावना



  • के. विक्रम राव

यकीन नहीं होता,  पर यह वाकया है सच क्योंकि खेल की भावना से जुड़ा है, इसीलिए शायद एक पुरानी घटना बरबस याद आ गई।  बरलाडा (स्पेन) में विश्व दौड़ (रेस) प्रतिस्पर्धा (जनवरी 2013) हो रही थी। अंतिम दौर में केवल दो धावक बचे थे। स्पेन का चौबीस-वर्षीय इवान फर्नांडिस और केन्या (अफ्रीका) का तेईस-वर्षीय एबेल किप्रोप मुताई। ढइया (रिब्बन) छूने के करीब मुताई पहुँच गया था,  तभी उसकी स्पृहा मंद पड़ गई।  वह समझा मंजिल पार कर गया और रुक गया। ठीक पीछे स्पेन का तेज धावक ईवान था। दो ढाई फिट ही पीछे। ईवान को आभास हो गया कि मुताई को स्मृति-लोप हो रहा है। वह चीख कर बोला, “दौड़ो, बढ़ो आगे” पर मुताई स्पेनिश नहीं जानता था। किंकर्तव्यविमूढ़ सा रह गया।  तभी ईवान का दिमाग कौंधा।उसने मुताई के पीठ पर हथेली जोर से लगाई। धक्का दिया और मुताई रिब्बन तोड़कर चरम बिंदु पार कर गया। विजयी घोषित हुआ।

 पेवेलियन में रिपोर्टरों ने ईवान से प्रश्नों की झड़ी लगा दी। “क्यों ऐसी हरकत की?” ईवान का उत्तर था: “मेरा मानना है कि स्पर्धा के अलावा भी जीवन में बहुत कुछ है।  जैसे सामुदायिक सौहार्द्र” पत्रकार का अगला प्रश्न था :      “मगर उस कीनियन को आपने जीतने क्यों दिया?” ईवान बोला : “मैंने उसे जीतने नहीं दिया। वह तो जीत ही रहा था।” फिर सवाल था, “मगर आप तो आसानी से जीत सकते थे। मुताई निस्पृह था।” ईवान ने आखिरी जवाब, बल्कि मन्तव्य व्यक्त किया : “ऎसी जीत के मायने क्या होते ? वह पदक मुझे जीत का असली आह्लाद नहीं दे पाता।फिर मेरी माँ क्या कहती ? जीवन भर मेरी माँ मुझे संस्कारी बनाती रही और मैं किसी असहाय को धुप्पल में हराकर उसका पारितोष हथिया लेता?” 

खेल जगत की इस घटना से एक सबक हम बुजुर्गों और प्रौढ़जनों के लिए मिलता है।ईवान हम सब के लिए सीख दे गया, सन्देश भी। हम अपनी संतानों को बताएं कि गलत रीति से जीतना गलत ही होता है। बच्चों को हारना भी सिखायें। पराजय को सकारात्मक रूप में लें। झटका झेल पाने का माद्दा सर्जायें । विगत सदी में पैदा हुए अधिकांश बच्चे अपने अभिभावकों से इतनी बार कूटे गए होंगे कि मुझे लगता है उनसे मजबूत शायद ही कोई हो। कई बार तो बिना गलती के भी कुटम्मस होती थी। घर में कोई हथियार नहीं बचा होगा, जिसका उपयोग नहीं किया गया हो। चप्पल, बेंत, बेल्ट, फूंकनी, चिमटा, कपडे धोने का सोटा, पानी का पाइप, झाड़ू आदि प्रमुख थे। आज हम अपने बच्चों को एक चपत भी नहीं मार सकते। जब से एक या दो बच्चों का चलन चल निकला, बस वहीँ से पिटाई कम होते होते, बंद ही हो गई है। उस दौर में पूरा मोहल्ला एक परिवार की तरह होता था।पीटने वाले चाचा, काका, ताऊ, मामा, फूफा, मौसा आदि भी असंख्य होते थे। 

अंत में एक पुराने कार्टून की याद आ गई। एक बाल्टी में केकड़े पड़े थे। एक बाहर आने को उठता तो दूसरा उसे नीचे खींच लेता। शीर्षक था, “पत्रकार समाज”


  • साभार : के.विक्रम राव, Mobile -9415000909.

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