Poetry : अरे बाबुल

 अरे बाबुल

काहे को ले मेरा पाप अरे बाबुल काहे को मारे

बोझा नहीं हूँ मैं आज अरी मैया काहे को मारे

      गोदी में चढ़ तेरा चेहरा दुलारूँगी

      होकर बढ़ी तेरा घर में संवारूंगी

लाठी ,बनूँगी चिराग अरे बाबुल काहे को मारे

       बाँटूँगी न तेरे महल दुमहले 

       धुलवा के मैं तेरे मुंह हाथ मैले

ताजा मैं परसूँगी भात अरे बाबुल काहे को मारे

      चहकूँगी आँगन की सोन चिरैया हूँ

      खूंटे की मैं तेरे वो काली गैया हूँ 

खा ऊँ दिया तेरे हाथ अरे बाबुल काहे को मारे

      भैया जो छोड़ेगा मैं ही सहारूँगी

      मैं तेरी तुलसी हूँ दुखों से तारूँगी

तेरे बुढ़ापे की लाज अरे बाबुल काहे को मारे

      टप टप तेरा वंश आँखों से बरसा तो 

      शव तेरा  अपनो  के  कांधे को तरसा तो 

मैं ही लगा दूंगी दाग अरे बाबुल काहे को मारे


डॉ पुष्पलता  मुजफ्फरनगर

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