Pressure on Press : प्रेस पर प्रेशर कितना ?, तब और अब !
- प्रेस पर प्रेशर कितना ? तब और अब !
- के. विक्रम राव
कई दफा सुना। बहुत बार पढ़ा भी। अब मितली सी होने लगती है। वितृष्णा और जुगुप्सा भी। कथित जनवादी, प्रगतिशालि, अर्थात वामपंथी और सोनिया—कांग्रेसी दोहराते रहते है, चीखते भी हैं कि आज आपातकाल से भी बदतर स्थिति हो गयी है। अत: तार्किक होगा कि खूंखार टीवी एंकर, खोजी खबरिये और जुझारु—मीडियाकर्मियों की तब (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977) और आज की कार्यशैली की तनिक तुलना करें।
मसलन आपातकाल जैसी लोमहर्षक वारदातें यदि आज होतीं, तो वर्तमान मीडिया क्या सत्तावानों के, पुलिसवालों के, राजनेताओं के, समाज के कर्णधारों के परखमें और पुर्जें नहीं उड़ा देते? अत्याचारियों की धज्जियां ढूंढे नहीं मिलती। तो इन पुराने हैवानी हादसों पर गौर करें। दो घटनाओं का उल्लेख करें। आपातकाल में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. रघुवंश को नजरबंद कर जेल में सड़ाया गया। उनपर इल्जाम लगा था कि वे खंभे पर चढ़कर संचार के तार काट रहे थे। डा. रघुवंश जन्मजात लुंज थे। वे बाल्यावस्था से ही अपने पैरों की उंगलियों के बल लिखा करते थे। कालीकट (केरल) के इंजीनियरिंग के छात्र वी. राजन को नक्सलवादी कहकर कैद किया गया था। टांगों को लोहे की चादर से कुचला गया। वह मर गया। पुलिस ने इस हरकत से साफ इनकार कर दिया था। मगर न्यायालय ने सच्चाई ढूंढ ही ली। मुख्यमंत्री के. करुणाकरण को त्यागपत्र देना ही पड़ा।
मध्य प्रदेश की एक पुलिस हिरासत में मां और बेटे को विवस्त्र करके साथ सुलाया गया था। सत्तारुढ मां—बेटे (संजय गांधी) इस पर मौन रहे। भारत के प्रधान न्यायाधीश जेसी शाह के न्यायिक आयोग ने इन वारदातों के विवरण को सार्वजनिक कर दिया था। अखबारों की बिजली काटकर 26 जून 1975 को दैनिक ही नहीं छपने दिये गये थे। ढेर सारे ऐसे हादसे हुये थे। जैसे खेतों में ही किसानों की नसबंदी करा दी। जनसंख्या नियंत्रण का अभियान था। मुसलमानों, खासकर जामा मस्जिद और तुर्कमानगेट पर जो पुलिस ने किया, वह तो जघन्य था। तात्पर्य यह है कि इतना नृशंस, क्रूरतम और अमानविक जुल्म तब ढाया गया था। क्या आज के भारत में ऐसी घटनायें संभव हैं? कहीं जिक्र होता भी हैं? अगर कहीं किसी सिरफिरे पुलिसवाले अथवा राजमद में सत्तासीन व्यक्ति ने ऐसा करे भी तो वह क्या बच पायेगा? मुक्त टीवी बहस में उसकी बधिया उखाड़ दी जायेगी। बोटी—बोटी हो जायेगी। तो फिर क्या औचित्य है यह चिल्लपों करने का कि इन्दिरा गांधी वाली इमर्जेंसी अब मोदी राज में वापस लौट आयी है। विचारणीय बात यह है कि ऐसी बेतुकी बातें वे करते है जो एमर्जेंसी के समय या बाद में जन्मे हैं। राहुल गांधी और उनकी भगिनी प्रियंका वाड्रा तीन और चार साल के शिशु थे जब उनकी दादी तानाशाह बन बैठीं थीं।
वस्तुस्थिति यह है कि आज तक आपातकाल के अपराधियों ने न तो कोई दण्ड भुगता, न उनलोगों ने कभी यातना देखी। अत: दिमागी बेईमानी होगी यह कहना कि आपातकाल जैसी स्थिति आज भी है। जन अदालत का फैसला 1977 में देखा गया। रायबरेली की जनता द्वारा प्रधानमंत्री के चुनाव पर दिये गये जनादेश को याद करें।
मीडिया का हाल उस वक्त कैसा था? लालकृष्ण आडवाणी (मोरारजी काबीना के सूचना एवं प्रसारण मंत्री) ने बेहतरीन बात कही पत्रकारों से : ''इंदिरा गांधी ने तो आप लोगों से झुकने के लिये कहा था और आज लोग लगे रेंगने!'' क्या वर्तमान युग में ऐसा मुमकिन है? हुजुम है आज जांबाज पत्रकारों का जो पलटवार करेंगे, झुकने की तो बात है ही नहीं। आज सेंसरशिप कोई सरकार लगा सकती है? तत्काल उसे तोड़ा जायेगा। हां, जिन मीडिया मालिकों का व्यवसायिक हित है वे जरुर उसके संवाददाताओं को धमकायेंगे, परेशान करेंगे। खबर दबायेंगे।
स्वयं अपना उदाहरण 1976 का पेश करुं । प्रतिरोध की आवाज इर्मेंजेंसी (1975-77) में पूरी तरह कानून कुचल दिया गया था। मीडिया सरकारी माध्यम मात्र बन गया था। अधिनायकवाद के विरोधी जेलों में ठूंस दिये गये थे। समूचा भारत गूंगा बना दिया गया था। न्यायतंत्र नंपुसक बना डाला गया था। हालांकि उसके कान और आँख ठीक थे। उस दौर में हम पच्चीस सामान्य भारतीयों ने देश के इतिहास में सबसे जालिम, खूंखार और मेधाहीन तानाशाही का सक्रिय विरोध करने की छोटी सी कोशिश की थी। पुलिस ने इसे ''बड़ौदा डायनामाइट षडयंत्र'' का नाम दिया था। सजा थी फांसी। तब मैं बड़ौदा में ''टाइम्स आफ इन्डिया'' का संवाददाता था। मेरा आवास हमारी भूमिगत प्रतिरोधात्मक गतिविधियों का केन्द्र था। हम सब की गिरफ्तारी के बाद कुछ लोग समझे थे कि बगावत की एक और कोशिश नाकाम हो गई थी। पर ऐसा हुआ नहीं था।
रायबरेली के वोटरों ने हमारा मकसद पूरा किया। तब तानाशाह पहले कोर्ट (इलाहाबाद) से, फिर वोट (रायबरेली, 20 मार्च 1977) से हारीं। हम सब रिहा हो गये। भारत दुबारा आज़ाद हुआ। अब वैसी (25 जून 1975) तानाशाही फिर कभी नहीं लौटेगी। मगर आजादी किसी की कभी बरकरार नहीं रहती है, सिवाय उनके जो सचेत रहते हैं। मेरे लिये यह आवश्यक है, स्वाभाविक भी, क्योंकि मेहनतकश पत्रकार के नाते समतामूलक समाज का सृजन मेरा भी सपना है। इसीलिए हर जगह प्रतिरोध की लौ हम जलाना चाहते हैं। जनवादी संघर्ष का अलख हम जगाना चाहते हैं।
उसी दौर का वृतांत है। बड़ौदा जेल में गुजरात के डीजी (पुलिस) पीएन राइटर मुझसे जिरह करने आये। उनका प्रश्न था : ''जब समूचे भारत के पत्रकार पटरी पर आ गये थे, तो आप (दो संतानों के पिता) को क्या सूझी थी कि इंदिरा गांधी के विरोध में बगावत का परचम लहराये?'' मेरा उत्तर सामान्य था। वे भी ''टाइम्स आफ इंडिया'' के पाठक थे। मैंने पूछा : '' डीजीपी साहब, 25 जून 1975, प्रेस सेंसरशिप लगाये जाने के पूर्व ''टाइम्स'' पढ़ने में कितना समय लगाते थे? वे बोले : '' सोलह पृष्ठ पढ़ने में करीब बीस—बाईस मिनट लगते थे।'' मेरा अगला प्रश्न था : ''जून 25 के बाद, जब सेंसरशिप लागू हो गयी थी, तब?'' उनका जवाब था : ''अब करीब दस मिनट।'' मैं बोला : ''साहब! आपके दस मिनट वापस लाने के लिये मैं जेल में आया हूं।'' बस मेरा पुलिसिया इंटरोगेशन खत्म हो गया। क्या आज कहीं पत्रकारिता में ऐसी स्थिति की लेशमात्र भी आशंका है? संभव भी हो सकती है? यर्थार्थवादी दृष्टि अपनाये। नयी पीढ़ी के, खासकर युवा श्रमजीवी पत्रकार कायर नहीं हैं। बस यही सम्यक टिप्पणी है: इंदिरा शासन के दौर की मीडिया पर और आज के टीवी—अखबारों पर। निरंकुशता के सोपान पर इंदिरा गांधी से नरेन्द्र मोदी बहुत निचले पायदान पर हैं।
K Vikram Rao
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