आखिर मजीठिया वेज बोर्ड का विरोध क्यों !
 पिछले कुछ दिनों से आईएनएस ने पत्रकार और गैर पत्रकारों के लिए गठित छठे वेतन आयोग जीआर मजीठिया की रिपोर्ट के खिलाफ एक अभियान चलाया हुआ है। इस अभियान की अगुवाई टाइम्स आफ इंडिया आदि कुछ बड़े समाचार पत्रों द्वारा की जा रही है। उसमें जहां पु्राने समाचारों को स्थान दिया जा रहा है, वहीं मुहिम के जरिए यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि यदि यह रिपोर्ट लागू की गई तो देश के अधिकांश समाचार पत्र बंद होने के कगार पर आ जाएंगे। उसमें तथ्य यह प्रस्तुत किए जा रहे हैं कि इस रिपोर्ट के लागू होने पर एक हजार करोड़ टर्नओवर वाले समाचार पत्रों के चपरासी और ड्राइवर का वेतन भी 45-50 हजार रुपये हो जाएगा, जो सीमा पर जवान और एक मजिस्ट्रेट के वेतन से भी अधिक है। यहां सवाल यह है कि टाइम्स आफ इंडिया या आईएनएस को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि देश में एक हजार करोड़ रुपये टर्नआवर वाले कितने समाचार पत्र हैं और उनमें कितने चपरासी और ड्राइवर नियमित कर्मचारी हैं, जो इनके दावे के अनुसार बढ़ा वेतन पाने के हकदार होंगे। भ्रमित करने के लिए अपने अभियान मे आईएनएस भले ही कुछ दावे करे, लेकिन वास्तविकता को जानना जरूरी है कि आज प्राथमिक स्कूलों में सहायक अध्यापक का वेतन भी 20 हजार रुपये से 25 हजार रुपये है जबकि हर समय पूरे समाज को शिक्षित करने वाले समाचार पत्रों में उप संपादक का इतना वेतन किसी भी समाचार पत्र में अभी तक भी नहीं है, जबकि उनकी तुलना महाविद्यालय के प्रवक्ता से की जाती है, जिनका न्यूनतम वेतन 50 हजार से 75 हजार रुपये तक पहुंच रहा है। समाचार पत्र मालिकों की सोच पूरी तरह उस उद्यमी की तरह हो गई है, जो मोटी कमाई करके अपनी बैलेंस शीट को तो बराबर बढ़ाना चाहता है, लेकिन अपने मूल आधार मानवसंसाधन के वेतन और अन्य सुविधाओं पर खर्च को वह फालतू का खर्च मानने लगता है। यह स्थिति किसी एक समाचार पत्र की नहीं, बल्कि अधिकांश समाचार पत्र मालिकों की हो गई है।
एक तथ्य तो कितना अजीब है कि वेज बोर्ड की सिफारिश लागू होने पर पत्रकार सरकार के खिलाफ कोई समाचार नहीं लिख पाएंगे। इसमें क्या कोई बता सकता है? कि आज के हालात में कौन पत्रकार स्वतंत्र रूप से अपनी लेखनी का दावा कर सकता है। वेज बोर्ड की सिफारिश के खिलाफ अभियान चलाने वाले ही एक मीडिया संस्थान का यह उदाहरण क्या साफ नहीं है कि कामनवेल्थ गेम में ठेका नहीं मिलने पर इस मीडिया संस्थान ने अपने सभी मीडिया माध्यम अखबारों और चैनलों को सरकार के खिलाफ कुछ सच्ची खबरों के साथ ही झूठी खबरों को भी परोसकर सरकार के खिलाफ मुहिम चलाई।
जहां तक समाचार पत्रों के इस रिपोर्ट के लागू होने पर बंद होने की चेतावनी दी जा रही है, यह सरासर गलत है, चूंकि इसी रिपोर्ट के आधार पर जो समाचार पत्र 30 फीसदी अंतरिम राहत दे रहे हैं क्या वे बंद हो गए और जिन समाचार पत्रों ने आज तक किसी भी वेज बोर्ड की रिपोर्ट को लागू नहीं किया, उनके खिलाफ किस सरकार ने क्या कार्रवाई की है? या उनके खिलाफ किस कार्रवाई की उम्मीद की जा सकती है! इससे पहले मणिसाना वेज बोर्ड की रिपोर्ट लागू नहीं करने के लिए तमाम समाचार पत्रों ने क्या-क्या हथकंडे अपनाए हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में आईएनएस जानबूझकर इस अभियान के जरिए हमेशा के लिए पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों के लिए वेज बोर्ड गठन को बंद कराने की मंशा रखती है। इसके लिए मणिसाना वेज बोर्ड के समय तथाकथित रूप से श्रम सचिव के बयान को भी आधार बनाया जा रहा है और समाचार पत्रों के अलावा अन्य मीडिया टीवी और रेडियो आदि पर इसके लागू नहीं होने की बात भी की जा रही है। चीनी मिल उद्योग में समाप्त की गई वेज बोर्ड की व्यवस्था का भी उदाहरण दिया जा रहा है। और तो और देश के एक प्रमुख हिंदी दैनिक ने बड़ी ही बेशर्मी से पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिश का विरोध किया है। यह वही संस्थान है, जिसने कभी भी ईमानदारी से किसी भी वेज बोर्ड की सिफारिश को लागू नहीं किया है।
भारत सरकार भी मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को लागू करने में अब तो लगता है कहीं न कहीं बड़े समाचार पत्रों और उनके संगठन आईएनएस के दबाव में है, इसी का परिणाम है कि कई कैबिनेट की बैठक हो जाने के बावजूद नोटिफिकेशन जारी नहीं किया जा रहा है, जबकि आज की तिथि में इसमें किसी भी तरह का कोई अवरोध नहीं है। वह अलग बात है कि हर दूसरे दिन केंद्रीय श्रम मंत्री का बयान इस रिपोर्ट को जल्द लागू करने और नोटिफिकेशन होने की बाबत आ जाता है। आश्वासन तो खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गांधी भी पत्रकारों को दे चुके हैं। यह आश्वासन कब पूरा होगा, यह कोई नहीं जानता।
यदि भारत सरकार इस सिफारिश को लागू नहीं करना चाहती तो इस वेज बोर्ड के गठन की औपचारिकता ही क्यों पूरी की जाती है? और इसको हमेशा के लिए समाप्त ही क्यों नहीं कर दिया जाता? वैसे भी पत्रकारों या उनके संगठनों से तो सरकार कतई घबराना ही नहीं चाहिए, चूंकि उनमें कोई दम नहीं है। जिसका एक उदाहरण कुछ प्रदेशों में वेलफेयर फंड का समाचार पत्र की याचिका पर कोर्ट के आदेश पर समाप्त होना है। यह वह फंड था, जिससे पत्रकारों को गंभीर बीमारी होने पर आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी। इस फंड में सरकारी विज्ञापनों के भुगतान से कुछ फीसदी कटौती करके जमा की जाती थी। इस फंड को समाप्त करने के लिए जब समाचार पत्र और उनके संगठन कोर्ट में गए तो सरकार ने तो उसमें पैरवी की ही नहीं बल्कि कोई पत्रकार संगठन भी आगे नहीं आया।
पत्रकार संगठनों के आगे नहीं आने का एक बड़ा कारण यह है कि इन संगठनों पर अधिकांश ऐसे पत्रकारों का कब्जा है, जो कहीं नियमित नौकरी नहीं करते और संगठनों को अपनी निजी दुकान के रूप में खुद के लिए अपेक्षित सुविधाएं अर्जित करने का साधन बनाए हुए हैं।






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