मायावती समझें खतरे की घंटी
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अब यह बात साफ होने लगी है कि सवर्णों को लुभाने के चक्कर में बसपा के दलित वोट बैंक में सेंध लग गई है। दलितों में गैर जाटव वोट के बंटने से बसपा क ो भारी नुकसान हुआ। महापुरूषों के सम्मान में पार्कों और स्मारकों के जरिए दलित स्वाभिमान की आंच तेज करके उनके एकमुश्त वोट पाने की हसरत पर सपा ने जहां पानी फेर दिया, वहीं अन्य राजनीतिक दलों ने भी इसपर गंभीरता से काम किया है।
जिस बसपा ने 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित बाहुल्य सुरक्षित सीटों में 62 पर कब्जा किया था, उसमें से वह इस बार 47 सीटें हार गई। वह केवल 15 सीटें ही जीत पाई, जबकि मुख्यत: पिछड़े वर्ग की पार्टी मानी जाने वाली सपा ने 58 सीटें जीतकर संकेत दिया है कि अब दलितों में जाटव और चमार जाति के अलावा दूसरी जातियों को साथ लेकर अच्छी सफलता हासिल की जा सकती है। इस चुनाव में इसी रणनीति पर कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने काम किया है, चूंकि सत्ताधारी बसपा विरोधी लहर में जनता के समक्ष समाजवादी पार्टी विकल्प बनी तो उसको थोक में वोट मिल गया और अगले चुनाव में कोई और विकल्प दिखेगा तो उसे वोट मिल जाएगा, ऐसे में मायावती को अपना मुख्य वोटबैंक दलितों को एकमुश्त अपने पास रखने के लिए संगठन में दलित वर्गों को मुख्य भूमिका में लाना होगा, जिसके लिए उन्हें अभी से गंभीरता से सोचना चाहिए, वरना आगामी लोकसभा चुनाव तक बहुत देर हो जाएगी।
मायावती जी भले ही खुले तौर पर अपनी हार की वजह हिंदू और मुस्लिम आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण को बता रही हों, लेकिन उनको हकीकत जान लेनी चाहिए। उनका यह दावा कि दलित वोटबैंक पूरी तरह उनके पक्ष में एकजुट रहा, यह हकीकत से परे है। असलियत यह है कि विरोधी पार्टियों के जोरदार अभियान से बसपा के दलित वोट बैंक में सेंध लग गई। एक ओर जाटव और चमार जाति का वोट बसपा को खूब पड़ा, लेकिन दलित वर्ग की अन्य जातियां पासी, धोबी, लुनिया, वाल्मीकि आदि बसपा से किनारा कर गए हैं, यही कारण है कि कुल सुरक्षित 85 सीटों में सपा को 56, बसपा को 15, कांग्रेस को चार, रालोद और भाजपा को तीन- तीन सीटें मिलीं। दो सीटों पर अन्य को फायदा हुआ। बसपा की भाईचारा कमेटियों की कसरत से भी कोई बहुत अधिक फायदा नहीं हुआ। बसपा को जान लेना चाहिए कि उसके वोटबैंक प्रतिशत 30.43 से गिरकर 25.91 प्रतिशत पहुंचने में चार प्रतिशत की मामूली सी कमी आ जाने से उसकी सीटें 206 से घटकर 80 पर पहुंच गईं।
मायावती जी को खतरे की घंटी समझ लेनी चाहिए कि सभी वर्गों की देश में पहली पसंद कांग्रेस का वोट बैंक इस बार 5.39 प्रतिशत बढ़कर 14 फीसदी पर पहुंच गया है, उसकी सीट भले ही कम बढ़ी हैं, लेकिन उसका भाजपा से बेहतर प्रदर्शन रहा है। भाजपा के वोटबैंक में 1.97 फीसदी की गिरावट हुई है। कांग्रेस तमाम विपरित परिस्थियों के बावजूद जिस तरह से अपना वोट प्रतिशत बढ़ा रही है, उससे मानना होगा कि अब आगे सपा के खराब प्रदर्शन की स्थिति में बसपा की बजाय जनता केलिए विकल्प कांग्रेस या फिर भाजपा ही बनेगी!
जिस बसपा ने 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित बाहुल्य सुरक्षित सीटों में 62 पर कब्जा किया था, उसमें से वह इस बार 47 सीटें हार गई। वह केवल 15 सीटें ही जीत पाई, जबकि मुख्यत: पिछड़े वर्ग की पार्टी मानी जाने वाली सपा ने 58 सीटें जीतकर संकेत दिया है कि अब दलितों में जाटव और चमार जाति के अलावा दूसरी जातियों को साथ लेकर अच्छी सफलता हासिल की जा सकती है। इस चुनाव में इसी रणनीति पर कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने काम किया है, चूंकि सत्ताधारी बसपा विरोधी लहर में जनता के समक्ष समाजवादी पार्टी विकल्प बनी तो उसको थोक में वोट मिल गया और अगले चुनाव में कोई और विकल्प दिखेगा तो उसे वोट मिल जाएगा, ऐसे में मायावती को अपना मुख्य वोटबैंक दलितों को एकमुश्त अपने पास रखने के लिए संगठन में दलित वर्गों को मुख्य भूमिका में लाना होगा, जिसके लिए उन्हें अभी से गंभीरता से सोचना चाहिए, वरना आगामी लोकसभा चुनाव तक बहुत देर हो जाएगी।
मायावती जी भले ही खुले तौर पर अपनी हार की वजह हिंदू और मुस्लिम आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण को बता रही हों, लेकिन उनको हकीकत जान लेनी चाहिए। उनका यह दावा कि दलित वोटबैंक पूरी तरह उनके पक्ष में एकजुट रहा, यह हकीकत से परे है। असलियत यह है कि विरोधी पार्टियों के जोरदार अभियान से बसपा के दलित वोट बैंक में सेंध लग गई। एक ओर जाटव और चमार जाति का वोट बसपा को खूब पड़ा, लेकिन दलित वर्ग की अन्य जातियां पासी, धोबी, लुनिया, वाल्मीकि आदि बसपा से किनारा कर गए हैं, यही कारण है कि कुल सुरक्षित 85 सीटों में सपा को 56, बसपा को 15, कांग्रेस को चार, रालोद और भाजपा को तीन- तीन सीटें मिलीं। दो सीटों पर अन्य को फायदा हुआ। बसपा की भाईचारा कमेटियों की कसरत से भी कोई बहुत अधिक फायदा नहीं हुआ। बसपा को जान लेना चाहिए कि उसके वोटबैंक प्रतिशत 30.43 से गिरकर 25.91 प्रतिशत पहुंचने में चार प्रतिशत की मामूली सी कमी आ जाने से उसकी सीटें 206 से घटकर 80 पर पहुंच गईं।
मायावती जी को खतरे की घंटी समझ लेनी चाहिए कि सभी वर्गों की देश में पहली पसंद कांग्रेस का वोट बैंक इस बार 5.39 प्रतिशत बढ़कर 14 फीसदी पर पहुंच गया है, उसकी सीट भले ही कम बढ़ी हैं, लेकिन उसका भाजपा से बेहतर प्रदर्शन रहा है। भाजपा के वोटबैंक में 1.97 फीसदी की गिरावट हुई है। कांग्रेस तमाम विपरित परिस्थियों के बावजूद जिस तरह से अपना वोट प्रतिशत बढ़ा रही है, उससे मानना होगा कि अब आगे सपा के खराब प्रदर्शन की स्थिति में बसपा की बजाय जनता केलिए विकल्प कांग्रेस या फिर भाजपा ही बनेगी!
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