राजनीति में वंशवाद का नारा बेमायने
       --राजेन्द्र 
मौर्य----
देश के 
राष्ट्रपति रहे हैं ज्ञानी जैलसिंह। उनके पौत्र इंद्रजीत सिंह मेरे 
अच्छे मित्रों में हैं। राष्ट्रपति पद से हट जाने के बाद एक बार मैं 
ज्ञानी जी के पास बैठा था। मैंने उनसे पूछा कि क्या बात है, कि देश में अब हर चुनाव 
में गांधी-नेहरू परिवार को गैर कांग्रेसी दल राजनीति से बेदखल करने की 
बात करते हैं !,  इसपर ज्ञानीजी ने बहुत ही सदा हुआ जवाब मुझे दिया कि ऐसा 
करने से किसी को कौन रोक रहा है, यह तो लोकतंत्र है जनता जब चाहे जिसको राजनीति से 
बाहर कर सकती है। लोग उनको वोट देना बंद कर दें, तो यह परिवार अपने आप बाहर हो 
जाएगा। 
इन दिनों लोकसभा 
चुनाव 2014 की तैयारी शुरू हो गई है। सभी दलों ने अपने-अपने तरीके से चुनीवी अभियान 
की शुरूआत कर दी है। चुनावी अभियान में एक बार फिर भाजपा अपने नए प्रत्याशी नरेंद्र 
मोदी को लेकर मैदान में उतरी है। नरेंद्र मोदी ने भारत को वंशवाद से मुक्ति के लिए 
कांग्रेस को हराने का आह्वान किया है, लेकिन उनको कहीं भी अपनी 
पार्टी के हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धुमल और उनके पुत्र अनुराग 
ठाकुर नहीं दिख रहे हैं। उनको अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष 
राजनाथ सिंह और उनके पुत्र पंकज सिंह भी नहीं दिख रहे हैं। उनको 
कल्याण सिंह और उनके पुत्र राजबीर सिंह भी कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। 
इसके अलावा भी हर शहर और क्षेत्र में वहां के नेताओं और उनके परिजनों द्वारा 
की जा रही राजनीति का भी उनको कोई ध्यान नहीं है। क्या खुद नरेंद्र मौदी अपने 
सगे भाई को राजनीति करने से पीछे हटा सकते हैं? 
हाल ही के 
चुनाव में पैदा हुई अरविंद केजरीवाल की पार्टी भी वंशवाद की बात खूब कर रही है 
और उनके एक बड़बोले कवि कम नेता भी अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव 
लड़ने का दम भरते हुए वंशवाद खत्म करने की बात कर रहे हैं। इसी सीट पर राजीव गांधी 
के सामने 1989 में महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी वीपी सिंह के कहने पर असली 
और नकली गांधी का नारा लेकर पहुंचे थे, लेकिन जनता ने अपना जनादेश देकर उनको उल्टे 
पैर लौटा दिया था।  
देश में 
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बाद सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री लाल बहादुर 
शास्त्री रहे और उनके सभी पुत्र और अब पौत्र भी राजनीति में सक्रिय हैं। देश की 
सभी पार्टियों में उन्होंने अपना भाग्य आजमाया, लेकिन वे उतने सफल नहीं 
हो पा रहे हैं, चूंकि शायद जनता उनको लाल बहादुर शास्त्री के बराबर मान्यता 
नहीं दे पा रही है । देश में मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह,  गुलजारी लाल 
नंदा, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिंहा राव, एचडी देवगौड़ा, 
इंद्रकुमार गुजराल,  अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री रहे 
हैं। सीधे तौर पर उनके परिजन या फिर उनके वंशज होने का दावा 
करने वाले लोग राजनीति कर रहे हैं। उनमें सभी को सफलता मिली हो ऐसा नहीं 
है, जबकि जनता के बीच जाकर सभी अपने को सफल बनाने के लिए प्रयास करते 
हैं। एक अवसर ऐसा आता है जब जनता भूल जाती है कि यह किस 
वंश का वारिस है, बस उसकी अपनी मेहनत और जनता के प्रति लगाव ही उसके काम 
आता है। यही कारण है कि जब अमेठी में मेनका गांघी ने वंश का वास्ता देकर 
राजीव गांधी को हराने की अपील की तो वह मुंह की खाकर लौटीं। जनता के सच्चे नेता 
होने की बात कहकर शरद यादव और बसपा संस्थापक  कांशीराम भी अपना कोई असर 
नहीं दिखा पाए। असली-नकली गांधी के नारे पर राजमोहन गांधी भी बेअसर साबित 
हुए हैं। 
ज्ञानी जी ने 
सही कहा है कि लोकतंत्र में जनता वंशवाद को जब चाहे ध्वस्त कर सकती है। अगर 
नहीं कर रही है तो फिर जनता का उनको मान्यता के साथ अटूट समर्थन देना ही माना 
जाएगा।
अब 
सवाल विशेष रूप से अमेठी का है जहां, लोग नेहरू-गांधी परिवार में 
संजय गांधी के बाद राजीव गांधी और उनके बाद राहुल गांधी को ही अपना 
प्रतिनिधि चुनते हैं। संजय गांधी की धर्मपत्नी श्रीमती मेनका गांधी को भी 
उन्होंने उस परिवार की मान्यता नहीं दी। गांधी-नेहरू परिवार का प्रतिनिधि मानकर 
कैप्टन सतीश शर्मा को भी अमेठी की जनता ने विजयी बनाया। 
     
जहां तक सवाल 
नेहरू-गांधी परिवार का है, इसको भी एक बात से बल मिनता है कि जब कांग्रेस 
के टूटने पर इंदिरा गांधी ने अपनी कांग्रेस (आई) बनाई तो आगे चलकर अब वही असली 
कांग्रेस बन गई और उसे ही जनता असली कांग्रेस मान भी रही है। लोग कहते 
हैं कि गांधी परिवार के लोग खुद ही प्रधानमंत्री बनना चाहते है। 
तो ऐसे लोग क्यों भूल जाते हैं कि राजीव गांधी की मौत के बाद 
क्यों सोनिया गांधी अपने परिवार के साथ राजनीति से दूर रही? जब 1998 तक 
कांग्रेस की दुर्गति हुई तो फिर इसी परिवार से सोनिया को आगे लाया गया और 
जो कांग्रेस समाप्ति की ओर जा रही थी, वह 2004 में न केवल सत्ता में आई 
बल्कि 10 वर्ष से राज कर रही है। यह जनता का इस परिवार को मान्यता और समर्थन देने 
का ही परिणाम तो माना जाएगा। डा. मनमोहन सिंह जी ने अब तक हुए सभी चुनाव 
में कितने स्थानों पर सभाएं करके वोट मांगी है और प्रधानमंत्री होने 
के बावजूद कितना जनसमर्थन मनमोहन सिंह जी के साथ है, यह सभी 
जानते हैं! इसके बावजूद जब माना जा रहा है कि आने वाला चुनाव कड़ी चुनौती वाला 
है तो सामने उसी गांधी परिवार से राहुल गांधी आया है। चूंकि वे कांग्रेस 
के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बाखूबी समझते 
हैं। 
हमें 
अव देश के विभिन्न प्रदेशों में निजी कंपनी की तरह चल रहे राजनीतिक दलों को 
भी देखना होगा। कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी प्रदेशों में तमाम 
पार्टी निजी पार्टी बनी हुई हैं। कश्मीर में फारूख-उमर अब्दुल्ला की 
पार्टी, मुफ्ती मौहम्मद सईद-महबूबा मुफ्ती की पार्टी, पंजाब में अकाली दल, 
हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला और कुलदीप विश्नोई की पार्टी, राजस्थान में 
करोड़ी मल मीणा की पार्टी, उत्तर प्रदेश में मुलायम-अखिलेश यादव की पार्टी और 
मायावती की पार्टी, दिल्ली में केजरीवाल की पार्टी, गुजरात में 
केशुभाई पटेल की पार्टी,  आंध्रा प्रदेश में जगन रेड्डी और एस. चंद्रशेखर 
की पार्टी, उड़ीसा में नवीन पटनायक की पार्टी, बिहार 
में नीतीश कुमार-शरद यादव, लालू यादव की पार्टी, तमिलनाडू में 
जयललिता और एम.करुणानिधि की पार्टी, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की 
पार्टी आदि ऐसे उदाहरण हैं जो राजनीतिक दल के नाम पर निजी कंपनी की तरह 
चलाया जा रही है। 
            
    फिर भी देश में यदि कोई लोकतांत्रिक 
ढंग से पार्टी चल रही है, तो कांग्रेस, भाजपा और वामपंथी दल ही हैं, जिनको 
तमाम नाराजगी के बावजूद जनता भी राष्ट्रीय स्तर मान्यता देती है। 
 ऐसे में 
साफ है कि वंशवाद कोई मायने नहीं रखता हूं, चूंकि पार्टी तो 
मात्र निर्वाचन आयोग में पंजीकरण के बाद बन सकती है, लेकिन उसको मिलने 
वाली वोट और उसके सांसद-विधायकों की संख्या से ही असल में उसकी हैसियत पता 
चलती है।   
 
 
 
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