कुछ वो झुकें,कुछ हम आगे बढ़ें!
प्रमुख
दलित चिंतक श्री चंद्रभान प्रसाद जी का मैंने एक समाचार पत्र में लेख पढ़ा, जिसमें
उन्होंने दिल्ली से सटे गाजियाबाद जिले में ट्रॉनिका सिटी औद्योगिक
क्षेत्र में स्कूली बैग बनाने वाली एक फैक्ट्री का उदाहरण देते हुए बताया
कि वहां सोलह कर्मचारियों में से बारह महिलाएं थीं, जिनमें से ज्यादातर सिलाई
मशीन चलाती थीं। महिलाओं की जातिगत पृष्ठभूमि के बारे में पूछने पर पता चला कि उन
बारह महिलाओं में से तीन ब्राह्मण थीं। उनमें से एक हरियाणा के महेंद्रगढ़, दूसरी
बिहार के गोपालगंज और तीसरी दिल्ली के आजादपुर से थीं। नौ गैर-ब्राह्मण महिला
कर्मचारियों में से दो उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले की राजपूत थीं और एक बिहार के
जमुई की बनिया जाति की थीं। यानी पचास फीसदी महिला कर्मचारी उच्च जाति से थीं। बाकी
छह में से चार उत्तर प्रदेश और बिहार की पिछड़ी जाति से थीं और बाकी दो में से एक
मुस्लिम और दूसरी दिल्ली की ईसाई थीं। श्री चंद्रभान प्रसाद जी ने एक और
उदाहरण देकर बताया कि डेढ़ वर्ष पहले एक लोकप्रिय टीवी पत्रकार ने
दिल्ली के सुरक्षा
गार्डों पर एक स्पेशल रिपोर्ट की थी, जिसमें पत्रकार ने बताया कि जिन सुरक्षा
गार्डों से उसने अपने कार्यक्रम में बात की थी, वे उत्तर प्रदेश और बिहार के
ब्राह्मण, भूमिहार एवं राजपूत जाति के थे।
एक और उदाहारण उन्होंने वर्ष 2008 में अमेरिका के पेनसिल्वानिया विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया (सीएएसआई) द्वारा तीन शॉपिंग मॉल में हाउसकीपिंग स्टाफ पर किए गए एक सर्वे का दिया, जिसमें बताया गया कि उन तीन शॉपिंग मॉल में से दो गाजियाबाद में और एक नोएडा में था। हाउसकीपिंग स्टाफ मॉल, होटल और अस्पतालों में सफाई का काम करते हैं। सीएएसआई के निदेशक प्रोफेसर देवेश कपूर के नेतृत्व में हुए उस सर्वे के अनुसार, हाउसकीपिंग कर्मचारियों में 38.4 फीसदी अनुसूचित जाति, 38.4 फीसदी उच्च जाति, 03.3 फीसदी अनुसूचित जनजाति और 19.9 फीसदी पिछड़े वर्ग के थे। अगर हम अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़ों को दलित मान लें, तो कुल हाउसकीपिंग कर्मचारियों में दलितों की हिस्सेदारी 41.7 फीसदी बैठती है। यानी इन शॉपिंग मॉलों में ज्यादातर गैर-दलित हाउसकीपिंग कर्मचारी हैं।
एक और उदाहारण उन्होंने वर्ष 2008 में अमेरिका के पेनसिल्वानिया विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया (सीएएसआई) द्वारा तीन शॉपिंग मॉल में हाउसकीपिंग स्टाफ पर किए गए एक सर्वे का दिया, जिसमें बताया गया कि उन तीन शॉपिंग मॉल में से दो गाजियाबाद में और एक नोएडा में था। हाउसकीपिंग स्टाफ मॉल, होटल और अस्पतालों में सफाई का काम करते हैं। सीएएसआई के निदेशक प्रोफेसर देवेश कपूर के नेतृत्व में हुए उस सर्वे के अनुसार, हाउसकीपिंग कर्मचारियों में 38.4 फीसदी अनुसूचित जाति, 38.4 फीसदी उच्च जाति, 03.3 फीसदी अनुसूचित जनजाति और 19.9 फीसदी पिछड़े वर्ग के थे। अगर हम अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़ों को दलित मान लें, तो कुल हाउसकीपिंग कर्मचारियों में दलितों की हिस्सेदारी 41.7 फीसदी बैठती है। यानी इन शॉपिंग मॉलों में ज्यादातर गैर-दलित हाउसकीपिंग कर्मचारी हैं।
श्री
चंद्रभान जी कहते हैं कि अगर दिल्ली के बुद्धिजीवियों से देश में
ब्राह्मणों की स्थिति के बारे में बात करें, तो उनमें से ज्यादातर यही सोचते
हैं कि ब्राह्मण का मतलब होता है, शिक्षक, अधिकारी, आईटी प्रोफेशनल या मंदिरों के
पुजारी, जो करोड़ों में चढ़ावा पाते हैं। ठाकुर और बनियों के बारे में भी उनकी यही
सोच है, लेकिन आज दलितों की कहानी बेहद आकर्षक है। उत्तर प्रदेश में एक ऐसा पहला
दलित युवा उद्यमी है, जो मर्सिडीज कार में घूमता है। प्रदेश में ऐसे दलित उद्यमी
हैं, जो ट्रांसफर्मर बनाते हैं और टोयोटा फ्रंटियर में घूमते हैं। दर्जनों दलित
प्रदेश में होटल मालिक हैं। करीब पचासों दलित उत्तर प्रदेश में अस्पतालों के मालिक
हैं। दिल्ली में एक दलित ऑडी कार पर चलता है। राजस्थान स्थित दिल्ली का एक व्यवसायी
सौर संयंत्र बनाता है, जिससे सौर ऊर्जा पैदा होती है। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब,
उत्तराखंड में दर्जनों ऐसे दलित व्यवसायी हैं, जो सालाना दस करोड़ से ज्यादा कर
चुकाते हैं।
यही नहीं, दलित लड़के-लड़कियां विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों में
सालाना छह से 18 लाख के पैकेज पर काम करते हैं। हाल ही में जब मैं उत्तर प्रदेश के
पूर्वी इलाके में गया था, तो एक बुजुर्ग ने मजाक करते हुए कहा था कि दलितों की
शादियों की वजह से गांव में ट्रैफिक जाम हो जाता है। कारण बताते हुए उन्होंने कहा
कि 'गरीब से गरीब दलित की शादी में भी दो से सात कारें तो दरवाजे पर खड़ी होती ही
हैं।'
वर्ष 1990 के बाद के आर्थिक उदारीकरण और शहरी विस्तार के दौर में हमने देश को जाति के बजाय वर्ग आधारित समाज में परिवर्तित होते देखा है। इसी के साथ तालमेल बिठाते हुए यह देश ग्रामीण समाज से शहरी समाज की तरफ बढ़ रहा है। जाति से वर्गगत समाज में बदलाव की इस प्रक्रिया ने जहां सवर्ण जाति को अपने अंदर एक निम्न तबका पैदा करने के लिए मजबूर किया, उसी ने दलितों के बड़े समूह को अपने अंदर से एक मध्यवर्ग को जन्म देने के लिए प्रोत्साहित किया।
सवर्ण जाति की कोख से जन्मे निम्न वर्ग के पास जहां उनके हितों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है, वहीं दलितों के बारे में सोचने के लिए कम से कम लेखक, चिंतक एवं राजनीतिक दल तो हैं। लेकिन क्या यही पर्याप्त है?
वर्ग आधारित इस समाज में दलित मध्यवर्ग का जो एजेंडा है, वह निम्न दलित वर्ग के एजेंडे से नितांत अलग है। दलित मध्यवर्ग को जो नारे और वायदे लुभाते हैं, निम्न दलित वर्ग को वे नहीं लुभा सकते। सवाल यह है कि क्या दलित राजनीति दलित मध्यवर्ग के इस उभार की शिनाख्त कर पा रही है। अगर दलित राजनीति इस अंतर को पढ़ने में नाकाम रही, तो वह अपना महत्व खो देगी। महाराष्ट्र में यही हुआ है, पर उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं होना चाहिए।
वर्ष 1990 के बाद के आर्थिक उदारीकरण और शहरी विस्तार के दौर में हमने देश को जाति के बजाय वर्ग आधारित समाज में परिवर्तित होते देखा है। इसी के साथ तालमेल बिठाते हुए यह देश ग्रामीण समाज से शहरी समाज की तरफ बढ़ रहा है। जाति से वर्गगत समाज में बदलाव की इस प्रक्रिया ने जहां सवर्ण जाति को अपने अंदर एक निम्न तबका पैदा करने के लिए मजबूर किया, उसी ने दलितों के बड़े समूह को अपने अंदर से एक मध्यवर्ग को जन्म देने के लिए प्रोत्साहित किया।
सवर्ण जाति की कोख से जन्मे निम्न वर्ग के पास जहां उनके हितों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है, वहीं दलितों के बारे में सोचने के लिए कम से कम लेखक, चिंतक एवं राजनीतिक दल तो हैं। लेकिन क्या यही पर्याप्त है?
वर्ग आधारित इस समाज में दलित मध्यवर्ग का जो एजेंडा है, वह निम्न दलित वर्ग के एजेंडे से नितांत अलग है। दलित मध्यवर्ग को जो नारे और वायदे लुभाते हैं, निम्न दलित वर्ग को वे नहीं लुभा सकते। सवाल यह है कि क्या दलित राजनीति दलित मध्यवर्ग के इस उभार की शिनाख्त कर पा रही है। अगर दलित राजनीति इस अंतर को पढ़ने में नाकाम रही, तो वह अपना महत्व खो देगी। महाराष्ट्र में यही हुआ है, पर उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं होना चाहिए।
श्री चंद्रभान
प्रसाद जी ने समाज में उभरते दलित वर्ग के लोगों की कहानी काफी अच्छी
लिखी, लेकिन अभी भी समझना चाहिए कि देश में ढूंढे से भी कोई
गांव नहीं मिलेगा, जहां शान का जीवन व्यतीत कर रहे किसी दलित को
ब्राह्मण-ठाकुर जाति का कोई मजदूर या किसी फैक्ट्री में कम करने वाला
कर्मचारी भी सम्मान नहीं देता। भला इस जातिगत माहौल को कैसे सुधारा
जाएगा, इसके लिए धनाढ्य नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव की आवश्यकता है जिसको
दलितों के साथ ही देश के ब्राह्मण-ठाकुरों को शहरी जीवन से सीख लेनी
होगी, जहां अब जाति नहीं बल्कि प्रोफेशनल रिश्ते बनाने पर अधिक ध्यान दे रहे
हैं। यह भी देखना होगा कि धनाढ्य बनते दलित भी अब अपने वर्ग
के निर्धनों से दूर हटते जा रहे हैं, उनको समझाना होगा कि उनकी यह
बेरुखी दलितों में भी कई वर्ग विकसित कर सकती
है।
अंतरजातीय विवाह को भी एक अभियान के रूप में
चलाकर सामाजिक समरसता का माहौल तैयार करने की आवश्यकता है,
यह संभव तब ही है,
जब कुछ वो झुकें, तो कुछ हम आगे बढ़ें।
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