PAGDANDI KA GANDHI


मुबाहिसा : राजेन्द्र मौर्य.   
   "पगडंडी का गांधी"       
 लोकतंत्र की यही ताकत है, जिसमें किसान, मजदूर, व्यापारी कोई भी वह साधारण से साधारण व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मंत्री बन सकता है, जिसे जनता चाहती है। और जनता जिसे नकार दे तो वह बड़े से बड़े पद से बेदखल कर दिया जाता है। 1977 में इंदिरा गांधी को बुरी तरह हराने समेत इतिहास ऐसे तमाम उदाहरणों से भरा पड़ा है। इन दिनों भाजपा के दो कामदारों ने भारत को कांग्रेसमुक्त का नारा दिया हुआ है। यह नारा दरअसल नेहरू-गांधी परिवार से मुक्ति का है, जिसे पहले भी कई बार दिया चुका है पर जिसे जनता चाहती है तो फिर उसका कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। पंडित जवाहरलाल नेहरू की मौत के बाद इंदिरा गांधी अपनी राजनीतिक स्वीकार्यता से आगे बढ़ीं और उनके साथ ही संजय गांधी ने भी अपनी नेतृत्व क्षमता को साबित किया,  जहां वह 1977 में इंदिरा गांधी की हार के बड़े कारण बने वहीं 1980 में कांग्रेस की वापसी का भी काफी श्रेय उन्हीं को जाता है। मुझे वर्ष 1980 में अपनी बाल्यावस्था का एक प्रसंग याद आ रहा है, जब दिल्ली के रामलीला मैदान में संजय गांधी की हादसे में मौत होने पर शोक सभा आयोजित हो रही थी। लाखों की भीड़ के साथ मंच पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मौजूद थीं। संचालन युवा कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष गुलाम नबी आजाद कर रहे थे। उन्होंने जैसे ही नीचे बैठे राजीव गांधी को मंच पर आने के लिए आमंत्रित किया तो वह सभा स्थल से ही चले गए थे। संदेश साफ था कि राजीव गांधी अपने अनुज संजय की तरह राजनीतिक महत्वाकांक्षी नहीं थे। इसका आधार उनका पहले से जगजाहिर स्वभाव था, जिसमें एयरलाइंस की नियमित नौकरी और सामान्य व्यक्ति की तरह वोट क्लब इंडिया गेट पर सोनिया गांधी व बच्चों राहुल, प्रियंका के साथ आइसक्रीम का लुत्फ तथा घूमने फिरने तक ही वह सीमित रहते थे। वह राजनीतिक लोगों से मिलना जुलना तक भी पसंद नहीं करते थे।
इसे नियति ही कहेंगे कि राजनीति से दूर भागने वाले राजीव गांधी को अगले दस दिन में ही मान मनौव्वल के बाद राजनीतिक सक्रियता के लिए मना लिया गया।  जैसे शुरूआती दिनों में इंदिरा गांधी को "गुंगी गुड़िया" कहा जाता था, ठीक उसी तरह राजीव गांधी को भी तमाम नामों से पुकारते हुए यह साबित करने की कोशिश की गई थी कि यह प्रधानमंत्री के नाम पर केवल कठपुतली बनकर ही काम करेंगे लेकिन जहां "गुंगी गुड़िया" कही जाने वाली इंदिरा गांधी ने सभी राजनीतिक विश्लेषकों की धारणाओं को गलत साबित कर पड़ोसी देश का नक्शा तक बदल दिया और अपना बलिदान देकर देश की अखंडता के दुश्मनों को मिटाने का काम किया। ठीक वैसे ही राजीव गांधी ने देश को तरक्की का नया मार्ग कंप्यूटर और संचार सेवा के रूप में दिया। यदि बड़ी राजनीतिक साजिश का शिकार न हुए होते तो शायद राजीव गांधी के सपनों का 21वीं सदी का भारत अब तक और कई कीर्तिमान बना चुका होता। बहरहाल गैरकांग्रेसी दल यह कह सकते हैं कि इंदिरा और राजीव अपनी विरासत से प्रधानमंत्री बने थे। पर राहुल गांधी के लिए यह कहना गलत होगा। राजीव गांधी की मौत के बाद यह परिवार पूरी तरह राजनीति का मोह त्याग चुका था। कांग्रेस के सत्ता में आने पर पीवी नरसिंहाराव प्रधानमंत्री बने। लेकिन आजीवन सियासत में मंत्री और फिर प्रधानमंत्री बनने के बावजूद कांग्रेस को ताकत देने की बजाय कमजोर करने वाले ही साबित हुए। अाखिर एक दशक बाद कांग्रेस को मजबूत करने के लिए नेहरू-गांधी परिवार की बहू सोनिया गांधी को ही आगे लाना पड़ा। सोनिया गांधी को राजनीति के लिए मनाने में एक दशक लग गया। देश में एक नहीं कई-कई प्रधानमंत्रियों के परिजनों को तमाम प्रयासों के बावजूद एमपी या एमएलए बनना तक  नसीब नहीं हो पाया है किसी राजनीतिक दल को मजबूती के साथ चलाना तो बहुत दूर की बात है। जिन वीपी सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की छवि को दागदार किया, उनके बेटे अजय प्रताप सिंह भी कांग्रेस की शरण में हैं। तमाम राजे-रजवाड़ों से जुड़े लोग इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की ताबेदारी कर रहे हैं जिन्हें जनता प्यार करती है वे राज करते हैं और जनता के नाराज होने पर सत्ता के गलियारे तक में नहीं फटक पाते हैं। सोनिया गांधी की मेहनत से 2004 में कांग्रेस अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को शिकस्त देकर सत्ता में आई। प्रधानमंत्री बनने का मौका आया तो सोनिया गांधी ने त्याग की मूर्ति बनकर महान अर्थशास्त्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की एक बड़ी मिसाल पेश की। एक नहीं दो बार यानि 10 वर्ष बिना किसी जुमले के सरकार चली। मोदी सरकार के पास उपलब्धियों के नाम पर यदि कुछ है तो मनमोहन सिंह सरकार के कामों और नीतियों को आगे बढ़ाना ही है अपने निर्णयों ने तो मोदी की फजीहत ही कराई है। इन दिनों  जिस राहुल गांधी की विरोधी तमाम भद्दे और अपमानजनक नामों से संबोधित कर छवि धुमिल करने का मौका नहीं छोड़ रहे हैं, उस राहुल ने अपने लिए राजनीति का जो मार्ग चुना, वह बिल्कुल अलग है उस मार्ग पर उनकी सक्रियता से अब तक निरंतर संघर्ष दिखता है। उनमें प्रधानमंत्री पद को पाने की लालसा के बजाय जननेता बनने की चाहत दिखती है। प्रधानमंत्री बनने के लिए राहुल के पास  2004 से 2014 तक सुलभ अवसर था लेकिन इसके विपरीत  देश इस नौजवान को नेहरू-गांधी परिवार की राजनीतिक शैली के विपरीत पगडंडियों पर किसानों, मजदूरों के लिए सड़कों पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए देख रहा है। स्वयं को कामदार बताकर राहुल गांधी को कहीं नामदार तो कहीं युवराज जैसे नामों से पुकारने वाले मोदी जी दिन में पांच से छह बार राजसी कपड़े बदलते हैं, वहीं संघर्ष की एक नई मिसाल बने राहुल गांधी सामान्य कुर्ता पहने घूमते  हैं। हाल ही में संपन्न हुए पांच राज्यों के चुनाव के दौरान मेरे एक राजनीतिक मित्र बता रहे थे चुनावी अभियान में वह एक ही कुर्ता बिना बदले कई-कई दिनों तक जनसभाएं करते रहे। शायद इसी का नतीजा रहा कि वह देश के प्रधान चौकीदार को चोर कहते रहे और उनको कोई जवाब नहीं दे पाया, जिसपर जनता ने अपना फैसला सुना दिया कि जाति-धर्म की राजनीति करने वालों तख्त खाली करो, अब कांग्रेस आती है।
यदि मोदी जी ने अभी भी जनभावनाओं को नहीं समझा तो 2019 भी उनको सबक सिखाने की तैयारी में है। देश जाति और धर्मों की सियासत से अब ऊब चुका है। देश जुमले और नारे नहीं, शांति और सद्भाव चाहता है। कांग्रेस की यही ताकत है वह सभी को साथ लेकर देश का विकास  करती है। छल-कपट से सत्ता प्राप्त की जा सकती है परंतु लोकतंत्र का हीरो बनने के लिए तो "पगडंडी का गांधी" ही बनना होगा।

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