चुनावी बिसात पर मोदी सरकार से मात खा गया विपक्ष


आर्थिक आधार पर आरक्षण ः संविधान की आत्मा पर प्रहार
मुबाहिसा : राजेन्द्र मौर्य
बिना होमवर्क के नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिए संविधान में संशोधन के बिल को पास कराने से साफ हो गया है कि पहले अटल बिहारी वाजपेयी और अब मोदी सरकार के जरिए आरएसएस अपने छुपे एजेंडे के तहत संविधान की आत्मा पर कुठाराघात करना चाहती है जिसकी शुरूआत अब हो चुकी है। संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की कोई गुंजाइश नहीं है। संविधान में उन वर्गों और समूहों के लिए बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने आरक्षण का प्रावधान किया था जो जातीय  आधार पर दबाए और कुचले गए। इन वर्गों को आरक्षण के जरिए समान दर्जा देने की कवायद आरक्षण है लेकिन अब आरएसएस ने संविधान की आत्मा को मारने की तैयारी कर ली है, जिसकी शुरूआत आर्थिक आधार पर  आरक्षण के जरिए हो चुकी है। इसमें  चुनावी बिसात पर मोदी सरकार ने बहुत ही सदी हुई चाल से पूरे विपक्ष को भी मात दे दी है। इसका नतीजा हालांकि कुछ अर्से बाद मोदी सरकार के अन्य फैसलों की तरह ही जुमलेबाजी साबित होना है चूंकि जहां मोदी सरकार ने पूरे विपक्ष को अपनी चाल से मात दी है वहीं, नोटबंदी और जीएसटी की तरह बिना होमवर्क किए जल्दबाजी में आर्थिक आधार पर आरक्षण को लेकर भी नरेन्द्र मोदी एक बार फिर गलत फैसला लेने वाले साबित होंगे।
इसका एक बड़ा कारण है आर्थिक आधार को तय करने का मानक, जिसमें गरीब हमेशा की तरह पीछे छूट जाएगा और उसके हक पर पैसे वाला डाका मार ले जाएगा।  सवर्णों के लिए आर्थिक आरक्षण के जिस विधेयक को संसद के दोनों सदनों ने प्रचंड बहुमत से पारित कर दिया है। उसमें आरक्षण का आधार यदि वास्तविक आर्थिक होता तो शायद एक बार को उसका सभी पूरा समर्थन करने के लिए सामने आ जाते लेकिन यह तो गरीबों के साथ सीधी-सीधी धोखाधड़ी सामने आ रही है। संसद के दोनों सदनों के करीब 800 सदस्य भी चुनाव में एक बड़े वर्ग से नाराजगी की आशंका में कुछ नहीं बोल पाए। सभी सदस्यों ने इसे चुनावी स्टंट तो माना लेक‌िन तथ्यों के आधार पर खुलकर विरोध नहीं कर पाए। कोई भी खुलकर यह नहीं बोल पाया कि पूंजीपतियों का साथ देने वाली मोदी सरकार गरीबी की परिभाषा देते-देते अमीरों को ही गरीबी की श्रेणी में ले आई। क्या कोई भी मान सकता है कि इस देश मेंं आठ लाख रुपये साल यानि मासिक लगभग 70 हजार रुपये कमाने वाला व्यक्ति गरीब हो सकता है ? इस देश में जहां गरीब लोग महीने में बामुश्किल तीन-चार हजार रुपये कमाकर अपना गुजारा करते हैं, ऐसे में यह शूट-बूट वाली सरकार किस तरह का मानक घड़ने लगी है जिसमें सत्तर हजार रुपये मासिक कमाने वाला यानि आठ लाख रुपये वार्षिक आमदनी करने वाला गरीब मानकर इस 10 फीसदी आरक्षण में शामिल किया गया है। क्या इसमें आप यह नहीं मानेंगे कि पैसे वाला व्यक्ति ही गरीब के नाम पर मिलने वाले इस आरक्षण का लाभ उठा ले जाएगा या सीधा-सीधा कहें तो गरीब के हक पर खुद सरकार ने डकैती डालने का रास्ता खोल दिया है। किसी एक भी सांसद ने यह पूछने की हिम्मत नहीं की, कि प्रधानमंत्री ने गरीबी का यह नया आंकड़ा आखिर किस आधार पर तय किया है, जिसमें वार्षिक 8 लाख रुपये कमाने वाला गरीब है तो फिर धनाड्य और वास्तविक गरीब को क्या कहेंगे जनाब ?
दरअसल, भारतीय संविधान की आत्मा के अनुरूप तो समाज के उन लोगों को ही आरक्षण मिलना चाहिए जो जातीय या सामाजिक स्तर पर दबाए गए हैं। इसके विपरित  राजनीतिक दलों ने दो तरह से आरक्षण को उसके असली हकदार से छीनने की साजिश कर रहे हैं। एक, आरक्षित वर्ग में सबल वर्ग के लोगों को शामिल करने के लिए समय-समय पर विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अपनी मर्जी से अध्यादेश जारी करके अनुसूचित जाति, जनजाति  और पिछड़ी जाति के प्रमाण पत्र जारी कराए जा रहे हैं। दूसरे, विभिन्न जातियों के लोग अपनी मूल जाति के बजाय धोखाधड़ी से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति  और पिछड़ी जातियों के प्रमाण पत्र बनवा रहे हैं। इनमें कई लोग तो सांसद और विधायक तथा प्रदेश सरकारों में मंत्री तक बने बैठे हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद उनके खिलाफ न्यायालयों में दायर वादों पर भी कोई फैसला नहीं सुनाया जा रहा है। अब मोदी सरकार ने तो खुले ही तौर पर आरक्षण की मूल अवधारणा को ही समाप्त करने की चाल चली है। 
इससे तो भविष्य में लगता है यद‌ि  भारतीय संविधान की आत्मा पर एक के बाद एक विधेयक लाकर घातक हमले अब बढ़ेंगे और राजनीतिक दल अपने गुप्त एजेंडे को लागू करने के लिए संविधान का मूल स्वरूप ध्वस्त कर देंगे।         


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