अमेरिका में गोलगप्पा 70 रुपये का
अमेरिका में भारतीय मेला
रेडमण्ड, वाशिंगटन में एक भारतीय मेले में जाने का अवसर मिला । यह मेला अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों के विभीन्न संगठनों ने वैदिक कल्चर सेंटर व सिंगापुर एयरलाइन्स की मदद से लगाया हुआ था और मेला का नाम दिया था *आनंद मेला* । मुझे यहाँ आकर कतई भी यह अहसास नही हुआ कि हम विदेश में है । हजारों भारत वंशी अपनी इलाकाई अथवा धार्मिक विभिन्नता को नजरंदाज करके इसमे शिरकत कर रहे थे । मेला में वह सब कुछ था जो मेरे शहर पानीपत के देवीमन्दिर के मेले में होता है । हर तरह के सामान ,कपड़ो , खिलोने की छोटी -२ दुकानें , चाट ,पकोड़ी ,गोलगप्पे , डोसा ,इडली व बड़े के स्टाल ,जहाँ पर खरीदने व खाने वालों की लंबी -२ लाइन लगी थी । बस एक अंतर रहा कि यहां हमारी तरह धक्का मुक्की नही थी । क्या ये सब कुछ अलग तरह के हिंदुस्तानी थे, जी बिल्कुल भी नही ,ये वे ही थे जो भारत में किसी अनुशासन में नही होते । जहां खाया वहीं फेंका और आगे चलते बने पर यहां वे ऐसा नही करते । छोटा सा कागज का टुकड़ा भी वे कहीं भी इधर उधर न फेंक कर डस्ट बिन में ही डालते है । हर जगह तीन तरह के डिब्बे रखते है एक मे वेस्ट फ़ूड मटेरियल ,दूसरे में कचरा आदि व तीसरे में रीसायकल हो सकने वाला समान ।
मेला में तीन मंच लगे हुए थे जहाँ एक पर भक्तिमय नृत्य चल रहा था ,दूसरे पर बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम व तीसरे पर मनोरंजन की विविध प्रस्तुतियां । हर मंच के सामने सेंकडो नर नारी बैठे थे ।
हम तो है खाने पीने के शौकीन ,हमारा ध्यान तो उधर ही था । परन्तु भारत से तुरन्त गए लोग इन स्टॉल्स से कुछ भी खरीदने में संकोच करते है । यह स्वाभाविक है । एक डॉलर का एक गोलगप्पा , छह डॉलर की एक चाट की प्लेट , आठ डॉलर का एक प्लेट छोले भटूरे आदि -२ । हमारे जैसे नवागन्तुक तो इसी कशमकश में लगे रहे , *क्या 70₹ का एक गोलगप्पा* । न जी न, इण्डिया जाकर ही नत्थू की दुकान पर जाकर 70 ₹ के भरपेट 14 गोलगप्पे कहा लेंगे । खैर धीरे -२ यह जमा घटा छूटता है । मेरे एक हरयाणवी मित्र चो0 हरी सिंह तो इन सब स्टालों के चित्र उनपर टंगी रेट लिस्ट के ले रहे थे और गुणा भाग भी साथ साथ ही कर रहे थे ।
यहाँ सब वही इंडियन है जो विज्ञान ,तकनीक अथवा किसी अन्य विधा में उच्च स्थान पर है । जिन्होंने शिक्षा तो किसी सरकारी अनुदान प्राप्त भारतीय संस्थान में प्राप्त की है परन्तु काम के सिलसिले में यहां है । ये सभी लोग यहां अमेरिका में रह कर अपनी पहचान बना कर रखना चाहते है और अपनी जड़ों से जुड़ना चाहते है । इसलिये मेला में एक स्थान पर यज्ञ की झांकी भी थी, जगन्नाथ यात्रा का रथ भी और एक गाय व उसका बछड़ा भी बंधे थे जहाँ लोग लाइन लगा कर उन्हें सुखी घांस खिला कर पुण्यलाभ कमा रहे थे । यह तो एक अस्थायी मेला है पर यहां दो मन्दिर, दो गुरूद्वारे , दो तीन बौद्ध विहार , एक निरंकारी मिशन का सत्संग घर , ब्रह्मकुमारी आश्रम , इस्कॉन मंदिर आदि है जो स्थायी रूप से चलते है । अलग -२ भाषायी लोगो की अलग-२ समितियां भी है जैसे कन्नड़ ,तमिल, तेलगु, हरियाणा एसोसिएशन । अनेक स्थानों पर उनके संस्कार केंद्र भी है जहाँ इनके बच्चों को इनकी भाषा व संस्कृति की शिक्षा दी जाती है । परन्तु मेरे अनेक भारतीय मित्रों से जानकारी हासिल करने पर यह समझा कि वे यह सब अमेरिका में स्थायी तौर पर रह कर ही सीखना - सीखाना चाहते है परन्तु किसी भी सूरत में वापिस अपने देश भारत मे नही लौटना चाहते । उनकी चिंताओं में गन्दगी ,भ्र्ष्टाचार , बालिका व महिला सुरक्षा , साम्प्रदायिक व जातीय हिंसा, राजनीतिक दलों व नेताओं की अविश्वसनीयता, लगातार बढ़ती जनसंख्या , नैतिक व सामाजिक मूल्यों का ह्लास, सभी है ।
इनका मानना है कि भारत उनकी मातृभूमि है परन्तु वापिस जाकर रहने की जगह नही है ।
(वाशिंगटन, अमेरिका : राममोहन राय की कलम से साभार)
रेडमण्ड, वाशिंगटन में एक भारतीय मेले में जाने का अवसर मिला । यह मेला अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों के विभीन्न संगठनों ने वैदिक कल्चर सेंटर व सिंगापुर एयरलाइन्स की मदद से लगाया हुआ था और मेला का नाम दिया था *आनंद मेला* । मुझे यहाँ आकर कतई भी यह अहसास नही हुआ कि हम विदेश में है । हजारों भारत वंशी अपनी इलाकाई अथवा धार्मिक विभिन्नता को नजरंदाज करके इसमे शिरकत कर रहे थे । मेला में वह सब कुछ था जो मेरे शहर पानीपत के देवीमन्दिर के मेले में होता है । हर तरह के सामान ,कपड़ो , खिलोने की छोटी -२ दुकानें , चाट ,पकोड़ी ,गोलगप्पे , डोसा ,इडली व बड़े के स्टाल ,जहाँ पर खरीदने व खाने वालों की लंबी -२ लाइन लगी थी । बस एक अंतर रहा कि यहां हमारी तरह धक्का मुक्की नही थी । क्या ये सब कुछ अलग तरह के हिंदुस्तानी थे, जी बिल्कुल भी नही ,ये वे ही थे जो भारत में किसी अनुशासन में नही होते । जहां खाया वहीं फेंका और आगे चलते बने पर यहां वे ऐसा नही करते । छोटा सा कागज का टुकड़ा भी वे कहीं भी इधर उधर न फेंक कर डस्ट बिन में ही डालते है । हर जगह तीन तरह के डिब्बे रखते है एक मे वेस्ट फ़ूड मटेरियल ,दूसरे में कचरा आदि व तीसरे में रीसायकल हो सकने वाला समान ।
मेला में तीन मंच लगे हुए थे जहाँ एक पर भक्तिमय नृत्य चल रहा था ,दूसरे पर बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम व तीसरे पर मनोरंजन की विविध प्रस्तुतियां । हर मंच के सामने सेंकडो नर नारी बैठे थे ।
हम तो है खाने पीने के शौकीन ,हमारा ध्यान तो उधर ही था । परन्तु भारत से तुरन्त गए लोग इन स्टॉल्स से कुछ भी खरीदने में संकोच करते है । यह स्वाभाविक है । एक डॉलर का एक गोलगप्पा , छह डॉलर की एक चाट की प्लेट , आठ डॉलर का एक प्लेट छोले भटूरे आदि -२ । हमारे जैसे नवागन्तुक तो इसी कशमकश में लगे रहे , *क्या 70₹ का एक गोलगप्पा* । न जी न, इण्डिया जाकर ही नत्थू की दुकान पर जाकर 70 ₹ के भरपेट 14 गोलगप्पे कहा लेंगे । खैर धीरे -२ यह जमा घटा छूटता है । मेरे एक हरयाणवी मित्र चो0 हरी सिंह तो इन सब स्टालों के चित्र उनपर टंगी रेट लिस्ट के ले रहे थे और गुणा भाग भी साथ साथ ही कर रहे थे ।
यहाँ सब वही इंडियन है जो विज्ञान ,तकनीक अथवा किसी अन्य विधा में उच्च स्थान पर है । जिन्होंने शिक्षा तो किसी सरकारी अनुदान प्राप्त भारतीय संस्थान में प्राप्त की है परन्तु काम के सिलसिले में यहां है । ये सभी लोग यहां अमेरिका में रह कर अपनी पहचान बना कर रखना चाहते है और अपनी जड़ों से जुड़ना चाहते है । इसलिये मेला में एक स्थान पर यज्ञ की झांकी भी थी, जगन्नाथ यात्रा का रथ भी और एक गाय व उसका बछड़ा भी बंधे थे जहाँ लोग लाइन लगा कर उन्हें सुखी घांस खिला कर पुण्यलाभ कमा रहे थे । यह तो एक अस्थायी मेला है पर यहां दो मन्दिर, दो गुरूद्वारे , दो तीन बौद्ध विहार , एक निरंकारी मिशन का सत्संग घर , ब्रह्मकुमारी आश्रम , इस्कॉन मंदिर आदि है जो स्थायी रूप से चलते है । अलग -२ भाषायी लोगो की अलग-२ समितियां भी है जैसे कन्नड़ ,तमिल, तेलगु, हरियाणा एसोसिएशन । अनेक स्थानों पर उनके संस्कार केंद्र भी है जहाँ इनके बच्चों को इनकी भाषा व संस्कृति की शिक्षा दी जाती है । परन्तु मेरे अनेक भारतीय मित्रों से जानकारी हासिल करने पर यह समझा कि वे यह सब अमेरिका में स्थायी तौर पर रह कर ही सीखना - सीखाना चाहते है परन्तु किसी भी सूरत में वापिस अपने देश भारत मे नही लौटना चाहते । उनकी चिंताओं में गन्दगी ,भ्र्ष्टाचार , बालिका व महिला सुरक्षा , साम्प्रदायिक व जातीय हिंसा, राजनीतिक दलों व नेताओं की अविश्वसनीयता, लगातार बढ़ती जनसंख्या , नैतिक व सामाजिक मूल्यों का ह्लास, सभी है ।
इनका मानना है कि भारत उनकी मातृभूमि है परन्तु वापिस जाकर रहने की जगह नही है ।
(वाशिंगटन, अमेरिका : राममोहन राय की कलम से साभार)
भारत में तो एक रूपये मेे गोलगप्पा मिल जाता है।
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