कलकत्ते वाले चरखाविहीन सितारवादक महात्मा गांधी

बंगाल से एक वयोवृद्ध साथी ने बिहार के एक युवा साथी को यह तस्वीर भेजी है। बहुत दुःखी थे। कह रहे थे कि प्रशासन को कई बार ध्यान दिलाया गया। फिर भी गांधीजी का चरखा टूटकर गिरा पड़ा है। चश्मा भी कोई ले गया।
अभी एक साथी कोलकाता में गांधीजी पर एक कार्यक्रम करना चाह रहे थे। आयोजन के लिए एक ऐतिहासिक कॉलेज का सभागार चुना, लेकिन कॉलेज के प्रिसिंपल साहब ने लगभग मना करते हुए कहा कि ‘बंगाल में गांधी को कौन याद करता है? यहाँ उनका है ही क्या? कुछ नहीं।’
बता दें कि बकौल प्रिंसिपल साहब उन्होंने इतिहास विषय में उच्च शिक्षा हासिल की है।
गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में विषय के रूप में इतिहास पढ़ने-पढ़ाने पर कुछ गंभीर टिप्पणियां की हैं। उसे पढ़ना चाहिए।
कहते हैं कि मोहनदास को ‘महात्मा’ की उपाधि प्रथम बार कविगुरु टैगोर ने ही दी। श्री ऑरोबिंदो घोष और गांधीजी के बीच आपसी आकर्षण रहा। देशबंधु चित्तरंजन दास और डॉ. विधान चंद्र राय गांधीजी के सबसे करीबी साथियों में रहे।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ की उपाधि दी। उस दौर में संयुक्त बंगाल के महान समाज सेवी अश्विनीकुमार दत्ता को ‘बंगाल का गांधी’ कहा गया। महान वैज्ञानिक-द्वय प्रफुल्ल चंद्र राय और जगीदश चंद्र बोस के साथ गांधीजी के व्यक्तिगत आत्मीय संबंध रहे।
गांधीजी ने 1901 में कलकत्ता अधिवेशन में ही भारत में पहली बार किसी राजनीतिक गतिविधि में भाग लिया। और जिस दिन दिल्ली में आज़ादी का जश्न चल रहा था, उस दिन गांधीजी कलकत्ता के बेलियाघाटा में सांप्रदायिकता की आग बुझाने में लगे थे।
इन सबके अलावा भी सैकड़ों-हज़ारों प्रसंग हैं गांधीजी और बंगाल के संबंधों की। और वैसे भी गांधी तो सबके थे, क्योंकि उन्होंने सबको एक जैसा देखा-समझा-अपनाया। 'सब मेरा मैं सबन का, इहाँ दूसरा नाहिं' वाली कबिराहा धुन पकड़े थे।
तभी तो धरती के उत्तरी ध्रुव पर स्थित फिनलैंड से लेकर धरती के दक्षिणी ध्रुव से सटे अर्जेण्टीना तक गांधीजी की भांति-भांति की मूर्तियाँ कहीं चरखे के साथ, तो कहीं बकरी के साथ नज़र आती हैं।
ये बात और है कि गांधीजी के विचारों को मूर्तिवत और जड़वत बनाकर मूर्तियों और तस्वीरों में ही कैद कर दिया गया। और आज तो मूर्ति तोड़ो और मूर्ति बनाओ की करोड़ी राजनीतिक प्रतियोगिता चल रही है।
जो भी हो, एक दिन दुनिया की सभी मूर्तियों का विसर्जन किसी भी भांति होना ही है। तब तक के लिए यह मूर्ति बिना चरखे के भी सुंदर लग रही है।
वैसे भी गुरुदेव टैगोर को बहुत आपत्ति थी कि चरखे को उपासना की वस्तु न बनाया जाए। उन्होंने ‘दी कल्ट ऑफ चरखा’ नाम से लेख लिखकर इसकी घनघोर आलोचना की थी।
गांधीजी ने लगभग उसका जवाबी लेख लिखा था- ‘द म्यूज़िक ऑफ स्पिनिंग व्हील’, चरखे का संगीत।
इस मूर्ति में चरखा नहीं है। लेकिन चरखे का संगीत है। ऐसा लग रहा है मानो गांधी सितार बजा रहे हों। एक अदृश्य सितार। भले ही वह सितार संगीत के स्वरों की तरह दिखाई न देता हो, लेकिन सुनाई जरूर देती होगी।
एक और बंगाली पंडित रविशंकर ने ही तो सितार पर क्या खूब बजाई थी ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ की धुन।
आपके कानों में बजने लगी क्या वह धुन? गांधी के अदृश्य सितार की सदृश्य धुन!
आज शाम वहाँ एक दीया जरूर रख आना दोस्तों! अंधेरे समय में दीयों की जरूरत तो पड़ती ही है।                साभार : अवयक्त

Comments

Popular posts from this blog

26/11 what mumbai diaries/Expose irresponsible electronic media/ Live reporting of TV became helpful to terrorists