ओशो वाणी : मेरा कुछ नहीं
ओशो...
इस दुनिया में दो तरह के लोग हैं: एक भोगी, वे भी मालिक; और एक त्यागी, वे भी मालिक। भोगी कहता है--मेरा है, छोडूंगा नहीं। त्यागी कहता है--मेरा है, मैं दान करता हूं। मगर दोनों मानते हैं कि मेरा है।
मेरा संन्यासी तीसरे तरह का आदमी है। वह कहता है--मेरा है ही नहीं, तो न तो रोकने का सवाल है, न त्यागने का सवाल है, गुजर जाने की बात है। मेरा है ही नहीं, तो कैसे छोडूं! कैसे त्यागूं! और मेरा है ही नहीं, तो कैसे पकडूं! दोनों में अन्याय हो जाएगा।
जो कहता है कि मैंने त्याग दिया, वह उतनी ही भ्रांति में है जितनी भ्रांति में वह जो कहता है कि मैंने संग्रह कर लिया। संग्रह और परिग्रह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
दोनों के पार जाना है। और पलटू कहते हैं बार-बार: दोनों के पार जाना है। संग्रह और परिग्रह, दोनों के पार जाना है। एक ऐसी स्थिति तुम्हारी चेतना की होनी चाहिए--न यह, न वह; नेति-नेति। फिर वह जो तुम्हें देता है, भोगो। और भोगने की सबसे बड़ी कला है बांटना।
इसलिए कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि तुम्हारे तथाकथित साधु-संत भी साधु-संत नहीं होते और कभी-कभी साधारणजनों में अपूर्व साधुता होती है।
मेरे एक प्रोफेसर थे। शराबी थे। सारे विश्वविद्यालय में उनकी निंदा थी। लेकिन मैंने उनमें साधु पाया। शराब वे कभी अकेले नहीं पीते थे। जब तक दस-पांच पियक्कड़ न हों तब तक वे नहीं पीते थे।
अगर उनके पास इतनी सुविधा न हो कि दस-पांच को निमंत्रित कर सकें तो बिना पीए रह जाते थे। मैंने उनसे पूछा कि कभी-कभी आप बिना पीए रह जाते हैं, बात क्या है?
उन्होंने कहा कि बात यह है कि मेरे पास सुविधा अगर दस-पांच को पिलाने की न हो, तो क्या अकेले पीना! पीने का मजा संग-साथ में है। जब दस-पांच मिल कर पीते हैं तो मजा है। जब दस-पांच को मैं पिलाता हूं तो मजा है।
और यह उनके पूरे जीवन का हिसाब था। यह शराब के संबंध में ही सच नहीं था, यह हर चीज के संबंध में सच था।
जो भी उनके पास होता...उनका घर देख कर कभी-कभी हैरानी होती थी, उनका घर बिलकुल खाली था। मैं कभी-कभी उनके घर ठहरा तो चकित होता था--घर बड़ा, लेकिन बिलकुल खाली!
क्योंकि चीजें बचें ही नहीं, वे किसी को भी दे दें। मगर उन जैसा धनी आदमी मैंने नहीं देखा। उनकी समृद्धि परम गणित वाली थी। और उनको साधु तो तुम नहीं कहोगे, क्योंकि शराब पीते थे। लेकिन मैं उनको साधु कहूंगा।
जब मैं उनके घर ठहरता तो वे शराब न पीते। मैंने उनसे पूछा कि आप मेरे संकोच में न रुकें, आप पीएं, मजे से पीएं। मैं तो शराब नहीं पी सकता तो बैठ कर सोडा पी लूंगा, मगर आप पीएं, संग-साथ दे दूंगा।
उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, जब तक बांटूं न मैं, जब तक ढालूं न मैं, घर में मेहमान हो और उसको मैं पिला न सकूं, तो मैं भी नहीं पीऊंगा। यह पीना अमानवीय हो जाएगा--घर में मेहमान हो और मैं पीऊं।
मैंने उनसे कहा कि आपकी बात सुन कर मुझे ऐसा लगता है कि मुझे भी पी ही लेनी चाहिए। मगर पीछे मुझे झंझट होगी। मेरे शरीर को आदत नहीं है। मगर आपकी बात से मुझे ऐसा लगता है कि छोडूं फिक्र, पी ही लूं, आपको इतना कष्ट न दूं।
नहीं, उन्होंने कहा कि मुझे कोई तकलीफ नहीं है न पीने में। कई बार ऐसे मौके आ जाते हैं, क्योंकि मेरे पैसे तो पंद्रह तारीख तक खतम हो जाते हैं। पंद्रह दिन तो पीछे फाके में जाते हैं।
कोई भी विद्यार्थी उनके पास पहुंच जाए कि फीस नहीं है, वे फौरन पैसे दे देंगे, उन पर होने भर चाहिए। उधार लेकर भी अगर मिल सकें तो वे फीस चुका देंगे। किसी के पास किताबें नहीं हैं तो किताबें चुका देंगे, किसी के पास कपड़े नहीं हैं तो कपड़े ला देंगे, कोई बीमार है तो उसकी फिक्र में लग जाएंगे।
उनकी पत्नी बहुत परेशान थी। उनकी पत्नी अंततः उन्हें छोड़ कर चली गई। उनकी पत्नी दिल्ली रहती थी, वे सागर रहते। मैंने उनसे पूछा कि पत्नी छोड़ कर चली गई, बात क्या है? आप जैसे आदमी को कोई छोड़ कर जा सके!
उन्होंने कहा, मेरी पत्नी की एक तकलीफ है जो सभी स्त्रियों की होती है--संग्रह। और मैं वह नहीं कर सकता।
पड़ोस में एक आदमी बीमार था, उसके पास खाट नहीं थी, तो मैंने पत्नी की खाट दे दी, इससे वह बहुत नाराज हो गई। उसने कहा, अब कम से कम खाट तो बचने देते। मैंने उससे कहा, हम स्वस्थ हैं, हम नीचे सो सकते हैं। मगर यह आदमी बीमार है, इसको जरूरत है। वह उसी दिन चली गई। वह मायके चली गई है और उसने लिख दिया है कि अब मैं आऊंगी नहीं।
शराबी भला वे रहे हों, लेकिन मैं एक साधुता स्पष्ट देखता हूं। और मैं मानता हूं कि परमात्मा भी उनकी शराब का हिसाब नहीं रखेगा, उनकी साधुता का हिसाब रखेगा।
परमात्मा नहीं हिसाब रखेगा कि कितनी बोतलें उन्होंने पीं, लेकिन जरूर हिसाब रखेगा कि कितना उन्होंने बांटा।
नरेंद्र, सूत्र सुंदर है: अपना है क्या--लुटाओ!
अपना कुछ भी नहीं है, सभी उसका है। सबै भूमि गोपाल की! जीने की कला एक ही है: बांटना। फिर जो हो वही बांटो। और बांटने में कभी कंजूसी मत करना। और तुम नये-नये साम्राज्य को उपलब्ध होते जाओगे, नई-नई तुम्हारी मालकियत होगी, नया-नया वैभव तुम्हारा होगा। मगर हिम्मत लुटाने की चाहिए ही।
साभार, योगेन्द्र दुबे : कहे होत अधीर--(प्रवचन--14)
इस दुनिया में दो तरह के लोग हैं: एक भोगी, वे भी मालिक; और एक त्यागी, वे भी मालिक। भोगी कहता है--मेरा है, छोडूंगा नहीं। त्यागी कहता है--मेरा है, मैं दान करता हूं। मगर दोनों मानते हैं कि मेरा है।
मेरा संन्यासी तीसरे तरह का आदमी है। वह कहता है--मेरा है ही नहीं, तो न तो रोकने का सवाल है, न त्यागने का सवाल है, गुजर जाने की बात है। मेरा है ही नहीं, तो कैसे छोडूं! कैसे त्यागूं! और मेरा है ही नहीं, तो कैसे पकडूं! दोनों में अन्याय हो जाएगा।
जो कहता है कि मैंने त्याग दिया, वह उतनी ही भ्रांति में है जितनी भ्रांति में वह जो कहता है कि मैंने संग्रह कर लिया। संग्रह और परिग्रह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
दोनों के पार जाना है। और पलटू कहते हैं बार-बार: दोनों के पार जाना है। संग्रह और परिग्रह, दोनों के पार जाना है। एक ऐसी स्थिति तुम्हारी चेतना की होनी चाहिए--न यह, न वह; नेति-नेति। फिर वह जो तुम्हें देता है, भोगो। और भोगने की सबसे बड़ी कला है बांटना।
इसलिए कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि तुम्हारे तथाकथित साधु-संत भी साधु-संत नहीं होते और कभी-कभी साधारणजनों में अपूर्व साधुता होती है।
मेरे एक प्रोफेसर थे। शराबी थे। सारे विश्वविद्यालय में उनकी निंदा थी। लेकिन मैंने उनमें साधु पाया। शराब वे कभी अकेले नहीं पीते थे। जब तक दस-पांच पियक्कड़ न हों तब तक वे नहीं पीते थे।
अगर उनके पास इतनी सुविधा न हो कि दस-पांच को निमंत्रित कर सकें तो बिना पीए रह जाते थे। मैंने उनसे पूछा कि कभी-कभी आप बिना पीए रह जाते हैं, बात क्या है?
उन्होंने कहा कि बात यह है कि मेरे पास सुविधा अगर दस-पांच को पिलाने की न हो, तो क्या अकेले पीना! पीने का मजा संग-साथ में है। जब दस-पांच मिल कर पीते हैं तो मजा है। जब दस-पांच को मैं पिलाता हूं तो मजा है।
और यह उनके पूरे जीवन का हिसाब था। यह शराब के संबंध में ही सच नहीं था, यह हर चीज के संबंध में सच था।
जो भी उनके पास होता...उनका घर देख कर कभी-कभी हैरानी होती थी, उनका घर बिलकुल खाली था। मैं कभी-कभी उनके घर ठहरा तो चकित होता था--घर बड़ा, लेकिन बिलकुल खाली!
क्योंकि चीजें बचें ही नहीं, वे किसी को भी दे दें। मगर उन जैसा धनी आदमी मैंने नहीं देखा। उनकी समृद्धि परम गणित वाली थी। और उनको साधु तो तुम नहीं कहोगे, क्योंकि शराब पीते थे। लेकिन मैं उनको साधु कहूंगा।
जब मैं उनके घर ठहरता तो वे शराब न पीते। मैंने उनसे पूछा कि आप मेरे संकोच में न रुकें, आप पीएं, मजे से पीएं। मैं तो शराब नहीं पी सकता तो बैठ कर सोडा पी लूंगा, मगर आप पीएं, संग-साथ दे दूंगा।
उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, जब तक बांटूं न मैं, जब तक ढालूं न मैं, घर में मेहमान हो और उसको मैं पिला न सकूं, तो मैं भी नहीं पीऊंगा। यह पीना अमानवीय हो जाएगा--घर में मेहमान हो और मैं पीऊं।
मैंने उनसे कहा कि आपकी बात सुन कर मुझे ऐसा लगता है कि मुझे भी पी ही लेनी चाहिए। मगर पीछे मुझे झंझट होगी। मेरे शरीर को आदत नहीं है। मगर आपकी बात से मुझे ऐसा लगता है कि छोडूं फिक्र, पी ही लूं, आपको इतना कष्ट न दूं।
नहीं, उन्होंने कहा कि मुझे कोई तकलीफ नहीं है न पीने में। कई बार ऐसे मौके आ जाते हैं, क्योंकि मेरे पैसे तो पंद्रह तारीख तक खतम हो जाते हैं। पंद्रह दिन तो पीछे फाके में जाते हैं।
कोई भी विद्यार्थी उनके पास पहुंच जाए कि फीस नहीं है, वे फौरन पैसे दे देंगे, उन पर होने भर चाहिए। उधार लेकर भी अगर मिल सकें तो वे फीस चुका देंगे। किसी के पास किताबें नहीं हैं तो किताबें चुका देंगे, किसी के पास कपड़े नहीं हैं तो कपड़े ला देंगे, कोई बीमार है तो उसकी फिक्र में लग जाएंगे।
उनकी पत्नी बहुत परेशान थी। उनकी पत्नी अंततः उन्हें छोड़ कर चली गई। उनकी पत्नी दिल्ली रहती थी, वे सागर रहते। मैंने उनसे पूछा कि पत्नी छोड़ कर चली गई, बात क्या है? आप जैसे आदमी को कोई छोड़ कर जा सके!
उन्होंने कहा, मेरी पत्नी की एक तकलीफ है जो सभी स्त्रियों की होती है--संग्रह। और मैं वह नहीं कर सकता।
पड़ोस में एक आदमी बीमार था, उसके पास खाट नहीं थी, तो मैंने पत्नी की खाट दे दी, इससे वह बहुत नाराज हो गई। उसने कहा, अब कम से कम खाट तो बचने देते। मैंने उससे कहा, हम स्वस्थ हैं, हम नीचे सो सकते हैं। मगर यह आदमी बीमार है, इसको जरूरत है। वह उसी दिन चली गई। वह मायके चली गई है और उसने लिख दिया है कि अब मैं आऊंगी नहीं।
शराबी भला वे रहे हों, लेकिन मैं एक साधुता स्पष्ट देखता हूं। और मैं मानता हूं कि परमात्मा भी उनकी शराब का हिसाब नहीं रखेगा, उनकी साधुता का हिसाब रखेगा।
परमात्मा नहीं हिसाब रखेगा कि कितनी बोतलें उन्होंने पीं, लेकिन जरूर हिसाब रखेगा कि कितना उन्होंने बांटा।
नरेंद्र, सूत्र सुंदर है: अपना है क्या--लुटाओ!
अपना कुछ भी नहीं है, सभी उसका है। सबै भूमि गोपाल की! जीने की कला एक ही है: बांटना। फिर जो हो वही बांटो। और बांटने में कभी कंजूसी मत करना। और तुम नये-नये साम्राज्य को उपलब्ध होते जाओगे, नई-नई तुम्हारी मालकियत होगी, नया-नया वैभव तुम्हारा होगा। मगर हिम्मत लुटाने की चाहिए ही।
साभार, योगेन्द्र दुबे : कहे होत अधीर--(प्रवचन--14)
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