कांशी (वाराणसी): पंचानन को प्रणाम


कांशी की पौराणिक मान्यता यह है कि यहां स्वयं भगवान शिव विराजमान है । शंकर अर्थात कल्याणकारी । मैं इस बहस में नहीं पड़ता कि भगवान तो हर जगह विद्यमान हैं फिर यहां ही क्या विशेष । आर्य समाजी पृष्ठभूमि की वजह से हम मुर्ति पूजक नहीं हैं, परन्तु किसी की प्रार्थना अर्चना की क्या विधि है, मैं इसे व्यक्तिगत रूप से लेता हूँ । खैर, भगवान विश्वनाथ, शिव-शम्भू का ही नाम है और उनका एक और अत्यंत प्रिय नाम है "पंचानन" अर्थात पांच मुँह हैं, जिनके। आप इसकी शाब्दिक व आकृतिक व्याख्या पर न जाएं,  परन्तु वैदिक व्याख्या यह है कि शिव अपने इन पांच मुखों से ही भोग अथवा आहुति स्वीकार करते हैं। इनमें एक मुख है मूक-बधिर व शारीरिक रूप से अन्य अक्षम व्यक्ति की सेवा करना अर्थात उन्हें सक्षम बनाकर स्वावलम्बी बनाना ।
      कांशी में भगवान विश्वनाथ के दो मंदिर हैं। एक पुरातन मंदिर व दूसरा इसी मंदिर में महात्मा गांधी द्वारा हरिजन प्रवेश के बाद  मीरघाट में स्वामी करपात्री जी के द्वारा बनवाया मंदिर । इन दोनों मन्दिरों में भगवान शिव के लिंग रूप की स्थापना कर पूजा होती है।
  पर इन दोनों मन्दिरों के अतिरिक्त,  भगवान शिव के पंचानन मुख में से एक मुख का मंदिर, हमारे एक अत्यंत कर्मठ, समर्पित व प्रगतिशील मित्र श्री अमृत दास गुप्ता इसी शहर में चला रहे है जहां 140 मूक- बधिर  बच्चों को नित्य प्रति शिक्षा का अमृत परोसा जाता है ।
         अमृत दासगुप्ता को ऐसा संस्थान चलाने की प्रेरणा बेशक अपनी माता एवम नाना से मिली थी परन्तु कार्य करने के अनुभवों ने उन्हें इस विषय पर निरन्तर काम करने की बेहतर दृष्टि दी है । उनका कहना है कि इस देश की लगभग सात प्रतिशत आबादी मूक व बधिर है । हमारी निर्धनता , निरक्षरता एवम स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का अभाव इस ओर ध्यान आकर्षित नही करवा पाता और परिणाम हमारे सामने है । हमारे धर्मग्रंथों में भी इसे कर्मफल व भोग का नाम दिया है । मनुस्मृति में तो निर्देश है कि शुद्रो व विकलांगो के प्रति कैसा व्यवहार किया जाए । इन तमाम निराशाजनक परिस्थितियों भारत में इन लगभग सात करोड़ लोगों के लिये काम की जरूरत है । राम कृष्ण मिशन ,कोयम्बतूर के प्रोफेसर सुब्रह्नियम ने अपने शोध से सांकेतिक भाषा को अन्य भाषाओं की तरह मान्य भाषा का दर्जा देने की मांग की है । देश में विशेष लोगों के लिये एक मात्र कॉलेज चिकमगलूर (कर्नाटक) में है जहाँ चार हजार मूक बधिर विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर रहे है ,जबकि अमेरिका में गैलोडे में तो एक पूरी यूनिवर्सिटी ही है ।
हमारे देश में तमाम वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद भी विकलांगो के प्रति हमारी सोच यथावत है खास तौर से गूंगे- बहरे लोगों के प्रति । हम उनकी पढ़ाई का उद्देश्य मात्र एक काम चलाऊ इंसान रूपी पुतला बनाना चाहते है जबकि अमृत इस मुद्दे पर इतने समर्पित है व उनके पास अनेक महत्वाकांक्षी योजनाऐं है जो न केवल उनके विद्याथियों को अपितु उनके  अन्य  साथियों को स्वावलम्बी नागरिक बनाएगी ।
   बनारस के छोटी गैबी, रथयात्रा में स्थित इस विद्यालय में चल रही कक्षाओं के दौरान ही उनमे पढ़ रहे छात्रों व उनके शिक्षकों से भी मिलने का मौका मिला । अनेक कक्षाओं में मूक बधिर विद्यार्थियों को सांकेतिक भाषा मे पढ़ाया जा रहा था व अद्भुत है । एक कक्षा में तो विद्यार्थी कम्प्यूटर सीख रहे थे व उनके शिक्षक भी एक मूक-बधिर ही थे । अनेक बच्चे बोलने का प्रयास कर रहे थे व कईयों ने तो हमें थैंक्यू कहने की कोशिश भी की ।
 *विमल चंद्र घोष मूक-बधिर विद्यालय 4 सितम्बर ,1947 को शुरू हुआ था । वर्ष 2005 में इसे एक राज्य स्तरीय उच्च पुरस्कार भी मिला । यह सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार  से अनुदित भी है पर हम जानते है कि सरकारी ग्रांट लेने में कितने जोखिम है और समय पर तो वह मिलनी नामुमकिन ही है । इसके बावजूद भी अमृत का यह प्रयास सर्वथा प्रशंसनीय है व प्रेरणा देता है कि हम अपने आसपास सर्वे कर ऐसे बच्चों को ढूंढ निकाले और इनके विद्यालय रूपी मंदिर बना कर भगवान शिव के पंचानन मुख की पूजा अर्चना कर उन्हें सामर्थ्यवान बनाये । सामाजिक,राजनीतिक व शैक्षणिक लोगों व संस्थाओ से प्रार्थना है कि वे सांकेतिक भाषा को मान्यता दिलवाने के लिये पुरजोर प्रयास करें* ।
श्री अमृत दासगुप्ता व उनकी सम्पूर्ण टीम को बधाई व शुभकामनाएं ।
बनारस : राम मोहन राय की कलम से साभार 

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