नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 123 वीं जयंती : उनके सपनों की आजादी को चुनौती
नेता जी सुभाष चंद्र बोस की 123वीं जन्म जयंती ऐसे समय में है, जब उनकी
आज़ादी के सपनों को चुनौती है। वे इंडियन नेशनल कांग्रेस के अग्रणी नेता
रहे। दो बार उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। आज़ाद हिंद फौज के संस्थापक
कमांडर इन चीफ रहे और अपने अंतिम दिनों में उन्होंने अपने स्वप्नों के भारत
की तस्वीर को वैचारिक रूप देते हुए एक राजनीतिक पार्टी फारवर्ड ब्लॉक की
स्थापना की। वे एक समर्पित राष्ट्रभक्त युवक रहे । उनके पिता
श्री जानकी दास बोस चाहते थे कि वे एक श्रेष्ठ प्रशासनिक अधिकारी बन सरकार
की सेवा करें। अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने इंडियन
सिविल सर्विसेज की परीक्षा भी दी और उस इम्तहान में टॉपर भी रहे। परीक्षा
परिणाम को अपनी उपलब्धि मानते हुए उन्होंने अपने पिता को ही समर्पित करते
हुए अपना इस्तीफा साथ ही भेज दिया, क्योंकि वे शासन की सेवा न करके देश सेवा
करना चाहते थे। अपने पिता को लिखा पत्र उनकी आंकाक्षाओं का स्पष्ट द्योतक
है, जिसे हर महत्वाकांक्षी नौजवान को पढ़ना चाहिए।
सरदार भगत सिंह ने राष्ट्रीय आज़ादी के परिपेक्ष्य में उनकी आलोचना भी की तथा उन्हें एक भावुक राष्ट्रभक्त बताया, जिसके पास राष्ट्र निर्माण का कोई विचार नहीं है। दूसरी तरफ वे कांग्रेस के नेता रहते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं के तो प्रिय रहे, परंतु महात्मा गांधी से उनके मतभेद रहे। हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के बाद तो वे कांग्रेस से अलग ही हो गए। इसके बावजूद महात्मा गांधी के प्रति उनका अनुराग व निष्ठा सदा बनी रही। आज़ाद हिंद फौज की पहली सैन्य टुकड़ी (ब्रिगेड) का नाम उन्होंने गांधी ब्रिगेड रखा। वे ही पहले शख्श थे, जिन्होंने बापू को राष्ट्रपिता का संबोधन दिया। गांधी जी का अगाढ़ स्नेह भी उनके प्रति बदस्तूर रहा और कांग्रेस छोड़ने के बावजूद वे अपने सुभाष के जन्मदिन को उसी पितृभाव से मनाते थे।
इन तमाम उतार चढ़ाव व मतभेद के बावजूद वे एक सर्वोत्तम सर्वोच्च नायक रहे हैं। देश की आज़ादी के लिए उन्होंने फ़ासिस्ट हिटलर -मुसोलिनी से भी समझौता किया। दिल्ली चलो के नारे के साथ उन्होंने उत्तर पूर्व तक अंग्रेज़ी शासन से आज़ाद भी करवाया, परन्तु धोखेबाज हिटलर के असहयोग से आगे न बढ़ सके। फारवर्ड ब्लॉक उनकी वैचारिक समझ की पार्टी थी। जिसमें समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतंत्र की बुनियाद थी, जिसका विचार वैज्ञानिक समाजवाद था। यह विचार ही था उनके स्वप्नों तथा संघर्षों का देश बनाने का घोषणापत्र। जिसमें महात्मा गांधी, सरदार भगतसिंह तथा अन्य देशभक्तों का समन्वय था, जिसमें इंकलाब की जय थी व साम्राज्यवाद की पराजय का उदघोष।
"नेता जी अमर हैं, जब तक देश में अमीर -गरीब, छुआछूत, साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनता की लड़ाई जारी है* ।
सरदार भगत सिंह ने राष्ट्रीय आज़ादी के परिपेक्ष्य में उनकी आलोचना भी की तथा उन्हें एक भावुक राष्ट्रभक्त बताया, जिसके पास राष्ट्र निर्माण का कोई विचार नहीं है। दूसरी तरफ वे कांग्रेस के नेता रहते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं के तो प्रिय रहे, परंतु महात्मा गांधी से उनके मतभेद रहे। हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के बाद तो वे कांग्रेस से अलग ही हो गए। इसके बावजूद महात्मा गांधी के प्रति उनका अनुराग व निष्ठा सदा बनी रही। आज़ाद हिंद फौज की पहली सैन्य टुकड़ी (ब्रिगेड) का नाम उन्होंने गांधी ब्रिगेड रखा। वे ही पहले शख्श थे, जिन्होंने बापू को राष्ट्रपिता का संबोधन दिया। गांधी जी का अगाढ़ स्नेह भी उनके प्रति बदस्तूर रहा और कांग्रेस छोड़ने के बावजूद वे अपने सुभाष के जन्मदिन को उसी पितृभाव से मनाते थे।
इन तमाम उतार चढ़ाव व मतभेद के बावजूद वे एक सर्वोत्तम सर्वोच्च नायक रहे हैं। देश की आज़ादी के लिए उन्होंने फ़ासिस्ट हिटलर -मुसोलिनी से भी समझौता किया। दिल्ली चलो के नारे के साथ उन्होंने उत्तर पूर्व तक अंग्रेज़ी शासन से आज़ाद भी करवाया, परन्तु धोखेबाज हिटलर के असहयोग से आगे न बढ़ सके। फारवर्ड ब्लॉक उनकी वैचारिक समझ की पार्टी थी। जिसमें समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतंत्र की बुनियाद थी, जिसका विचार वैज्ञानिक समाजवाद था। यह विचार ही था उनके स्वप्नों तथा संघर्षों का देश बनाने का घोषणापत्र। जिसमें महात्मा गांधी, सरदार भगतसिंह तथा अन्य देशभक्तों का समन्वय था, जिसमें इंकलाब की जय थी व साम्राज्यवाद की पराजय का उदघोष।
"नेता जी अमर हैं, जब तक देश में अमीर -गरीब, छुआछूत, साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनता की लड़ाई जारी है* ।
"इंकलाब जिंदाबाद", "साम्राज्यवाद मुर्दाबाद" ।
साभार : राम मोहन राय, पानीपत (हरियाणा)
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