महात्मा गांधी : तो पानीपत में 10 नवंबर को ही कत्ल हो जाते बापू

मेरे पिताजी उस मंजर के चश्मदीद गवाह थे, वह दिन 10 नवंबर, 1947 का था जब महात्मा गांधी, किला ग्राउंड पानीपत में एक जनसभा को संबोधित करने आए थे। विभाजन के बाद पानीपत की बड़ी आबादी जो मुस्लिम समुदाय की थी पाकिस्तान न जाकर हिंदुस्तान में यानि अपने बाबा ए वतन पानीपत में ही रहना चाहती थी। मेरे पिता  बताया करते कि पार्टीशन से पहले पानीपत की 70 फीसदी  आबादी मुस्लिम थी। आपस में भाईचारा इतना कि भाइयों से भी ज्यादा प्यार। शादी-ब्याह, ख़ुशी-गमी व मरघट में आना जाना। मुस्लिम लोग  पढ़े -लिखे व नौकरीपेशा थे व घर की सारी जिम्मेवारी घर की औरतें ही संभालती थी और यहाँ तक कि घर की पहचान भी औरत से ही थी, यानि 'फलां बीबी का घर '। मेरे पिता खुद भी उर्दू -अरबी-फ़ारसी के टीचर थे तथा उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम कॉलेज से अदीब ए आलिम, फ़ाज़िल के इम्तहान पास किए थे।  शहर में सिर्फ दो ही स्कूल थे, एक मुस्लिम हाली स्कूल व दूसरा जैन हाईस्कूल। वे जैन स्कूल में ही पढ़े व  वहीँ सन् 1928 -48 तक उपरोक्त विषयों के टीचर रहे पर थे। महात्मा गांधी के पक्के चेले व सेक्युलर मिज़ाज के आदमी। पिताजी बताया करते थे कि पानीपत में मुस्लिम कारीगर भी बहुत मशहूर थे और यहांं के कंबल, दरिया व खेस दूर-दूर तक बिकते थे। इसतरह अपने जमे जमाए काम को छोड़कर कौन किसी अनजान जगह जाना चाहेगा, पर ज्यों-ज्यों नजदीक लगते करनाल से मुस्लिम आबादी के पलायन की खबरें आने लगी, तो पानीपत के मुस्लिम आबादी में भी डर बनने लगा कि  कहीं उन्हें भी पाकिस्तान न जाना पड़े। पाकिस्तान से भी हिंदू शरणार्थियों के काफिले आने शुरू हो गए थे तथा पानीपत में उनके लिए तहसील व नहर के पास कैंप बनाए जाने लगे थे। पानीपत के कांग्रेसी नेता मौलवी लकाउल्ला व दूसरे लोग उस दौरान दिल्ली गए व मौलाना आज़ाद की मार्फत महात्मा गांधी से मिले और उनसे गुजारिश की, कि वे पानीपत तशरीफ़ फरमा होकर मुस्लिम आबादी को पाकिस्तान जाने से रोकें। अपनी तमाम मश्रुफियात के बावजूद गांधी जी 10 नवंबर, 1947 को पानीपत आए। किला ग्राउंड पर स्टेज लगी, जिसमें बापू के साथ  मौलाना आज़ाद, गोपी चंद भार्गव व दूसरे नेता आए। पानीपत में गांधीजी के इस जलसे में हजारों लोगों की भीड़ थी और वहाँ 'महात्मा गांधी की जय' के नारे बुलंदी पर थे पर यह क्या गांधीजी ज्यों ही बोलने शुरू हुए वहाँ मौजूद कुछ उपद्रवी भीड़ जो अधिकांश स्थानीय व शरणार्थी कार्यकर्ता थे, ने शोर मचाकर उनकी तकरीर में व्यवधान करना शुरू कर दिया और यहाँ तक की उन्मादी लोग बापू को स्टेज पर मारने के लिए भी चढ़ गए। इसी बीच एक नवयुवक बीच बचाव करता हुआ आया और वह गांधीजी को दबोच कर स्टेज के साथ ही लगती लायब्रेरी के कमरे में ले गया। उसने बाहर से चिटकनी लगा दी और फिर उस नौजवान ने तकरीबन आधे घंटे तक जलसे में उपस्थित भीड़ को संबोधित किया।  पिताजी ने बताया कि उनकी तकरीर ने आग पर पानी डालने का काम किया, माहौल बिलकुल शांत होने पर गांधीजी व दूसरे नेतागण बाहर आए फिर  गांधीजी ने लोगों को संबोधित किया तथा लोगों से अपील कि वे मुसलमानों को पाकिस्तान न जाने दें, वे अच्छे कारीगर हैं, बुद्धिजीवी हैं। बापू के विचारों को लोगों ने बहुत ही शांति से सुना था। उनपर अमल करने का उन्हें आश्वासन भी दिया। पिताजी ने बताया जलसे के बाद सब में उस नौजवान के बारे में जानने की आतुरता बनी रही, जिसकी वजह से गांधी जी की जान बची व जलसा कामयाब हुआ। पिताजी ने बताया कि बाद में पता चला कि वह नौजवान पंजाब प्रोविंस कांग्रेस के सेक्रेटरी 'टीकाराम सुखन' थे। फिर तो सुखन साहब ने करनाल-पानीपत में अपना मुकाम बनाकर सांप्रदायिक सद्भाव व विस्थापितों के बसाने का काम किया। पिताजी बताते थे कि  टीकाराम सुखन, श0 भगत सिंह के साथी थे तथा उनके साथ नौजवान भारत सभा में सक्रिय रहे। बाद में वे 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' में भी एक्टिव रहे और अंत में का0 अजोय घोष, शिव वर्मा, किशोरी लाल के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और हरियाणा बनने पर वे सीपीआई के राज्य सचिव बने। उनकी पत्नी श्रीमती शकुंतला सुखन भी एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थी व मेरी माता श्रीमती सीता रानी के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी। सुखन साहब, आज़ादी की लड़ाई में लगभग 14 साल अंग्रेज़ी शासन की जेल में बितायी पर जब सन् 1973 में स्वतंत्रता सेनानियों को ताम्रपत्र व पेंशन की सरकार की योजना बनी तो सुखन-दंपति ने ताम्रपत्र और पेंशन लेने से यह कहकर मना कर दिया कि इसके लिए थोड़ी उन्होंने सजा काटी थी ।
   सन् 1975 में कॉलेज में आने के बाद मैंने भी आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन ज्वाइन की। मेरे माता -पिता बेशक  कांग्रेस विचारधारा के थे व उसके  कार्यकर्ता भी परंतु उन्हें मेरे स्टूडेंट्स फेडरेशन में होने से कभी कोई एतराज नहीं रहा। इस दौरान कई मर्तबा का0 टीकाराम सुखन से भी मिला। जब भी मैं उनसे मिलकर आता और अपने घर आकर अपने माता-पिता को बताता तो वे बहुत खुश होते क्योंकि उनके लिए' उनके महात्मा गांधी'को बचाने वाले का0 टीकाराम सुखन एक सामान्य राजनीतिक नेता ही नहीं, अपितु प्राणरक्षक भी थे। मेरे पिता अक्सर कहते यदि का0  टीकाराम सुखन न होते तो गांधीजी 30 जनवरी को दिल्ली में नहीं, 10  नवंबर को पानीपत में ही  कत्ल हो जाते पर पानीपत को इस पाप से का0 टीकाराम सुखन ने ही बचाया।
साभार : राम मोहन राय, पानीपत (हरियाणा)

Comments

Popular posts from this blog

26/11 what mumbai diaries/Expose irresponsible electronic media/ Live reporting of TV became helpful to terrorists