राष्ट्र नायक खान अब्दुल गफ्फार खान : खुदाई खिदमतगार
खान अब्दुल गफ्फार खान, महान स्वतन्त्रता सैनानी, राष्ट्र नायक (बादशाह खान-सीमांत गांधी) को उनकी पुण्य तिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि।
सम्भवतः यह बात 27-28 जुलाई, 1987 की है, दीदी निर्मला देशपांडे के कहने पर मैंने पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह जी के निवास पर फोन कर उनसे दीदी की मुलाकात का समय मांगने के लिए किया था। वह मेरे लिए बहुत ही रोमांच करने वाला वाक्या था। ज्ञानी जी दो एक दिन पहले ही राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत हुए थे तथा राष्ट्रपति भवन से अपने नए निवास पर स्थानांतरित हुए थे। दीदी ने कहा था कि वहाँ उनका कोई पीेए फोन उठाएगा, तब उनके रेफरेंस से मैं समय मांगू। मेरे फोन मिलाने पर उधर से आवाज आने पर अपना प्रयोजन बताया तो आवाज आई 'मैं ही ज़ैल सिंह बोल रीआ हां'। मेरी तो सिट्टी पिट्टी गुम। खुद ज्ञानी ज़ैल सिंह जी ही बोल रहे थे। मैंने फिर हिम्मत जुटाई और अपनी बात कही तो उन्होंनेकहा कि 'यदि टाइम हो तो अभी आ जाओ '। मैंने शुक्रिया कहकर फोन रख दिया। सारी बात मैंने दीदी को दरयाफ़्त कि तो वे बोलीं, क्या मेरी सचमुच ज्ञानी जी से ही बात हुई है। मैंने तो ज्ञानी जी की वाणी को टेलीविज़न पर उनके राष्ट्रपति रहते 'राष्ट्र के नाम सन्देश ' पर ही सुना था । पर मैं उनकी आवाज में पंजाबी भावो को समझता था, मैंने दीदी से भरोसे से कहा कि वे ज्ञानी जी ही थे, जिनसे मेरी बात हुई थी। दीदी तैयार हुईं व मुझे साथ लेकर अपने पंडारा रोड घर से ज्ञानी जी के नए निवास रायसीना रोड पर पहुंची। घर में पूर्व राष्ट्रपति जी शिफ्ट तो हो गए थे परंतु व्यवस्थाएं पूरी न थी ऐसा लग रहा था मानो अपने राष्ट्रपति पद पर रहते कार्यों की वजह से किसी विद्वेष का शिकार हों। घर में भी बिजली व अन्य फिटिंग का काम भी उनके पारिवारिक युवा ही कर रहे थे। दीदी उनसे मुलाकात के लिए भीतर चली गयीं तथा मैंने बाहर के कमरे में बैठकर इंतजार किया। कुछ समय बाद मैंने देखा कि ज्ञानीजी व दीदी बाहर आ रहे हैं । एक दिव्य पुरुष जिसके मुख मंडल पर विशाल आध्यात्मिक औज, क्रीम रंग का कोट जिसपर गुलाब का फूल लगा था, ज्ञानी जी के रूप में था । मैंने साहस किया तथा पंजाबी ढंग से उनका "पैरी पौना"(चरण स्पर्श) किया। उन्होंने भी आशीर्वाद देते हुए कहा 'जिन्दे रहो' और हम उनके साथ चल दिए। वे कार में अगली सीट पर बैठे , दीदी व मैं पिछली सीट पर। हम कहाँ जा रहे है? यह पूछने का साहस मैं नहीं कर पा रहा था। मैं तो रोमांचित था कि ज्ञानी जी के साथ उनकी गाड़ी में बैठा हूँ। दीदी की एक बहुत बड़ी खासियत थी कि किसी की पद प्रतिष्ठा के समय में वें उनसे मिलती या नहीं मिलती, परन्तु उनके हटने पर अथवा बुरे दिनों में उनके साथ जरूर रहतीं। इसी भाव से वे ज्ञानी जी से मिलने आई थीं । कुछ देर के बाद गाड़ी एम्स में जाकर रुकी और पूर्व सुचना के कारण ज्ञानी जी को वहाँ के अधिकारी उन्हें अंदर ले गए, हम भी उनके पीछे-पीछे थे। ज्ञानी जी को उस कमरे में ले जाया गया जहाँ मेरा भी एक जाना पहचाना चेहरा जिसे खूब अखबारों में देखा था और जो अपने इलाज के लिए एम्स में दाखिल था , को पाया । मेरे रोंगटे खड़े हो गए उन्हें देखकर । वे थे महात्मा गांधी के परम मित्र जिन्हें लोग उन्हीं के नाम से जानते थे 'खान बादशाह -सरहदी गांधी -फ्रंटियर गांधी -बच्चा खान -खान अब्दुल गफ्फार खान। पुरे एक बड़े पलंग पर छोटा पड़ने वाला एक विशालकाय व्यक्तित्व। खान बादशाह अपनी अंतिम अवस्था में थे। शरीर में चेतनता शून्य प्रायः थी पर अर्द्ध चेतन अवस्था की छटपटाहट में एक ही शब्द बोले जा रहे थे ' यह क्या हो गया गांधी के देश को ' । उनके एक हाथ की हथेली को ज्ञानी जी व दूसरी को दीदी पकड़े हुए थे और उनके पास भी छटपटाहट भरे सवाल का कोई जवाब न था।
हम सब गमगीन थे उस गांधी के चेहरे को देखकर जिसने लड़ाके पठानों को अहिंसा का सबक सिखाया तथा उन लड़ाकों का 'लाल कुर्ती ' दस्ता बनाकर साम्राज्यशाही से लड़ा । जिसने न केवल अंग्रेज की यातना सही अपितु आज़ादी के बाद पाकिस्तान में भी विद्वेष व दमन का शिकार रहा। जो गांधी जी के साथ खड़ा होकर भारत विभाजन की मुखालफत करता रहा व आखिरी समय तक भारतीय सत्ताशीनो को उलाहना देता रहा कि उन्हें किन दरिंदों के सामने फेंक दिया । आज उस शेर की दयनीय अवस्था देखी नहीं बन पा रही थी परंतु मन में यह सन्तोष भी था कि दीदी के कारण आज दो स्वतन्त्रता सेनानियों के नजदीक जा पाया। खान साहब की प्रेरणा ही दीदी को रही होगी कि दीदी ने अपने शेष जीवन को भारत -पाकिस्तान की जनता के संबन्धों को बेहतर बनाने में लगाया ।
साभारः राम मोहन राय, दिल्ली।
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