दहशत की दिल्ली : आखिर अराजकता के लिए कौन जिम्मेदार ?
मुबाहिसा : राजेन्द्र मौर्य
आज रात
दिल्ली से कानपुर के लिए ट्रेन से सफर शुरू किया तो दो पुलिसकर्मियों ने नई
दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ही सभी यात्रियों को अलर्ट करते हुए ट्रेन की
खिड़की बंद करा दी। पूछने पर पुलिसकर्मियों का कहना था कि दिल्ली का माहौल
खराब है, उसकी प्रतिक्रिया में कहीं भी कुछ हो सकता है। यह भले ही इन
पुलिसकर्मियों द्वारा यात्रियों को अलर्ट करने की कोशिश थी, लेकिन इसका असर
बहुत ही निंदनीय हुआ। यात्रियों ने बिना कुछ सोचे समझे एक वर्ग को जिस तरह
से कोसना शुरू किया, उससे मैं अंदर तक हिल गया। दुखी हूं कि हम भारत वासी
किस कदर सियासत की साजिश से इंसानियत के दुश्मन बनकर आदमखोर जानवरों की
मानिंद सोचने लगे हैं। हम कैसा देश बना रहे हैं, जिसमें राष्ट्रभक्ति के
नाम पर प्रेम और सद्भाव का कत्ल करने वाला "मानव हथियार" बनाए जा रहे
हैं। हम बात करते हैं, अमेरिका जैसी महान महाशक्ति बनने की और हमारी सोच व
समझ पाकिस्तान जैसे निम्न स्तर के देश के नागरिकों से भी कहीं गई गुजरी हो
गई है ? क्या हम कहने मात्र के लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश
के नागरिक हैं ?, सोच तो हमारी वैसी कतई नहीं बन पा रही है ? क्या हमने
कभी अमेरिकी नागरिकों की सोच "We are First American" की तरह अपनी सोच
"We are First Indian" बनाई। हम भारत के नागरिक होने से पहले तो धर्म,
जाति, भाषा, क्षेत्रीयता की सोच को आगे रखना गर्व की बात समझते हैं ?
याद कीजिए, न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर इस्लामिक आतंकी संगठन अल कायदा द्वारा किया गया हमला। अमेरिकी नागरिकों की सोच और समझ इस हमले को केंद्र में रखकर अच्छे से जानी जा सकती है कि इस्लामिक आतंकी संगठन द्वारा किए गए हमले के बावजूद वहां के नागरिकों ने इस्लाम मूल के बराक ओबामा को राष्ट्रपति चुना। और बराक ओबामा ने भी सच्चा अमेरिकन होने का फर्ज निभाते हुए अल कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान की छावनी में घुसकर मारा। अमेरिकी नागरिकों ने कहीं कभी सभी मुसलमानों को आतंकी या दुश्मन नहीं माना। अमेरिका का जो नागरिक है वह वहां समान अधिकार, सम्मान व सुरक्षा का हकदार है। हमने तो हद कर दी, भारतीय नागरिकों को धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता में बांट दिया। एेसा बांटा कि सियासत करने वाले दिल्ली में एेलान करके लोगों के आशियाने जला रहे थे और सुरक्षा देने की जिम्मेदारी से बेपरवाह पुलिसवाले हमलावरों के बगलगीर बनकर जुल्म की गवाही देने वाले सार्वजनिक सीसीटीवी कैमरे तोड़ रहे थे ? यह कैसी अराजकता का माहौल है, जब तक सियासत में फायदा दिखे, लोगों को सड़कों पर बैठकर धरना देने दो। जैसे ही फायदा नुकसान में तब्दील हो जाए तो आशियाने जलवा दो ? यूपी में धरना देने वालों को बलपूर्वक हटाया गया तो दिल्ली में पहले ही दिन सड़क पर धरने को शुरू होने क्यों दिया गया ? क्या दिल्ली में पुलिस भाजपा शासित केंद्र सरकार के अधीन नहीं थी, जो चुनाव परिणाम आते ही केंद्र सरकार के अधीन आ गई और दंगाइयों की बगलगीर बनी रही ?
जनता को अपनी सोच को मजबूत करके सियासत के "मानव हथियार" बनने से बचना होगा। और सरकार को स्वीकार करना होगा कि दिल्ली का माहौल बिगड़ने में समय से सख्त कार्रवाई न होना मुख्य कारण है। सियासत को केंद्र में रखकर अपने नागरिकों की जान माल की सुरक्षा, सम्मान व सभी अधिकारों में समानता के बजाय भेदभाव करना लोकतांत्रिक देश की किसी भी सरकार के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।
याद कीजिए, न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर इस्लामिक आतंकी संगठन अल कायदा द्वारा किया गया हमला। अमेरिकी नागरिकों की सोच और समझ इस हमले को केंद्र में रखकर अच्छे से जानी जा सकती है कि इस्लामिक आतंकी संगठन द्वारा किए गए हमले के बावजूद वहां के नागरिकों ने इस्लाम मूल के बराक ओबामा को राष्ट्रपति चुना। और बराक ओबामा ने भी सच्चा अमेरिकन होने का फर्ज निभाते हुए अल कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान की छावनी में घुसकर मारा। अमेरिकी नागरिकों ने कहीं कभी सभी मुसलमानों को आतंकी या दुश्मन नहीं माना। अमेरिका का जो नागरिक है वह वहां समान अधिकार, सम्मान व सुरक्षा का हकदार है। हमने तो हद कर दी, भारतीय नागरिकों को धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता में बांट दिया। एेसा बांटा कि सियासत करने वाले दिल्ली में एेलान करके लोगों के आशियाने जला रहे थे और सुरक्षा देने की जिम्मेदारी से बेपरवाह पुलिसवाले हमलावरों के बगलगीर बनकर जुल्म की गवाही देने वाले सार्वजनिक सीसीटीवी कैमरे तोड़ रहे थे ? यह कैसी अराजकता का माहौल है, जब तक सियासत में फायदा दिखे, लोगों को सड़कों पर बैठकर धरना देने दो। जैसे ही फायदा नुकसान में तब्दील हो जाए तो आशियाने जलवा दो ? यूपी में धरना देने वालों को बलपूर्वक हटाया गया तो दिल्ली में पहले ही दिन सड़क पर धरने को शुरू होने क्यों दिया गया ? क्या दिल्ली में पुलिस भाजपा शासित केंद्र सरकार के अधीन नहीं थी, जो चुनाव परिणाम आते ही केंद्र सरकार के अधीन आ गई और दंगाइयों की बगलगीर बनी रही ?
जनता को अपनी सोच को मजबूत करके सियासत के "मानव हथियार" बनने से बचना होगा। और सरकार को स्वीकार करना होगा कि दिल्ली का माहौल बिगड़ने में समय से सख्त कार्रवाई न होना मुख्य कारण है। सियासत को केंद्र में रखकर अपने नागरिकों की जान माल की सुरक्षा, सम्मान व सभी अधिकारों में समानता के बजाय भेदभाव करना लोकतांत्रिक देश की किसी भी सरकार के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।
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