Corona: संकट न नया है, न विकराल....छिपा संदेश भयानक


संकट न नया है, न विकराल.. छिपा संदेश भयानक है!!

दुनिया में 1720 में फैले द ग्रेट प्लेग आफ मार्सेल से 1 लाख लोगों की मौत हो गई थी। 100 साल बाद 1820 में एशियाई देशों में बीमारी बनकर बरसे हैजा ने भी एक लाख से अधिक लोगों को शिकार बनाया। वर्ष 1918-1920 में दुनिया ने आए स्पेनिश फ्लू ने पांच करोड़ लोगों को चिरनिद्रा में सुला दिया था।
इस बार 100 साल बाद संयोगवश कोरोना की शक्ल में महामारी आई है। हरबार की तरह नवजन्मा यह वायरस भी लाइलाज है। दुनिया का हर कोना इसकी चपेट में है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इंसानी हरकतों से डगमगाने वाली पृथ्वी की गति भी थम सी गई है। मजदूर भूखा मरने, अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने की कगार पर है। इसी अर्थव्यवस्था को पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के सुदूर क्षेत्र में पहुंचाने वाली रेलगाड़ियों के पहियों पर भी वायरस ने बेड़िया डाल दी हैं। खड़ी बसों के दरबारी रंगों पर जंग लगने लगी है। न्यून उद्योगपतियों ने सरकार की अपील पर गरीबों के  लिए पिटारा खोला है तो अधिकांश छोटे उद्यमियों ने सरकार के समक्ष अपनी भरपाई के लिए कटोरा फैला दिया है। पूर्व में ही जमीन पर गिर रही जीडीपी का गर्त में जाना तय है। आंशका निर्मूल कतई नहीं कि भविष्य में गर्ती खाई में जा रही अर्थव्यवस्था को उबरने से पहले उद्योगों पर ताला लटकने लगेगा। इसी कोप के कारण पढ़े लिखे नौजवान और बड़ी संख्या में उम्रदराज सड़क पर होंगे। सभ्यता संपन्न अपने देश की यह तस्वीर वायरस के डरावने रूप से पहले की है। यह समझना भी हमें ही होगा कि वायरस के रूप में ही भावी संदेश छिपे हैं। यह हालात तब हैं, जब अमेरिका, फ्रांस, चीन, जर्मनी, जापान, इटली समेत अन्य महाशक्तियों का एक बेड़ा अपनी आधुनिक विज्ञान की प्रयोगशालाओं पर इठला रहा था। गुरुर था कि मारक क्षमता वाली बैलिस्टिक मिसाइल देश की आसमानी और सामुद्रिक सीमाओं में पलक झपकते पहुंचेंगी जरूर, लेकिन उनके विनाश के मंसूबे अति माइक्रो सेेकेंड से भी पहले राख के ढेर में बदल जाएंगे। किंतु एक वायरस ने इन महाशक्तियों को घुटनों पर ला दिया।
जिन वैश्विक शक्तियों के आर्थिक प्रतिबंध लगाने पर दूसरे देशों का सारा तंत्र भरभराकर गिर जाता था। आज वही देश लाचारगी की मुद्रा में है। इन महाशक्तियों के मुखियाओं के सामने उनकी जनता सांस लेने में तड़फड़ा रही है। अब उन्हीं बीमार फेफड़ों को ऑक्सीजन पहुंचाने में इन देशों ने अनाधिकारिक आत्मसमर्पण कर दिया है। एक रपट के मुताबिक, इटली सम्भवतः वायरस के साथ ही जिंदगी गुजारने में मजबूर होगा। अमेरिका बढ़ने वाली मौतों की स्वीकार्यता दे चुका है। वायरस के कारण पड़ने वाले नकारात्मक पहलू बेशुमार हैं। बीमारियों की काट खोजने वाले वैज्ञानिक वायरस की चपेट में आकर मर रहे हैं, डॉक्टर तड़प रहे हैं।
समझ लीजिए, इस मरघटी व्यवस्था में एक भयानक संदेश छिपा है। उन संदेशों को पढ़ने, समझने और उनका अनुसरण करते हुए निवारण करने की जरूरत है। इस डरावने क्षण में सकारत्मक खबरें आ रही हैं तो वह प्रकृति की दिशा से हैं। पक्षी चहचहा रहे हैं, पशु दौड़ रहे हैं। पशुओं को न अपने निवाले बनने का भय है, न पक्षियों को दमघोंटू पर्यावरण में नीचे गिरने का। गंगा, यमुना, नील, ह्वांगहो, अमेजन समेत अन्य नदियां सरसराहट भरे लहजे में अपने स्वच्छल भविष्य को गुनगुना रही हैं। जिस दूर की वस्तु को देखने के लिए दूरबीन उपयोगी थी। मटमैली आसमानी काई के खात्मे ने उनकी दृष्टिक दूरियां  घटा दी हैं। चीन के वुहान से निकला यह वायरस पशु पक्षियों से होता हुआ मानव में पहुंचा है या फिर जानबूझकर एक जैविक हथियार के रूप में भेजा गया है। इसको बेहतर तरीक़े से तो चीन ही जान सकता है। लेकिन दोनों ही तर्कों में गूढ़ संदेश छिपा है.. यदि वायरस पशु पक्षियों से आया तो प्रकृति को असंतुलन करने की मुखालफत में यह कुदरत का कदम है, यदि जैविक हथियार भी है तो यह भी कुदरत की दी हुई काया से खिलवाड़ ही किया है। ईश्वर एक जीवन को दूसरे जीवन को बचाने के लिए सारे रास्ते तैयार रखता है, किंतु इंसान जीवन (वायरस रूपी तत्व) तैयार करने में तो जुटा है, लेकिन उसके खात्मे के लिए अभी भी कुदरत पर ही निर्भर हैं।    
                            
  •  साभार : नीरज गुप्ता, वरिष्ठ पत्रकार।                                                                                                                                          

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