India's Former Prime Minister Ch. Charan Singh : सख्त प्रशासन, किसान का आजीवन चिंतन
- किसान, मजदूर और सर्वहारा समाज के नेता थे चौधरी चरण सिंह
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंंह किसानों के ही नहीं
मजदूर और सर्वहारा समाज के नेता थे। जातिगत भावना से दूर आधूनिक भारत
में सर्वहारा समाज के समान उत्थान की उनकी उत्तम सोच थी।
परिणामस्वरूप उन्होंने उत्तरी भारत के सभी प्रदेशों में क्षेत्रीय
नेताओं को मजबूती के साथ आगे बढ़ाया और उनको प्रदेश व्यापी और
राष्ट्र व्यापी नेता बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। आजादी से पहले
के राजघानों से राजनीति को निकालकर झोपड़ी तक पहुंचाने में अहम
भूमिका अदा की। उन्होंने ऐेसे-एेसे सामान्य गरीब परिवारों में जन्मे
युवाओं को राष्ट्रीय स्तर का नेता बनाने का काम किया, जिनके घरों में
खाने के लिए नहीं और उनके तन पर ठीक से कपड़े नहीं होते थे।
सभी महानगरों में रेडियो यंत्रयुक्त गश्ती पुलिस की व्यवस्था कराई जो सर्वप्रथम लखनऊ व कानपुर से शुरु हुई। इससे नागरिक सुरक्षा में वृद्धि हुई। सब-इन्सपेक्टरों की नियुक्ति के नियमों में भी इस प्रकार परिवर्तन किया कि योग्य व गरीब परिवारों के युवकों को मौका मिल सका। इसी सन्दर्भ में ट्रेनिंग कालिज मुरादाबाद में प्रशिक्षणार्थियों द्वारा जमा करने वाली राशि 1000/- रुपया को रद्द करके मासिक व्यय के लिए 80/- रुपये की व्यवस्था सरकारी स्तर पर कर दी गई।
मार्च 1962 में पुलिस बजट प्रस्तुत करते हुए घोषणा की कि अराजपत्रित पुलिस कर्मचारियों के मुठभेड़ में मारे जाने या अन्यत्र कार्यपालन में मृत्यु होने पर उनके उत्तरजीवियों को उसकी पूरी आय (मासिक वेतन वृद्धि सहित) दी जाती रहेगी तथा पेन्शन भी दी जायेगी।
थानों में सही रिपोर्ट दर्ज कराने और रिपोर्ट के आधार पर थाने की कुशलता आंकने की व्यवस्था की, जिससे अपराधों की सही स्थिति ज्ञात हो सकी। इसी प्रकार की गलतियों पर बड़े अधिकारियों को अधिक दण्ड देने का प्रावधान किया तथा तरक्की, नियुक्ति व तबादले के सन्दर्भ में किसी भी सिफारिश को पूर्णतः नजरअंदाज करने के लिए कहा। प्रतिफलस्वरूप 1961 में सब-इन्स्पेक्टरों की नियुक्ति के सन्दर्भ में स्वयं आई० जी० पुलिस ने घोषणा की कि इस वर्ष एक भी सिफारिश प्राप्त नहीं हुई।
पशुपालन विभाग में रहकर चौ० चरणसिंह ने 1954 में मवेशी अतिक्रमण अधिनियम 1955 को संशोधित किया। उत्तरप्रदेश में गोहत्या निवारण अधिनियम की तैयारी कर उसे 1955 में अधिनियम का रूप दिया। प्रदेश गोशाला अधिनियम तथा 1964 का मवेशी सुधार अधिनियम बनना भी चौ० साहब की उपलब्धि थी। 1953-54 में मवेशी मंडियों के नियन्त्रण के लिए एक विशेष विधेयक तैयार कराया, जो देश के स्तर पर पहला कदम था, किन्तु पंत जी दिल्ली चले गये, चौधरी साहब का विभाग बदल गया, फिर इसे अन्तिम रूप न मिल सका।
आपने परिवहन विभाग में रहकर बसों तथा सार्वजनिक वाहनों के संचालन में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के अनेक कार्य किये। एक से अधिक परमिट देने पर रोक लगा दी गई। नाबालिग स्त्री, अपंग व विधवाओं को उपरोक्त स्थितियों में छूट दी गई।
सन् 1958 में वित्त विभाग संभालने पर चौधरी साहब ने सार्वजनिक धन की बर्बादी को रोकने के कारगर उपाय किए। खाद्यान्न व्यापारियों पर लगाये जाने वाले विक्रय की पुरानी प्रणाली को पूर्णतया संशोधित किया।
सन् 1958-59 में चार माह के लिए सिंचाई व ऊर्जा विभाग देखा। जब इन क्षेत्रों में भ्रष्टाचार की जांच शुरु की तो उनसे विभाग वापिस लिया गया। इसका कारण यह भी था कि चौधरी साहब ने रिहन्ध बांध परियोजना से प्राप्त समस्त विद्युत शक्ति के आधे से अधिक बिजली, बिड़ला परिवारों को अल्यूमिनियम कारखाने के लिए देने का कड़ा विरोध किया, जो मुख्यमन्त्री डा० सम्पूर्णानन्द को अखर गया। जलमार्गों के निर्माण कार्य भी, जिसके कारण करोड़ों रुपये के नलकूप कई वर्ष से बेकार खड़े थे, आप की विशेष उपलब्धि है।
सन् 1970 में चौ० चरणसिंह ने अपने भारतीय क्रान्ति दल (BKD) के साथ इन्दिरा कांग्रेस को मिलाकर उत्तरप्रदेश में संयुक्त मन्त्रिमण्डल बनाया जिसके मुख्यमन्त्री थे। उस समय अध्यादेश द्वारा घोषणा की कि शिक्षा संस्थाओं में विवश विद्यार्थी संघ नहीं होगा। ये सब संघ इच्छापूर्वक प्रकार से होंगे। इसके फलस्वरूप कोई हड़ताल न हुई, नकलें न हुईं, लड़कियों के साथ छेड़छाड़ बन्द हो गई और इसके बाद पहली बार शिक्षा संस्थाओं में आजादी से पढ़ाई होने लगी तथा उपस्थिति में वृद्धि हुई। चौ० चरणसिंह को संस्थाओं के अध्यक्षों की ओर से बड़ी संख्या में तार व पत्र मिले जिनमें लिखा गया था कि आपके इस उपाय से विद्यार्थी संघ तथा अध्यापकों के लिये बड़ा लाभ प्राप्त हुआ है।
गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार और मध्यप्रदेश प्रान्तों में भयंकर कौमी उपद्रव हुए किन्तु चौ० चरणसिंह के शासनकाल में उत्तरप्रदेश में, जहां मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक है, इस तरह का कौमी झगड़ा एक भी न हुआ। जितने समय चौ० चरणसिंह सरकार में रहे, किसी कारखाने में या सरकारी कर्मचारियों द्वारा पूरे उत्तरप्रदेश में एक भी हड़ताल नहीं हुई।
चौ० चरणसिंह ने मंत्रियों के सादा जीवन के लिए सदा आवाज़ उठाई, मंत्रियों का वेतन घटाकर 1000/- रुपये प्रति मास, प्रयोग के लिए छोटी अम्बेसेडर कार, ट्रेन यात्रा में पीएसी गार्द की समाप्ति के निर्णय कराये। प्रधानमंत्रित्व काल में भी श्यामनंदन मिश्र के संयोजकत्व में एक समिति गठित की, जो मंत्रियों के भारी व्यय पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से गठित की गई थी।
चौ० चरणसिंह ने अपने मंत्रीपद को सदैव जनसेवा का अवसर मानकर कार्य किया और त्यागपत्र सदैव साथ लेकर चले और जब भी जनहित के विरुद्ध प्रश्न उठा, त्यागपत्र दे दिया। महत्त्वपूर्ण त्यागपत्र इस कालान्तर में क्रमशः मार्च 1947, जनवरी 1948, अगस्त 1948, मार्च 1950, जनवरी 1951, नवम्बर 1957, अप्रैल 1959 तथा अगस्त 1963 में दिए। इसी प्रकार केन्द्रीय मंत्रीमण्डल से 1977-1978 में तीन बार त्यागपत्र दिए। प्रधानमन्त्री के रूप में चौ० चरणसिंह स्वयं एक छोटे से बंगले में रहे जो उनको सांसद के रूप में मिला था। प्रधानमंत्री की सभी शान शौकत उन्हें छू तक नहीं गई थी। उन जैसी सादगी देश के दूसरे बहुत कम नेताओं में देखने को मिलती है । यद्यपि वे अपने लम्बे जीवन में काफी समय तक मन्त्रिमण्डल में रहे हैं किन्तु सत्ता का नशा, भ्रष्टाचार, ऐशो-आराम व अय्याशी के वे प्रबल विरोधी रहे हैं। यही कारण है कि वह सामान्य गरीब जनता के हित में सोचते और यथाशक्ति उन पर निर्णय भी कराते रहे हैं।
डॉ० राममनोहर लोहिया ने सन् 1967 में कांग्रेस विरोधी मोर्चे का गठन कर आठ प्रदेशों से कांग्रेस को सत्ताच्युत कर दिया था। इसके पीछे उनकी मात्र धारणा यही थी कि देश के कुल मतों के एक-तिहाई द्वारा कांग्रेस शासन करती है और दो-तिहाई वाला विरोधी पक्ष टुकड़े-टुकड़े होकर विपक्ष में सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता। यदि सभी विपक्षी दल संगठित होकर कांग्रेस का विकल्प प्रस्तुत करें तो एक क्षण भी कांग्रेस सत्ता में नहीं रह सकती। सन् 1967 के गठबन्धन के बाद में विपक्षी एकता टूट गई और 10 वर्ष तक फिर कांग्रेस शासन करती रही। लेकिन चौ० चरणसिंह जो समय की गति को ठीक तरह देखना जानते थे, एकमात्र वह व्यक्ति थे, जो कांग्रेस त्यागने के बाद ही डॉ० लोहिया की आधारशिला पर महल खड़ा करने का सपना दिल में संजोये राजनीतिक पथ पर बढ़ते जा रहे थे।
चौधरी साहब कांग्रेस छोड़कर भारतीय क्रांतिदल, संयुक्त विधायक दल और भारतीय लोकदल (भालोद) बनाकर कांग्रेस के विकल्प का बीजारोपण करने में सफल हो गये। आपके सहयोगी राजनारायण, पीलू मोदी, बीजू पटनायक, कर्पूरी ठाकुर,चौधरी देवीलाल, रविराय आदि योग्य नेता थे। इन सबके सहयोग से चौधरी साहब ने उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, हरयाणा, राजस्थान व गुजरात तक अपना सबल अस्तित्व बना लिया।
तभी देशव्यापी असन्तोष, आसमान छूती हुई कीमतें, सिर तक डूबा हुआ भ्रष्टाचार, अभाव और अव्यवस्था के कारण प्रस्फुटित हुआ और गुजरात से आन्दोलन के रूप में छात्रों और नौजवानों ने शासन के विरुद्ध बगावत का झण्डा उठाया। उनकी मांग विधान सभा भंग करने की थी जो पूरी हुई। इस प्रकार देश को एक नई दिशा मिली और शनैः शनैः यह आंदोलन बिहार से लेकर सारे देश को हिलाने लगा। यह आन्दोलन युवा पीढ़ी ने उठाया था और पूर्णतया गैर राजनैतिक सीमाओं में रखने क निर्णय लिया गया था किन्तु पूर्णतया राजनैतिक बनता चला गया। इसका नेतृत्व बाबू जयप्रकाश को सौंपा गया जो आन्दोलन के राष्ट्रीयस्वरूप और दलविहीन लोकतंत्र के लिए चिंतित थे, वहीं दूसरी ओर चौधरी चरणसिंह आन्दोलन की अव्यावहारिकता बताते हुए विपक्षी राजनीति को एक मंच पर खड़ा करने को आतुर थे। इस प्रकार आपातकाल के एक वर्ष पूर्व की स्थिति में देश में दो विचारधाराओं का साथ-साथ प्रादुर्भाव हुआ। अन्त में जे० पी० को चौधरी साहब के विचारों को मानना पड़ा।
चौ० चरणसिंह ने जे० पी० से अनुरोध किया कि वह संगठन कांग्रेस, जनसंघ एवं सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर हमारे भारतीय लोकदल का नेतृत्व करें ताकि कांग्रेस को पराजित किया जा सके। किन्तु इस बात से जे० पी० सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि सभी प्रजातांत्रिक दलों को मिलाकर एक संघीय दल का गठन किया जाना चाहिए। किन्तु जब गुजरात के विधान सभा चुनावों में यह प्रयोग (संयुक्त मोर्चा रूप) असफल हो गया तो नए दल के गठन के पक्ष में वातावरण तैयार हुआ। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि कांग्रेस विकल्प के लिए नये दल के गठन के पक्ष में प्रारम्भ से यदि कोई प्रयत्नशील था तो वह भारतीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी चरणसिंह का दूरदर्शी व्यक्तित्व था। बीजू पटनायक का कहना था -
“जितने पूर्वाग्रहों, संकोचों, हिचकिचाहटों तथा जानी अनजानी भयंकर प्रसव पीड़ाओं को भोगने के बाद जनता पार्टी का जन्म संभव हुआ था। विलय की उन समस्त प्रतिक्रियाओं की जब जब याद आती है, तो अनायास ही मेरा मन चौ० चरणसिंह जी के प्रति आदर, श्रद्धा एवं उपकार भावना से जुड़ जाता है। यदि चौधरी साहब कांग्रेस के विकल्प की सिद्धि के प्रति इतने समर्पित, भावुक और प्रतिबद्ध नहीं होते तो क्या देश तानाशाही के शिकंजे से इतनी जल्दी मुक्ति पा सकता था?”
सभी दलों के एकीकरण सम्बन्धी चौधरी साहब के प्रस्ताव के लिए सभी दलों की बैठक बुलाई जाने वाली थी तभी 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी और इस प्रयास को एक बार झकझोर दिया।
इंदिरा गांधी सरकार ने चौ० चरणसिंह को 25 जून रात्रि, 1975 को तिहाड़ जेल में बन्द कर दिया। जयप्रकाश, मोरारजी, राज नारायण, देवीलाल आदि हरियाणा में कैद थे। तभी नानाजी देशमुख और सत्यपाल मलिक देशभर के विपक्षी दलों के कार्यकर्त्ताओं के नाम परिपत्र भेजकर-गिरफ्तारी देने और जेल भरो आन्दोलन तथा भूमिगत आन्दोलन को सक्रिय बनाने के लिए संलग्न थे। इस दौरान में चौधरी साहब जेल से प्रकाशसिंह बादल के साथ वार्ता कर विलय के प्रश्न को आगे बढ़ाने के उत्सुक थे तथा अपने मिलने वालों से इस व्याकुलता को उजागर करते थे। वे तिहाड़ जेल से ही एक ही विपक्षी राजनैतिक पार्टी बनाने का भरपूर प्रयत्न करते रहे।
नवम्बर 1975 में बाबू जयप्रकाश को मरणासन्न स्थिति में पैरोल दी गई कि कहीं जेल में ही उनका जीवन समाप्त न हो जाये। लेकिन जे० पी० अपने इलाज के लिए सीधे अस्पताल में गये अतः विशेष प्रगति इस दिशा में संभव न हुई। पुनः मार्च 1976 में चौ० साहब को रिहा कर दिया गया। कैद से छूटने पर चौधरी साहब ने इंदिरा की तानाशाही सरकार के विरुद्ध अपना कार्य जोरों से चालू किया। आपने 23 मार्च 1976 को विपक्षी नेता के तौर पर उत्तरप्रदेश विधान सभा में गड़गड़ाहट उत्पन्न करने वाला भाषण दिया, जिससे कांग्रेसियों का दिल दहल गया। इस भाषण को प्रजातन्त्र के प्रेमी सदा याद रखेंगे।
चौ० चरणसिंह ने बम्बई में, बाहर रहने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की, एक बैठक अपने निर्देशन में बुलाई, जिसमें एक समिति का गठन इस विलय प्रक्रिया को आगे बढ़ाने हेतु किया गया। इस समिति के सर्वश्री एन० जी० गौरे संयोजक तथा एच० एम० पटेल, शांतिभूषण और ओ० पी० त्यागी सदस्य थे। इस समिति को जयप्रकाश जी का भी आशीर्वाद प्राप्त था। चौधरी साहब ने इसके तुरन्त बाद 4-5 अप्रैल को भालोद की राष्ट्रीय समिति की बैठक बुलाई। जिसमें इस समिति के महत्त्व की समीक्षा करते हुए कांग्रेस का विकल्प तैयार करने हेतु भालोद द्वारा अपना सर्वस्व त्याग कर आगे आने की पेशकश की गयी और निर्णय से संयोजक समन्वय समिति को अवगत करा दिया गया। इसके पश्चात् विलय के विषय में अनेक बैठकें हुईं।
18 जनवरी 1977 को अचानक इंदिरा गांधी ने चुनाव घोषणा कर विपक्ष को संकट में डाल दिया। 19 जनवरी को मोरारजी देसाई जेल से रिहा हुए। रात को मोरारजी के निवास पर सभी दलों के नेताओं की बैठक हुई जिसमें चरणसिंह, अटलबिहारी, सुरन्द्रमोहन, पीलू मोदी, नानाजी देशमुख,एन० जी० गोरे व अशोक मेहता शामिल हुए और देसाई ने अध्यक्षता की। बैठक में गतिरोध पैदा हो गया। पहले मुरारजी ने मोर्चे की पेशकश की तब चौधरी व गोरे ने इस पर उत्तेजित होकर कड़ा रुख अपनाया तो वह अध्यक्ष पद के लिए अड़ गए, बात आगे बढ़ गई। जे० पी० को दिल्ली फिर बुलाया गया, उन्होंने फैसला कर दिया - “यदि विलय करके एक दल नहीं बनाया जाता तो मैं चुनाव प्रचार नहीं करूंगा।” इस पर मोरारजी झुके किन्तु अध्यक्ष पद छोड़ने को तैयार न थे। अतः जे० पी० ने निर्णय दिया कि “मोरारजी अध्यक्ष, चौ० चरणसिंह एकमात्र उपाध्यक्ष हैं और क्योंकि चौधरी का उत्तर भारत में सर्वाधिक प्रभाव है अतः चुनाव प्रचार, प्रत्याशियों का चयन और समस्त रणनीति वही तैयार करेंगे।” भालोद और उसके नेता चौ० चरणसिंह ने अपने एक-सूत्रीय कार्यक्रम को पूरा होते देखा तो सब कुछ समर्पित कर जे० पी० से सहमति व्यक्त कर दी। 23 जनवरी 1977 को देसाई के 5 डूप्ले रोड स्थित निवास पर जनता पार्टी के गठन की घोषणा के साथ चौधरी के 3 वर्ष पुराने भागीरथ प्रयास सफल हो गए। 21 माह तक आपातकाल स्थिति रहने के बाद 1977 में देश में आम चुनाव हुए।
यह चुनाव भालोद के नामांकन पत्र व सदस्यता पर ही लड़ा गया क्योंकि चुनाव आयोग ने जनता पार्टी को मान्यता नहीं दी थी। साथ ही इस चुनाव का नेतृत्व एकमात्र चौधरी चरणसिंह ने किया और अभूतपूर्व सफलता दिलाई जिसके परिणामस्वरूप 23 मार्च, 1977 को जनता पार्टी शासन की स्थापना हुई और कांग्रेस का विकल्प देश के सामने आया। इन्दिरा गांधी ने 21 मार्च, 1977 को आपातकाल उठाने की घोषणा कर दी।
जयप्रकाश बाबू और आचार्य कृपलानी ने जनता सरकार का प्रथम प्रधानमन्त्री मोरारजी भाई को घोषित कर दिया। चौ० चरणसिंह को गृहमन्त्री नियुक्त किया गया। मोरारजी ने अपने मन्त्रिमण्डल में कई मन्त्रियों को शामिल करके उनको भिन्न-भिन्न विभाग सौंप दिये।
साभार: चौ.श्यामपाल सिंह, शामली (यूपी)
- 1960 में उत्तर प्रदेश के बने गृहमंत्री
- माफी का अधिकार भी सिपाही के पास ही
- झूठी गवाही नहीं देनी होगी
- रेडियो यंत्र गस्ती
सभी महानगरों में रेडियो यंत्रयुक्त गश्ती पुलिस की व्यवस्था कराई जो सर्वप्रथम लखनऊ व कानपुर से शुरु हुई। इससे नागरिक सुरक्षा में वृद्धि हुई। सब-इन्सपेक्टरों की नियुक्ति के नियमों में भी इस प्रकार परिवर्तन किया कि योग्य व गरीब परिवारों के युवकों को मौका मिल सका। इसी सन्दर्भ में ट्रेनिंग कालिज मुरादाबाद में प्रशिक्षणार्थियों द्वारा जमा करने वाली राशि 1000/- रुपया को रद्द करके मासिक व्यय के लिए 80/- रुपये की व्यवस्था सरकारी स्तर पर कर दी गई।
- मृतक आश्रित को वेतन व पेंशन का लाभ
मार्च 1962 में पुलिस बजट प्रस्तुत करते हुए घोषणा की कि अराजपत्रित पुलिस कर्मचारियों के मुठभेड़ में मारे जाने या अन्यत्र कार्यपालन में मृत्यु होने पर उनके उत्तरजीवियों को उसकी पूरी आय (मासिक वेतन वृद्धि सहित) दी जाती रहेगी तथा पेन्शन भी दी जायेगी।
- अफसरों को दंड
थानों में सही रिपोर्ट दर्ज कराने और रिपोर्ट के आधार पर थाने की कुशलता आंकने की व्यवस्था की, जिससे अपराधों की सही स्थिति ज्ञात हो सकी। इसी प्रकार की गलतियों पर बड़े अधिकारियों को अधिक दण्ड देने का प्रावधान किया तथा तरक्की, नियुक्ति व तबादले के सन्दर्भ में किसी भी सिफारिश को पूर्णतः नजरअंदाज करने के लिए कहा। प्रतिफलस्वरूप 1961 में सब-इन्स्पेक्टरों की नियुक्ति के सन्दर्भ में स्वयं आई० जी० पुलिस ने घोषणा की कि इस वर्ष एक भी सिफारिश प्राप्त नहीं हुई।
सन् 1962 में मेरठ के एक कांग्रेसी पर मुकदमा चलाने के आरोप में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (जो पूर्णतया उचित था) का स्थानांतरण मुख्यमन्त्री ने कर दिया। बाद में गुप्तचर विभाग ने उस कांग्रेसी को दोषी ठहराया तो मुख्यमण्त्री के निर्णय के विरोध में चौधरी चरणसिंह ने गृहमन्त्रालय से त्यागपत्र दे दिया तथा कहा कि यदि कर्त्तव्यपालन में संलग्न किसी अधिकारी को मैं संरक्षण नहीं दे सकता तो इस पद पर रहने का मेरा कोई औचित्य नहीं है।
- इस्तीफा दिया
- गौहत्या अधिनियम
पशुपालन विभाग में रहकर चौ० चरणसिंह ने 1954 में मवेशी अतिक्रमण अधिनियम 1955 को संशोधित किया। उत्तरप्रदेश में गोहत्या निवारण अधिनियम की तैयारी कर उसे 1955 में अधिनियम का रूप दिया। प्रदेश गोशाला अधिनियम तथा 1964 का मवेशी सुधार अधिनियम बनना भी चौ० साहब की उपलब्धि थी। 1953-54 में मवेशी मंडियों के नियन्त्रण के लिए एक विशेष विधेयक तैयार कराया, जो देश के स्तर पर पहला कदम था, किन्तु पंत जी दिल्ली चले गये, चौधरी साहब का विभाग बदल गया, फिर इसे अन्तिम रूप न मिल सका।
- बस संचालन में छूट
आपने परिवहन विभाग में रहकर बसों तथा सार्वजनिक वाहनों के संचालन में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के अनेक कार्य किये। एक से अधिक परमिट देने पर रोक लगा दी गई। नाबालिग स्त्री, अपंग व विधवाओं को उपरोक्त स्थितियों में छूट दी गई।
सन् 1958 में वित्त विभाग संभालने पर चौधरी साहब ने सार्वजनिक धन की बर्बादी को रोकने के कारगर उपाय किए। खाद्यान्न व्यापारियों पर लगाये जाने वाले विक्रय की पुरानी प्रणाली को पूर्णतया संशोधित किया।
- विभाग वापस
सन् 1958-59 में चार माह के लिए सिंचाई व ऊर्जा विभाग देखा। जब इन क्षेत्रों में भ्रष्टाचार की जांच शुरु की तो उनसे विभाग वापिस लिया गया। इसका कारण यह भी था कि चौधरी साहब ने रिहन्ध बांध परियोजना से प्राप्त समस्त विद्युत शक्ति के आधे से अधिक बिजली, बिड़ला परिवारों को अल्यूमिनियम कारखाने के लिए देने का कड़ा विरोध किया, जो मुख्यमन्त्री डा० सम्पूर्णानन्द को अखर गया। जलमार्गों के निर्माण कार्य भी, जिसके कारण करोड़ों रुपये के नलकूप कई वर्ष से बेकार खड़े थे, आप की विशेष उपलब्धि है।
चौधरी चणसिंह ने वन विभाग में रहकर वनभूमि पर अनधिकृत कब्जे सख्ती से रोके और बेदखली कानून सरल किया। निजी वनभूमि के असंख्य टुकड़े मालिकों को दे दिये तथा प्रशासन योग्य क्षेत्र ही अपने पास रखे। लगभग 1600 वर्गमील जंगल जो कि जिला के प्रशासन से सम्बद्ध थे तथा बेकार हो गये थे, वन विभाग में शामिल कर दिये गये। यमुना, चम्बल की घाटियों को जंगल बनाने की योजना तैयार की, जिसने तमाम उपजाऊ भूमि के कटाव को रोकने तथा अपार वनसम्पदा देने का कार्य किया। 1966 में वन विभाग ने स्वयं सड़कों पर वृक्षारोपण का कार्य किया। जमींदारों के लिये वनों के विकास को द्रुतगामी गति प्रदान की तथा टेहरी क्षेत्र में प्राप्त वनों के संरक्षण का असाध्य प्रश्न जो 15 वर्ष से अनिर्णीत पड़ा था, एक अधिनियम द्वारा हल कर दिया गया।
- वन विभाग की भूमि पर कब्जे रुकवाए
- मुख्यमंत्री बने
सन् 1970 में चौ० चरणसिंह ने अपने भारतीय क्रान्ति दल (BKD) के साथ इन्दिरा कांग्रेस को मिलाकर उत्तरप्रदेश में संयुक्त मन्त्रिमण्डल बनाया जिसके मुख्यमन्त्री थे। उस समय अध्यादेश द्वारा घोषणा की कि शिक्षा संस्थाओं में विवश विद्यार्थी संघ नहीं होगा। ये सब संघ इच्छापूर्वक प्रकार से होंगे। इसके फलस्वरूप कोई हड़ताल न हुई, नकलें न हुईं, लड़कियों के साथ छेड़छाड़ बन्द हो गई और इसके बाद पहली बार शिक्षा संस्थाओं में आजादी से पढ़ाई होने लगी तथा उपस्थिति में वृद्धि हुई। चौ० चरणसिंह को संस्थाओं के अध्यक्षों की ओर से बड़ी संख्या में तार व पत्र मिले जिनमें लिखा गया था कि आपके इस उपाय से विद्यार्थी संघ तथा अध्यापकों के लिये बड़ा लाभ प्राप्त हुआ है।
चौ० साहब ने इसी तरह से गुण्डा नियंत्रण अधिनियम बनाया। यह एक्ट पास भी न हुआ था, केवल इस अधिनियम की सरकार द्वारा विचार करने की सूचना सुनकर, गुण्डे जो अपने पास चाकू लिये सड़कों पर एकत्र हो जाते थे, सब अदृश्य हो गये और कहीं भी दिखाई नहीं दिये। ऐसे उदाहरण अवश्य थे कि माता-पिता अपने बच्चों को विशेषकर लड़कियों को बाहर नहीं जाने देते थे, किन्तु यह अध्यादेश जारी होने पर वे अपने बच्चों को शिक्षा संस्थाओं में भेजने लगे।
- गुंडा एक्ट बनाया
- कौमी उपद्रव नहीं होने दिए
गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार और मध्यप्रदेश प्रान्तों में भयंकर कौमी उपद्रव हुए किन्तु चौ० चरणसिंह के शासनकाल में उत्तरप्रदेश में, जहां मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक है, इस तरह का कौमी झगड़ा एक भी न हुआ। जितने समय चौ० चरणसिंह सरकार में रहे, किसी कारखाने में या सरकारी कर्मचारियों द्वारा पूरे उत्तरप्रदेश में एक भी हड़ताल नहीं हुई।
- मंत्रियों का वेतन घटाया
चौ० चरणसिंह ने मंत्रियों के सादा जीवन के लिए सदा आवाज़ उठाई, मंत्रियों का वेतन घटाकर 1000/- रुपये प्रति मास, प्रयोग के लिए छोटी अम्बेसेडर कार, ट्रेन यात्रा में पीएसी गार्द की समाप्ति के निर्णय कराये। प्रधानमंत्रित्व काल में भी श्यामनंदन मिश्र के संयोजकत्व में एक समिति गठित की, जो मंत्रियों के भारी व्यय पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से गठित की गई थी।
- जनहित के लिए दिए त्यागपत्र
चौ० चरणसिंह ने अपने मंत्रीपद को सदैव जनसेवा का अवसर मानकर कार्य किया और त्यागपत्र सदैव साथ लेकर चले और जब भी जनहित के विरुद्ध प्रश्न उठा, त्यागपत्र दे दिया। महत्त्वपूर्ण त्यागपत्र इस कालान्तर में क्रमशः मार्च 1947, जनवरी 1948, अगस्त 1948, मार्च 1950, जनवरी 1951, नवम्बर 1957, अप्रैल 1959 तथा अगस्त 1963 में दिए। इसी प्रकार केन्द्रीय मंत्रीमण्डल से 1977-1978 में तीन बार त्यागपत्र दिए। प्रधानमन्त्री के रूप में चौ० चरणसिंह स्वयं एक छोटे से बंगले में रहे जो उनको सांसद के रूप में मिला था। प्रधानमंत्री की सभी शान शौकत उन्हें छू तक नहीं गई थी। उन जैसी सादगी देश के दूसरे बहुत कम नेताओं में देखने को मिलती है । यद्यपि वे अपने लम्बे जीवन में काफी समय तक मन्त्रिमण्डल में रहे हैं किन्तु सत्ता का नशा, भ्रष्टाचार, ऐशो-आराम व अय्याशी के वे प्रबल विरोधी रहे हैं। यही कारण है कि वह सामान्य गरीब जनता के हित में सोचते और यथाशक्ति उन पर निर्णय भी कराते रहे हैं।
- जनता पार्टी की उत्पत्ति
डॉ० राममनोहर लोहिया ने सन् 1967 में कांग्रेस विरोधी मोर्चे का गठन कर आठ प्रदेशों से कांग्रेस को सत्ताच्युत कर दिया था। इसके पीछे उनकी मात्र धारणा यही थी कि देश के कुल मतों के एक-तिहाई द्वारा कांग्रेस शासन करती है और दो-तिहाई वाला विरोधी पक्ष टुकड़े-टुकड़े होकर विपक्ष में सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता। यदि सभी विपक्षी दल संगठित होकर कांग्रेस का विकल्प प्रस्तुत करें तो एक क्षण भी कांग्रेस सत्ता में नहीं रह सकती। सन् 1967 के गठबन्धन के बाद में विपक्षी एकता टूट गई और 10 वर्ष तक फिर कांग्रेस शासन करती रही। लेकिन चौ० चरणसिंह जो समय की गति को ठीक तरह देखना जानते थे, एकमात्र वह व्यक्ति थे, जो कांग्रेस त्यागने के बाद ही डॉ० लोहिया की आधारशिला पर महल खड़ा करने का सपना दिल में संजोये राजनीतिक पथ पर बढ़ते जा रहे थे।
- कांग्रेस का विरोध खड़ा किया
चौधरी साहब कांग्रेस छोड़कर भारतीय क्रांतिदल, संयुक्त विधायक दल और भारतीय लोकदल (भालोद) बनाकर कांग्रेस के विकल्प का बीजारोपण करने में सफल हो गये। आपके सहयोगी राजनारायण, पीलू मोदी, बीजू पटनायक, कर्पूरी ठाकुर,चौधरी देवीलाल, रविराय आदि योग्य नेता थे। इन सबके सहयोग से चौधरी साहब ने उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, हरयाणा, राजस्थान व गुजरात तक अपना सबल अस्तित्व बना लिया।
- जे पी आंदोलन
तभी देशव्यापी असन्तोष, आसमान छूती हुई कीमतें, सिर तक डूबा हुआ भ्रष्टाचार, अभाव और अव्यवस्था के कारण प्रस्फुटित हुआ और गुजरात से आन्दोलन के रूप में छात्रों और नौजवानों ने शासन के विरुद्ध बगावत का झण्डा उठाया। उनकी मांग विधान सभा भंग करने की थी जो पूरी हुई। इस प्रकार देश को एक नई दिशा मिली और शनैः शनैः यह आंदोलन बिहार से लेकर सारे देश को हिलाने लगा। यह आन्दोलन युवा पीढ़ी ने उठाया था और पूर्णतया गैर राजनैतिक सीमाओं में रखने क निर्णय लिया गया था किन्तु पूर्णतया राजनैतिक बनता चला गया। इसका नेतृत्व बाबू जयप्रकाश को सौंपा गया जो आन्दोलन के राष्ट्रीयस्वरूप और दलविहीन लोकतंत्र के लिए चिंतित थे, वहीं दूसरी ओर चौधरी चरणसिंह आन्दोलन की अव्यावहारिकता बताते हुए विपक्षी राजनीति को एक मंच पर खड़ा करने को आतुर थे। इस प्रकार आपातकाल के एक वर्ष पूर्व की स्थिति में देश में दो विचारधाराओं का साथ-साथ प्रादुर्भाव हुआ। अन्त में जे० पी० को चौधरी साहब के विचारों को मानना पड़ा।
- जेपी को प्रस्ताव
चौ० चरणसिंह ने जे० पी० से अनुरोध किया कि वह संगठन कांग्रेस, जनसंघ एवं सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर हमारे भारतीय लोकदल का नेतृत्व करें ताकि कांग्रेस को पराजित किया जा सके। किन्तु इस बात से जे० पी० सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि सभी प्रजातांत्रिक दलों को मिलाकर एक संघीय दल का गठन किया जाना चाहिए। किन्तु जब गुजरात के विधान सभा चुनावों में यह प्रयोग (संयुक्त मोर्चा रूप) असफल हो गया तो नए दल के गठन के पक्ष में वातावरण तैयार हुआ। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि कांग्रेस विकल्प के लिए नये दल के गठन के पक्ष में प्रारम्भ से यदि कोई प्रयत्नशील था तो वह भारतीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी चरणसिंह का दूरदर्शी व्यक्तित्व था। बीजू पटनायक का कहना था -
“जितने पूर्वाग्रहों, संकोचों, हिचकिचाहटों तथा जानी अनजानी भयंकर प्रसव पीड़ाओं को भोगने के बाद जनता पार्टी का जन्म संभव हुआ था। विलय की उन समस्त प्रतिक्रियाओं की जब जब याद आती है, तो अनायास ही मेरा मन चौ० चरणसिंह जी के प्रति आदर, श्रद्धा एवं उपकार भावना से जुड़ जाता है। यदि चौधरी साहब कांग्रेस के विकल्प की सिद्धि के प्रति इतने समर्पित, भावुक और प्रतिबद्ध नहीं होते तो क्या देश तानाशाही के शिकंजे से इतनी जल्दी मुक्ति पा सकता था?”
- आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक
सभी दलों के एकीकरण सम्बन्धी चौधरी साहब के प्रस्ताव के लिए सभी दलों की बैठक बुलाई जाने वाली थी तभी 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी और इस प्रयास को एक बार झकझोर दिया।
- तिहाड़ जेल यात्रा
इंदिरा गांधी सरकार ने चौ० चरणसिंह को 25 जून रात्रि, 1975 को तिहाड़ जेल में बन्द कर दिया। जयप्रकाश, मोरारजी, राज नारायण, देवीलाल आदि हरियाणा में कैद थे। तभी नानाजी देशमुख और सत्यपाल मलिक देशभर के विपक्षी दलों के कार्यकर्त्ताओं के नाम परिपत्र भेजकर-गिरफ्तारी देने और जेल भरो आन्दोलन तथा भूमिगत आन्दोलन को सक्रिय बनाने के लिए संलग्न थे। इस दौरान में चौधरी साहब जेल से प्रकाशसिंह बादल के साथ वार्ता कर विलय के प्रश्न को आगे बढ़ाने के उत्सुक थे तथा अपने मिलने वालों से इस व्याकुलता को उजागर करते थे। वे तिहाड़ जेल से ही एक ही विपक्षी राजनैतिक पार्टी बनाने का भरपूर प्रयत्न करते रहे।
- जेपी को पैरोल
नवम्बर 1975 में बाबू जयप्रकाश को मरणासन्न स्थिति में पैरोल दी गई कि कहीं जेल में ही उनका जीवन समाप्त न हो जाये। लेकिन जे० पी० अपने इलाज के लिए सीधे अस्पताल में गये अतः विशेष प्रगति इस दिशा में संभव न हुई। पुनः मार्च 1976 में चौ० साहब को रिहा कर दिया गया। कैद से छूटने पर चौधरी साहब ने इंदिरा की तानाशाही सरकार के विरुद्ध अपना कार्य जोरों से चालू किया। आपने 23 मार्च 1976 को विपक्षी नेता के तौर पर उत्तरप्रदेश विधान सभा में गड़गड़ाहट उत्पन्न करने वाला भाषण दिया, जिससे कांग्रेसियों का दिल दहल गया। इस भाषण को प्रजातन्त्र के प्रेमी सदा याद रखेंगे।
- विलय को बैठक
चौ० चरणसिंह ने बम्बई में, बाहर रहने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की, एक बैठक अपने निर्देशन में बुलाई, जिसमें एक समिति का गठन इस विलय प्रक्रिया को आगे बढ़ाने हेतु किया गया। इस समिति के सर्वश्री एन० जी० गौरे संयोजक तथा एच० एम० पटेल, शांतिभूषण और ओ० पी० त्यागी सदस्य थे। इस समिति को जयप्रकाश जी का भी आशीर्वाद प्राप्त था। चौधरी साहब ने इसके तुरन्त बाद 4-5 अप्रैल को भालोद की राष्ट्रीय समिति की बैठक बुलाई। जिसमें इस समिति के महत्त्व की समीक्षा करते हुए कांग्रेस का विकल्प तैयार करने हेतु भालोद द्वारा अपना सर्वस्व त्याग कर आगे आने की पेशकश की गयी और निर्णय से संयोजक समन्वय समिति को अवगत करा दिया गया। इसके पश्चात् विलय के विषय में अनेक बैठकें हुईं।
- चुनाव की घोषणा
18 जनवरी 1977 को अचानक इंदिरा गांधी ने चुनाव घोषणा कर विपक्ष को संकट में डाल दिया। 19 जनवरी को मोरारजी देसाई जेल से रिहा हुए। रात को मोरारजी के निवास पर सभी दलों के नेताओं की बैठक हुई जिसमें चरणसिंह, अटलबिहारी, सुरन्द्रमोहन, पीलू मोदी, नानाजी देशमुख,एन० जी० गोरे व अशोक मेहता शामिल हुए और देसाई ने अध्यक्षता की। बैठक में गतिरोध पैदा हो गया। पहले मुरारजी ने मोर्चे की पेशकश की तब चौधरी व गोरे ने इस पर उत्तेजित होकर कड़ा रुख अपनाया तो वह अध्यक्ष पद के लिए अड़ गए, बात आगे बढ़ गई। जे० पी० को दिल्ली फिर बुलाया गया, उन्होंने फैसला कर दिया - “यदि विलय करके एक दल नहीं बनाया जाता तो मैं चुनाव प्रचार नहीं करूंगा।” इस पर मोरारजी झुके किन्तु अध्यक्ष पद छोड़ने को तैयार न थे। अतः जे० पी० ने निर्णय दिया कि “मोरारजी अध्यक्ष, चौ० चरणसिंह एकमात्र उपाध्यक्ष हैं और क्योंकि चौधरी का उत्तर भारत में सर्वाधिक प्रभाव है अतः चुनाव प्रचार, प्रत्याशियों का चयन और समस्त रणनीति वही तैयार करेंगे।” भालोद और उसके नेता चौ० चरणसिंह ने अपने एक-सूत्रीय कार्यक्रम को पूरा होते देखा तो सब कुछ समर्पित कर जे० पी० से सहमति व्यक्त कर दी। 23 जनवरी 1977 को देसाई के 5 डूप्ले रोड स्थित निवास पर जनता पार्टी के गठन की घोषणा के साथ चौधरी के 3 वर्ष पुराने भागीरथ प्रयास सफल हो गए। 21 माह तक आपातकाल स्थिति रहने के बाद 1977 में देश में आम चुनाव हुए।
- भालोद के नामांकन पर लड़ा चुनाव
यह चुनाव भालोद के नामांकन पत्र व सदस्यता पर ही लड़ा गया क्योंकि चुनाव आयोग ने जनता पार्टी को मान्यता नहीं दी थी। साथ ही इस चुनाव का नेतृत्व एकमात्र चौधरी चरणसिंह ने किया और अभूतपूर्व सफलता दिलाई जिसके परिणामस्वरूप 23 मार्च, 1977 को जनता पार्टी शासन की स्थापना हुई और कांग्रेस का विकल्प देश के सामने आया। इन्दिरा गांधी ने 21 मार्च, 1977 को आपातकाल उठाने की घोषणा कर दी।
- मोरारजी बने प्रधानमंत्री
जयप्रकाश बाबू और आचार्य कृपलानी ने जनता सरकार का प्रथम प्रधानमन्त्री मोरारजी भाई को घोषित कर दिया। चौ० चरणसिंह को गृहमन्त्री नियुक्त किया गया। मोरारजी ने अपने मन्त्रिमण्डल में कई मन्त्रियों को शामिल करके उनको भिन्न-भिन्न विभाग सौंप दिये।
साभार: चौ.श्यामपाल सिंह, शामली (यूपी)
बहुत सुंदर
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