Chaudhry Mahendra Tikait : किसानों का क्रांतिदूत चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत
- किसानों का क्रांतिदूत : चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत
(6 अक्टूबर 1935 – 15 मई 2011)
- किसानों को हकों के लिए संघर्ष करने के रास्ते पर लाए टिकैत
किसान मसीहा चौधरी महेंद्र टिकैत
का जन्म मुजफ्फरनगर के कस्बा सिसौली में 6 अक्टूबर 1935 में एक जाट परिवार
में हुआ था। गांव के ही जूनियर हाईस्कूल में कक्षा सात तक पढ़ाई की। उनके
पिता का नाम चौधरी चौहल सिंह टिकैत और माता जी श्रीमती मुख्त्यारी देवी
थीं। चौधरी चौहल सिंह टिकैत बालियान खाप के चौधरी थे। चौधरी
महेन्द्र सिंह टिकैत को एक जुझारु किसान नेता के तौर पर पूरी दुनिया
जानती है लेकिन यह व्यक्ति एक दिन में या किसी की कृपा से 'किसानों का
मसीहा' नहीं बन गया बल्कि सच तो यह है कि कभी इस शख्सीयत ने धूप-छांव,
भूख-प्यास, लाठी-जेल की परवाह नहीं की। अगर अपने कदमों को किसान संघर्ष के
लिए बाहर निकाल दिया तो फिर कभी पीठ नहीं दिखाई चौधरी साहब किसानों के
सच्चे हितैषी और किसानों को उनका हक दिलाने के लिए सदैव तत्पर रहते थे।
भारतीय किसान यूनियन की नींव रखकर चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने देश में किसान आंदोलनों को नई ताकत दी थी। उन्होंने खेतीबाड़ी के फर्ज के साथ किसानों को अपने हकों के लिए संघर्ष करने का हौसला दिया। उनकी बात और उनके कद जैसा दूसरा किसान नेता अभी तक देश के सामने नहीं आया है। टिकैत के मेरठ आंदोलन में आए लाखों लोगों ने अनुशासन और एकता की मिसाल बनाई। हर वक्त 50 हजार से ज्यादा की भीड़ और कहीं कोई मारपीट नहीं, किसी ठेले वाले से लूट नहीं, किसी महिला से कोई छेड़छाड़ नहीं। गांव-गांव से घर-घर से धरने के लिए देसी घी की पूडियां, सब्जी, छाछ , गुड और दूध हर रोज मेरठ लाया जाता था। पुलिसवाले, ठेली खोमचे वाले और रिक्शे वाले भी यहां किसानों के साथ ही खाते-पीते थे। तथा पुलिस व प्रशासन के धरने पर ड्यूटी कर रहे कर्मचारियों को भी साथ खिलाते थे
चौधरी टिकैत की हुंकार पर एक मार्च, 1987 को करमूखेड़ी में ही प्रदर्शन को गए किसानों को रोकने के लिए पुलिस ने फायरिंग कर दी, जिसमें किसान जयपाल सिंह शहीद हो गए थे। चौधरी टिकैत की आवाज पर लाखों किसान जुटने लगे। भाकियू का असर इतना दमदार हो गया कि तत्कालीन यूपी के सीएम वीर बहादुर सिंह को करमूखेड़ी की घटना पर अफसोस दर्ज कराने के लिए 11 अगस्त को सिसौली आना पड़ा था।
कसबे के इंदर की दुकान से वह खादी खरीदते थे। भाकियू का रणसिंघा जब भी बजता, वह भी किसानों के कारवां में शामिल हो जाते थे। मित्रता का लगाव इतना बना कि किसान आंदोलन में जब भी जाते, वे पहले से बैग में एक नया कुर्ता लेकर चलता था। हैदराबाद में प्रदर्शन के दौरान चौधरी टिकैत का कुर्ता फट गया। बोले, पंडित जी अब क्या होगा? पंडित जी ने बैग से कुर्ता निकाला और पहनवा दिया। जिंदगी की अंतिम सांस तक उनका साथ बना रहा।
- अब किसान आंदोलन की वो बुलंद आवाज नहीं
भारतीय किसान यूनियन की नींव रखकर चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने देश में किसान आंदोलनों को नई ताकत दी थी। उन्होंने खेतीबाड़ी के फर्ज के साथ किसानों को अपने हकों के लिए संघर्ष करने का हौसला दिया। उनकी बात और उनके कद जैसा दूसरा किसान नेता अभी तक देश के सामने नहीं आया है। टिकैत के मेरठ आंदोलन में आए लाखों लोगों ने अनुशासन और एकता की मिसाल बनाई। हर वक्त 50 हजार से ज्यादा की भीड़ और कहीं कोई मारपीट नहीं, किसी ठेले वाले से लूट नहीं, किसी महिला से कोई छेड़छाड़ नहीं। गांव-गांव से घर-घर से धरने के लिए देसी घी की पूडियां, सब्जी, छाछ , गुड और दूध हर रोज मेरठ लाया जाता था। पुलिसवाले, ठेली खोमचे वाले और रिक्शे वाले भी यहां किसानों के साथ ही खाते-पीते थे। तथा पुलिस व प्रशासन के धरने पर ड्यूटी कर रहे कर्मचारियों को भी साथ खिलाते थे
- मुख्यमंत्री मायावती को अपशब्द कहने पर आई थी संघर्ष की नौबत
- करमूखेड़ी बिजलीघर आंदोलन ने भाकियू को बनाया आक्रमक
चौधरी टिकैत की हुंकार पर एक मार्च, 1987 को करमूखेड़ी में ही प्रदर्शन को गए किसानों को रोकने के लिए पुलिस ने फायरिंग कर दी, जिसमें किसान जयपाल सिंह शहीद हो गए थे। चौधरी टिकैत की आवाज पर लाखों किसान जुटने लगे। भाकियू का असर इतना दमदार हो गया कि तत्कालीन यूपी के सीएम वीर बहादुर सिंह को करमूखेड़ी की घटना पर अफसोस दर्ज कराने के लिए 11 अगस्त को सिसौली आना पड़ा था।
- मेरठ कमिश्नरी के धरना को मिली दुनियाभर में सुर्खियां
- खादी का कुर्ता और धोती रहा ताउम्र पहनावा
कसबे के इंदर की दुकान से वह खादी खरीदते थे। भाकियू का रणसिंघा जब भी बजता, वह भी किसानों के कारवां में शामिल हो जाते थे। मित्रता का लगाव इतना बना कि किसान आंदोलन में जब भी जाते, वे पहले से बैग में एक नया कुर्ता लेकर चलता था। हैदराबाद में प्रदर्शन के दौरान चौधरी टिकैत का कुर्ता फट गया। बोले, पंडित जी अब क्या होगा? पंडित जी ने बैग से कुर्ता निकाला और पहनवा दिया। जिंदगी की अंतिम सांस तक उनका साथ बना रहा।
- लाठी बंदूकें किसान की राह नहीं रोक सकतीं'
किसानों के बीच उनकी साख का अंदाजा इस बात
से लगाया जा सकता है कि उनकी एक आवाज पर लाखों किसानों की भीड़ इकठ्ठा हो
जाती थी। जहां बैठकर हुक्का गुडगुडा देते वहां किसान और कमेरे वर्ग के
हुजूम जुड़ जाता, जहां आते जाते खड़े हो जाते हैं वहां पंचायत शुरू हो जाती
थी उनकी रैली और धरनों में भोजन की व्यवस्था हमेशा साथ रहती ग्रामीण
क्षेत्रों से भी अन्य जल भोजन की व्यवस्था सुचारू रहती थी।
- किसानों के हितों के प्रति सरकार को ललकार
मुख्यधारा की राजनीति से खुद को अलग रखकर
टिकैत ने किसानों के लिए जो किया वो एक मिसाल है। सरकार ने तो बोल दिया है,
लेकिन जनता न तो चुप बैठेगी, न भय खाएगी। जो आदमी मान-सम्मान, प्रतिष्ठा
और मर्यादा के साथ जिंदगी जीना चाहे उसे जीने दिया जाए, हम यही चाहते हैं।
सरकार को या किसी को भी जनता को ऐसा करने से रोकने का क्या अधिकार है? इस
देश में गरीब और असहाय लोगों की प्रतिष्ठा को ही सब लूटना चाहते हैं।
'द्वार बंद होंगे नादार (गरीब) के लिए, द्वार खुलेंगे दिलदार के लिए'। आदमी
इज्जत के लिए ही तो सब कुछ करता है। चाहे कोई भी इंसान हो, इज्जत से रहना
चाहता है।
किसानों की कर्जदारी की समस्या का स्थायी हल निकालने की जरुरत है।देश के किसान इस देश के मालिक है।उनकी जरूरतों को उनकी #मांग कहना ठीक नहीं है,मांग निर्लज्जता का शब्द है। किसान अपनी मर्जी का भी मालिक है।हम केवल इतना चाहते हैं कि जैसे देश में चीजों के दाम बढ़ रहे हैं उसी हिसाब से किसान की फसलों का भी मूल्य उसे मिले। जिससे वो सम्मान के साथ अपनी जिंदगी जी सके।
मजदूर और किसान दोनों सरकार की गलत नीतियों के कारण मारा जा रहा है। पहले खेतिहर मजदूर को दिन भर काम करने के तीन किलो अनाज मिला करते थे वो एक किलो घर में रखता था दो किलो बाजार में बेच आता था। अब अगर पांच किलो मिलते हैं तो वो चार किलो बाजार में देता है लेकिन बाजार में उसे दाम वही पुराने मिलते हैं।
किसानों की कर्जदारी की समस्या का स्थायी हल निकालने की जरुरत है।देश के किसान इस देश के मालिक है।उनकी जरूरतों को उनकी #मांग कहना ठीक नहीं है,मांग निर्लज्जता का शब्द है। किसान अपनी मर्जी का भी मालिक है।हम केवल इतना चाहते हैं कि जैसे देश में चीजों के दाम बढ़ रहे हैं उसी हिसाब से किसान की फसलों का भी मूल्य उसे मिले। जिससे वो सम्मान के साथ अपनी जिंदगी जी सके।
मजदूर और किसान दोनों सरकार की गलत नीतियों के कारण मारा जा रहा है। पहले खेतिहर मजदूर को दिन भर काम करने के तीन किलो अनाज मिला करते थे वो एक किलो घर में रखता था दो किलो बाजार में बेच आता था। अब अगर पांच किलो मिलते हैं तो वो चार किलो बाजार में देता है लेकिन बाजार में उसे दाम वही पुराने मिलते हैं।
- सरकारी तंत्र पर रखते थे पूर्णतया कब्ज़ा
इल्जाम भी उनके, हाकिम भी वह और ठंडे बंद
कमरे में सुनाया गया फैंसला भी उनका…..लेकिन एक बार परमात्मा मुझे बिस्तर
से उठा दे तो मैं इन्हें सबक सिखा दूंगा कि किसान के स्वाभिमान से
खिलबाड़ का क्या मतलब होता है…..’खाप_पंचायते किसानो के हक़ की लड़ाई लडती
है उनकी मांग उठाती है, राजनितिक कारणों से उनकी आवाज को दबाया जा रहा है !
तबदीली तो होती है, बहुत होती है। हमारे यहां भी बहुत तबदीली हुई। हमारी संस्कृति खत्म हो गई। हमारी देशी___गऊएं अब नहीं रहीं। हमारी जमीन बंजर हो गई। बस इनसान की नस्ल बची हुई है, उस पर भी धावा बोल दिया गया। अपनी नस्ल को भूल कर और उसे खत्म कर के कोई कैसे रह सकता है?
किसान बदला नहीं लेता, वह सब सह जाता है। वह तो जीने का अधिकार भर चाहता है, पुलिस ने जो जुल्म किया है, उससे किसानों का हौसला और बढ़ा है। किसान जानता है, सरकार ने दुश्मन सा व्यवहार किया है। हम तो दुश्मन का भी खाना—पानी बंद नहीं करते। किसानों की नाराजगी सरकार को सस्ती नहीं पड़ेगी। इसलिए उसे चेतने का हमने समय दिया है। किसान फिर लड़ेगा, फिर लड़ेगा। दोनों हाथों से लड़ेगा। सरकार की लाठी—बंदूकें किसान की राह नहीं रोक सकतीं।’
चाहे राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार किसान की परवाह न कर रहे हैं लेकिन आज का किसान जागरूक है।किसान की रोजी रोटी का सवाल जमीन से है अगर उसकी जमीन छीन गई तो वो कहाँ जाएगा? कुछ ऐसे नुकीले बाणों से अचूक प्रहार करते थे बाबा महेंद्र सिंह टिकैत।
मार्च 2011 में भारत मां के लाडले इस सच्चे धरतीपुत्र का स्वास्थ्य बिगड़ना आरंभ हुआ और 15 मई 2011 को इस महान किसान नेता ने मृत्यु का वरण कर लिया। बाबा टिकैत जैसा किसान हितों का रक्षक कोई दूसरा मिलना असम्भव है किसानों के दिलों में वह सदैव जीवित रहेंगे!
साभार : भारतीय किसान यूनियन, सिसौली (यूपी)
तबदीली तो होती है, बहुत होती है। हमारे यहां भी बहुत तबदीली हुई। हमारी संस्कृति खत्म हो गई। हमारी देशी___गऊएं अब नहीं रहीं। हमारी जमीन बंजर हो गई। बस इनसान की नस्ल बची हुई है, उस पर भी धावा बोल दिया गया। अपनी नस्ल को भूल कर और उसे खत्म कर के कोई कैसे रह सकता है?
किसान बदला नहीं लेता, वह सब सह जाता है। वह तो जीने का अधिकार भर चाहता है, पुलिस ने जो जुल्म किया है, उससे किसानों का हौसला और बढ़ा है। किसान जानता है, सरकार ने दुश्मन सा व्यवहार किया है। हम तो दुश्मन का भी खाना—पानी बंद नहीं करते। किसानों की नाराजगी सरकार को सस्ती नहीं पड़ेगी। इसलिए उसे चेतने का हमने समय दिया है। किसान फिर लड़ेगा, फिर लड़ेगा। दोनों हाथों से लड़ेगा। सरकार की लाठी—बंदूकें किसान की राह नहीं रोक सकतीं।’
चाहे राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार किसान की परवाह न कर रहे हैं लेकिन आज का किसान जागरूक है।किसान की रोजी रोटी का सवाल जमीन से है अगर उसकी जमीन छीन गई तो वो कहाँ जाएगा? कुछ ऐसे नुकीले बाणों से अचूक प्रहार करते थे बाबा महेंद्र सिंह टिकैत।
मार्च 2011 में भारत मां के लाडले इस सच्चे धरतीपुत्र का स्वास्थ्य बिगड़ना आरंभ हुआ और 15 मई 2011 को इस महान किसान नेता ने मृत्यु का वरण कर लिया। बाबा टिकैत जैसा किसान हितों का रक्षक कोई दूसरा मिलना असम्भव है किसानों के दिलों में वह सदैव जीवित रहेंगे!
साभार : भारतीय किसान यूनियन, सिसौली (यूपी)
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