Turki: तुर्की अब इस्लामी हो गया

तुर्की अब इस्लामी हो गया 

के. विक्रम राव

मुस्लिम मुल्कों के गुट का एक अकेला सेक्युलर राष्ट्र तुर्की अगले जुम्मे (24 जुलाई 2020) से इस्लामी राष्ट्र में पुनः ढल जाएगा| करीब 85 वर्ष बाद इस्ताम्बुल में धर्मनिरपेक्षता के जनप्रिय प्रतीक, पंद्रह शताब्दी वाले हाजिया सोफिया म्यूजियम से अजान गूंजेगी| “मोहम्मदुल रसूल अल्लाह” कहलवाया जाएगा| कट्टर मजहबी राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगन भी नमाज में शामिल होंगे| उधर, चार सौ किलोमीटर दूर राजधानी अंकारा के अनितकबीर स्मारक में दफ़न महान धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रपिता (अतातुर्क) मुस्तफा कमाल पाशा अपनी कब्र में व्याकुल हो रहे होंगे कि स्वराष्ट्र को कैसा प्रगतिवादी बनाया था। आज उग्रवादियों ने उसे कैसा कदीमी बना डाला। 
99 प्रतिशत मुसलिम आबादी वाले तुर्की में हिजाब और बुरका पर पाबंदी है। अब हट जाएगी। करीब सात साल पहले इस्तांबुल की ग्यारह-सदस्यीय संविधान पीठ ने एक संसदीय कानून को अवैध करार दिया था, क्योंकि वह तुर्की के सेक्युलर संविधान के प्रतिकूल था। तब विश्वास नहीं होता था कि मुसलिम-बहुल तुर्की भारत से कहीं बेहतर सेक्युलर राष्ट्र है। अंकारा में संविधान पीठ ने एक याचिका पर भी तुरंत विचार किया था| जिसके तहत तुर्की के शासकीय अभियोजन निदेशालय ने मांग की थी कि तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल्ला गुल और तत्कालीन प्रधानमंत्री तैय्यब एर्दोगन को पांच वर्षों तक राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाए। उनकी सत्तासीन जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एकेपी) को गैरकानूनी करार दिया जाए। किन्तु सैनिक दबाव के कारण न्यायिक निर्णय हो नहीं पाया। 

तब केंद्रीय मुख्य अभियोजक अब्दुर्रहीमन यालसिन्क्या ने लिखित आरोपपत्र में न्यायाधीश को बताया था कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने अपनी इसलामी पार्टी द्वारा तुर्की के सेक्युलर संविधान की धाराओं को तोड़ा है। प्रतिबंधित हिजाब (परदा) को एक वैधानिक लिबास बनाने हेतु कानून प्रस्तावित किया है। तुर्की में परदा करना दंडात्मक अपराध है। अभियोजन पक्ष का इल्जाम था कि संविधान के नीति-निर्धारक नियमों की अवहेलना करके राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सर्वधर्म समभाव वाले तुर्की में फिर से शरीयत थोपने पर आतुर हैं। वे दोनों इसलामी राज की पुनर्स्थापना में प्रयासरत रहे।

नौ दशक हुए, भारी संख्या में मुसलमानों के रहने के बावजूद, रूढ़िवादी रस्मों को नेस्तनाबूद कर मुस्तफा कमाल पाशा ने निजामे मुस्तफा को रद्द कर दिया था। तुर्की को सेक्युलर गणराज्य घोषित कर दिया था। बुरका प्रथा और बहुपत्नी व्यवस्था का अंत कर दिया। ऐतिहासिक सोफिया चर्च को, जिसे खलीफा ने मस्जिद में परिवर्तित कर दिया था, कमाल पाशा ने राष्ट्रीय संग्रहालय बना दिया था। इस तरह युवा तुर्क मुस्तफा कमाल पाशा ने इसलाम के विश्व मुख्यालय को, खलीफा के सिंहासन को, ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान मोहम्मद द्वितीय को बिलकुल खत्म कर डाला था। उन्होंने एक पिछड़े, सामंती राष्ट्र का पूर्णरूपेण आधुनिकीकरण कर दिया। 

आज के इसलामी दुनिया में तुर्की काफी ऊँचे पायदान पर है, क्योंकि वहां मतदान द्वारा निर्वाचन, सेक्युलर निजाम, स्त्री- पुरुष समानता, अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा उपलब्ध है।

नए युग की त्रासदी है कि एक अत्याधुनिक गणतंत्र अब दकियानूसी, प्रतिगामी और दुराग्रही देश बन गया। हालाँकि कोरोना और ग़ुरबत से आतंकित आम तुर्क का ध्यान बंटाने में कुछ वक्त के लिए एर्दोगन कामयाब हो जाएं, मगर पड़ोसी यूरोपीय यूनियन के 27 सदस्य राष्ट्र, स्विट्ज़रलैंड, वेटिकन सिटी इत्यादि ने हाजिया सोफिया म्यूजियम को मस्जिद बनाने में घोर आपत्ति जताई है।  यूनेस्को का विरोध है कि बिना उससे परामर्श किए इस विश्व धरोहर का रूप बदल डाला।  यूनेस्को ने 1985 में इस म्यूजियम को मान्यता तथा सहायता दी थी। एर्दोगन मध्य युग में जी रहे हैं।

ऐसे अदूरदर्शी कदम का कारण भी है। राष्ट्रपति तैयब की पार्टी गत महीनों में इस्ताम्बुल और अंकारा जैसे प्रमुख नगरों के स्थानीय निर्वाचन में पराजित हो गई थी। इसका मलाल तो सत्तासीन पार्टी को है ही। इसके पहले कि सारा राष्ट्र उनके हाथ से फिसल जाए, एर्दोगन ने यह इस्लामी कार्ड निकाला है। अतः कुछ विगत वर्षों की घटनाओं पर नजर डाल लें।

गत दो दशकों में इन पश्चिम एशियाई मुसलमानों की आपसी मारकाट के परिणाम में कई ऐतिहासिक विरासतों को गंभीर क्षति पहुंची है। हालाँकि पहले ऐसा भयंकर नजारा फ़रवरी 1258 में बगदाद में पेश आया था। तब मंगोल सम्राट चंगेज खां के पोते हलाकू खान ने आलमी इस्लाम के अब्बासी खलीफा अल मुस्तासिम को हराया था। सारा खजाना लूट लिया था। खलीफा को कालीन में लपेट कर घोंड़ों से कुचलवा कर मरवा दिया था। मस्जिद को नेस्तनाबूद कर डाला था। पुरानी इस्लामी लाइब्रेरी की हजारों किताबें टिगरिस नदी में डुबो दी।  अपने दादा के धर्म तेंग्रिस (आकाश देवता) का हलाकू आराधक था। 

इन्हीं बुतशिकन इस्लामी आक्रान्ताओं ने इस्ताम्बुल की भांति दमिश्क (सीरिया) के उमय्याद मस्जिद को भी क्षति पहुचाई थी।  इसाइयों ने इसे भव्य चर्च बनाया था। पादरी जान का सिर यहाँ दफ़न है। आठवीं सदी में उमय्याद खलीफा अल-वाहिद द्वितीय ने इस चर्च को मस्जिद बना डाला था। दिव्य भवन को देखने का अवसर मुझे 1990 में मिला था। काहिरा में संपन्न अफ्रीकी पत्रकार फेडरेशन के अधिवेशन के बाद मैं दमिश्क गया था। आक्रोश हुआ था कि इसी भांति शिया-सुन्नी की टकराहट में इराकी मस्जिद भी क्षतिग्रस्त हुए।  मसलन उस समाजवादी गणराज्य के अमरीका के साथ हुए युद्ध में कर्बला के मस्जिद-द्वय बमवर्षा  के शिकार हुए थे। इन सारे निशानों को स्वयं देखकर मुझ जैसे काफ़िर को भी अतीव ग्लानि और संत्रास हुआ था।

इतिहास की इन तमाम अमानवीय क्रूरताओं को देखकर जयशंकर प्रसाद की कामायनी की पंक्तियां अनायास याद आ जाती हैं : “ एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।” अब उग्र इस्लामिस्ट तैयब रजब एर्दोगन को प्रसाद जैसी करुणामयी अनुभूति तो होगी नहीं ? 

वह तो तत्पर हैं अपनी मातृभूमि सेक्युलर तुर्की को समीपस्थ भूमध्यसागर में निमज्जित करने हेतु।

K Vikram Rao
Mobile : 9415000909
E-mail:k.vikramrao@gmail.com

Comments

Popular posts from this blog

26/11 what mumbai diaries/Expose irresponsible electronic media/ Live reporting of TV became helpful to terrorists