SANJAY GANDHI : संजय गांधी, जिसकी छवि विलेन की बनाई गई
संजय गांधी की सोच अच्छी, छवि विलेन की 
  मुबाहिसाः आर.के. मौर्य    
  - अपने दम पर आई सत्ता मात्र छह माह ही देखी
जहां 1977 में सत्ता से हटने और जनता पार्टी की प्रताड़ना से यह कहा जाने लगा था कि इंदिरा गांधी इटली या फिर कहीं और दूसरे देश में जाकर रहने की सोच रही हैं, वहीं उनके संघर्ष और विलेन से युवाओं के हीरो बनते जा रहे संजय गांधी की रणनीति से कांग्रेस करीब तीन वर्ष में ही पुनः सत्ता में आ गई और इस अवधि में जनहित और जनप्रिय सुशासन देने का वादा करने, दो प्रधानमंत्री और कई-कई उपप्रधानमंत्री देने वाली जनता पार्टी बिखर गई, जिसका कुछ अर्सें बाद मूल अस्तित्व ही समाप्त हो गया। पर कांग्रेस के अपने दम पर आई सत्ता का काल संजय गांधी भी मात्र छह माह ही देख पाए और 23 जून 1980 को प्लेन उड़ाते हुए हादसे में उनका निधन हो गया। जिसको सत्ता हथियाने वाला बिगडैल युवा बताया, उसी औजस्वी और जोशीले युवा संजय गांधी को लोकसभा सदस्य चुने जाने के बाद कैबिनेट से दूर देखा। वह सामान्य सांसद होकर केवल निरंतर पार्टी संगठन की मजबूती के साथ ही देश की तरक्की और भारत को विश्व में आत्मनिर्भर बनाने के लिए रणनीति बनाते रहते देखा। जनता में नेताओं और मीडिया द्वारा जिस युवा की छवि विलेन की बनाई, वह इससे इतर शराब, धुम्रपान तो दूर चाय तक नहीं पीता था। साधारण इतना कि सादा कुर्ता पायजामा उसका हमेशा पसंदीदा पहनावा रहा। माना जाता है कि यदि संजय गांधी इतनी जल्दी न जाते तो शायद कांग्रेस के साथ ही देश की भी दशा कुछ और होती ?
- ...छोटे परिवार की परिकल्पना की
- समय के पाबंंद थे संजय गांधी
    जनता पार्टी सत्ता काल में एक दिन शाम को पता चला कि संजय गांधी को मेरठ जनपद से निकलकर देहरादून
    कोर्ट में एक तारीख पर जाना था। इसकी जानकारी जैसे ही मेरे कानों में
    पड़ी तो मैंने अपने पिताजी से कहा कि मैं संजय गांधी को देखना चाहता
    हूं। मेरी जिद के सामने पिताजी को हां कहनी पड़ी और अगले दिन का पता
    चला कि कस्बा दौराला में कांग्रेसियों ने संजय गांधी के स्वागत का
    कार्यक्रम रखा है। हम सुबह ही दौराला पहुंचा। मंच तैयार हो रहा था और
    सही सात बजे 10-15 लोगों की मामूली उपस्थिति में संजय गांधी की
    निर्धारित समय से दो मिनट पहले मैटाडोर आकर रुकी और उपस्थित लोगों का
    अभिवादन स्वीकार कर और कांग्रेस के लिए संघर्ष के दिनों में साथ रहने
    का आह्वान करके संजय गांधी ने मात्र पांच मिनट बाद ही अपनी मैटाडोर की
    ओर दौड़ा दी। इस अल्प कार्यक्रम में संजय गांधी और उनके द्वारा समय के
    सम्मान ने मुझे काफी प्रेरित किया।       
- काम के लिए वनडे डेडलाइन
उनके मुताबिक, "संजय के पास जा कर कोई ये नहीं कह सकता था कि ये नहीं हुआ. वो लोग संजय से बहुत डरते थे. हर तरफ़ डर का माहौल था और दूसरे लोग संजय के पास धैर्य का शुरू से अभाव था. उनकी डेडलाइन हमेशा एक दिन पहले की हुआ करती थी. इसलिए संजय के निर्देश पर जो कुछ भी लोग कर रहे थे, वो बहुत जल्दबाज़ी में कर रहे थे, जिसकी वजह से उसके उलटे परिणाम आने शुरू हो गए."
कुमकुम के मुताबिक, "उस समय पूरे भारत में सेंसरशिप
          लगी हुई थी और किसी में ये हिम्मत नहीं थी कि वो संजय गाँधी से
          जा कर कहता कि आपको ये नहीं करना चाहिए. मैं नहीं समझती कि संजय
          गाँधी ये सुनने के मूड में थे और उनका इस तरह का मिजाज़ भी नहीं
          था कि वो इस तरह की बातें सुनते."
        - इंद्रकुमार गुजराल को हटा दिया था...
आपात काल के दौरान संजय गांधी पर ये आरोप भी लगे कि विपक्षी नेताओं की गिरफ़्तारी का आदेश देना, कड़ाई से सेंसरशिप लागू करना और सरकारी कामकाज में बिना किसी आधिकारिक भूमिका के हस्तक्षेप करना। जब उन्हें लगा कि सूचना प्रसारण मंत्री इंद्रकुमार गुजराल उनका कहना नहीं मानेंगे तो उन्हें उनके पद से हटा दिया गया। जग्गा कपूर ने अपनी किताब 'व्हाट प्राइस परजरी- फ़ैक्ट्स ऑफ़ द शाह कमीशन' में लिखा है, "संजय ने गुजराल को हुक्म दिया कि अब से प्रसारण से पहले आकाशवाणी के सारे समाचार बुलेटिन उन्हें दिखाए जाएं. गुजराल ने कहा ये संभव नहीं है. इंदिरा दरवाज़े के पास खड़ी संजय और गुजराल की ये बातचीत सुन रही थीं, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा."
उन्होंने यह भी लिखा है, "अगली सुबह जब इंदिरा मौजूद
          नहीं थीं, संजय ने गुजराल से कहा कि आप अपना मंत्रालय ढंग से
          नहीं चला रहे हैं. गुजराल का जवाब था कि अगर तुम्हें मुझसे कुछ
          बात करनी है, तो तुम्हें सभ्य और विनम्र होना होगा. मेरा और
          प्रधानमंत्री का साथ तब का है, जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे.
          तुम्हें मेरे मंत्रालय में टाँग अड़ाने का कोई हक नहीं है."
अगले दिन संजय गाँधी के ख़ास दोस्त मोहम्मद यूनुस
          ने गुजराल को फ़ोन कर कहा कि वो दिल्ली में बीबीसी का दफ़्तर बंद
          करवा दें और उसके ब्यूरो चीफ़ मार्क टली को गिरफ़्तार कराएं,
          क्योंकि उन्हेंने कथित रूप से ये झूठी ख़बर प्रसारित की है कि
          जगजीवन राम और स्वर्ण सिंह को घर में नज़रबंद कर दिया गया है.
        
        मार्क टली ने अपनी किताब 'फ़्रॉम राज टू राजीव' में
          लिखा है कि, "यूनुस ने गुजराल को हुक्म दिया कि मार्क टली को
          बुलवाओ और उसकी पैंट उतरवा कर उसकी बेंत से पिटाई करवाओ और जेल
          में ठूंस दो. गुजराल ने जवाब दिया कि एक विदेशी संवाददाता को
          गिरफ़्तार करवाना सूचना और प्रसारण मंत्रालय का काम नहीं है."
        
        उन्होंने लिखा है कि, "फ़ोन रखते ही उन्होंने बीबीसी
          प्रसारण की मॉनीटरिंग रिपोर्ट मंगवाई, जिससे पता चला कि
          बीबीसी ने जगजीवन राम और स्वर्ण सिंह को हिरासत में लिए जाने की
          ख़बर प्रसारित नहीं की थी. उन्होंने ये सूचना इंदिरा गाँधी तक
          पहुंचा दी, लेकिन उसी शाम इंदिरा गाँधी ने उन्हें फ़ोन कर कहा कि
          वो उनसे सूचना और प्रसारण मंत्रालय ले रही हैं, क्योंकि मौजूदा
          हालात में उस कड़े हाथों से चलाए जाने की ज़रूरत है."
        - रुख़साना सुल्तान से नज़दीकी का फायदा उठाया
माना जाता है कि जो लोग संजय गांधी के क़रीब थे, उन्होंने इमरजेंसी
          के दौरान उनका पूरा फ़ायदा उठाया और लोगों के बीच उनकी छवि ख़राब
          करने में भी बहुत बड़ी भूमिका उन्होंने ही निभाई. इनमें से एक थी अभिनेत्री
          अमृता सिंह की माँ रुख़साना सुल्तान।
        प्रसिद्ध कुमकुम चडढ़ा के मुताबिक, "एक स्तर पर दोनों के
          बारे में काफ़ी अनर्गल बातें कही जाती थीं. रुख़साना सबको साफ़
          कर देती थी और उन्होंने मुझसे भी कहा था कि संजय उनके बहुत करीबी
          दोस्त हैं. इमरजेंसी के दौरान रुख़साना के पास बहुत ताकत थीं. इस
          ताक़त का उन्होंने बहुत बेजा इस्तेमाल किया, चाहे वो परिवार
          नियोजन हो या जामा मस्जिद का सौदर्यीकरण हो. अगर लोग संजय गांधी
          से नफ़रत करते थे, तो वो इसलिए कि वो उनके नाम पर ये कार्यक्रम
          चलाती थीं. संजय का कोई भी ऐसा दोस्त नहीं था, जो उनसे ये कह
          सकता था कि आप ये ग़लत काम कर रहे हैं."
        - स्पष्टवादी थे संजय गांधी
संजय गाँधी की आम छवि कम बोलने वाले मुंहफट शख़्स
          की थी. उनके मन में अपने सहयोगियों के लिए कोई इज़्ज़त नहीं थी,
          चाहे वो उम्र में उनसे कितने ही बड़े क्यों न हों, लेकिन एक ज़माने में संजय गांधी के क़रीबी और युवा
          कांग्रेस के नेता रहे जनार्दन सिंह गहलोत के मुताबिक, "उनमें
          रफ़नेस कतई नहीं थी. वो स्पष्टवादी ज़रूर थे जिसे सही मायने में
          आज तक भारतवासी स्वीकार नहीं कर पाए हैं. आज जो चापलूसों का
          ज़माना है, हर राजनीतिज्ञ मीठी बातें करता है, मैं समझता हूँ, वो
          उससे हट कर थे. इसलिए उनकी छवि बनती रहती थी कि वो रूखे हैं, जो
          कि वो बिल्कुल नहीं थे. "
        उनके मुताबिक, "लेकिन ये बात ज़रूर थी कि जो
          बात उनको ठीक लगती थी, उसको वो मुंह पर कह ज़रूर देते थे. देश के
          लोगों ने बाद में स्वीकार भी किया कि उनका जो पांच सूत्री
          कार्यक्रम था, वो देश के लिए बहुत अच्छा था."
संजय गांधी के सहयोगी रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय
          सिंह के मुताबिक, "दो तीन गुण उनके मुझे बहुत
          अच्छे लगे. एक तो बड़ी साफ़ बात करते थे. स्पष्टवादिता थी. बड़े
          सौम्य थे. बहुत अच्छा व्यवहार था उनका और एक कोशिश करते थे कि कम
          से कम बात हो और संदेश ठीक से लोगों की समझ में आ जाए और सबसे
          बड़ी चीज़ थी कि जब वो स्वयं किसी चीज़ को हाँ कहते थे, तो उसको
          करने का पूरा प्रयास करते थे और उसी तरह आशा करते थे कि जो भी
          कोई बात करे, तो उसे पूरा ज़रूर करे. "
        प्रमुख पत्रकार विनोद मेहता की संजय गाँधी पर लिखी किताब, 'द संजय स्टोरी' में, "1 अकबर रोड पर संजय गांधी का दिन सुबह 8 बजे शुरू होता था. इसी समय जगमोहन, किशन चंद, नवीन चावला और पीएस भिंडर जैसे अफ़सर संजय को अपनी डेली रिपोर्ट पेश करते थे. इसी समय वो संजय से आदेश भी लेते थे. इनमें से ज़्यादातर लोग उन्हें सर कह कर पुकारते थे."
पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर के मुताबिक, "संजय गांधीसिर्फ़ एक दो शब्द
          ही बोलते थे. मैंने उनको कभी चिल्लाते हुए नहीं सुना. उनके आदेश
          क्रिस्टल की तरह साफ़ होते थे. उनकी यादाश्त बहुत ज़बरदस्त थी".
        
        टाइटलर के मुताबिक, "ठीक 8 बज कर 45 मिनट पर वो अपनी
          मेटाडोर में बैठ कर गुड़गाँव में अपनी मारुति फ़ैक्ट्री के लिए
          रवाना हो जाते थे. वो समय के इतने पाबंद थे कि आप उनसे अपनी घड़ी
          मिला सकते थे. ठीक 12 बज कर 55 मिनट पर वो दोपहर का खाना खाने घर
          लौटते थे, क्योंकि इंदिरा गाँधी के आदेश थे कि दिन का खाना
          परिवार के सब लोग साथ खाएं."
        
        टाइटलर के मुताबिक, "दोपहर 2 बजे से उनका लोगों
          से मिलने का सिलसिला फिर से शुरू होता था. इस बार उनसे मिलने
          वालों में केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और यूथ
          कांग्रेस के नेता होते थे. उन्हें मिलने का जो वक्त दिया जाता
          था, वो कुछ इस तरह होता था.. 4 बज कर 7 मिनट, 4 बज कर 11 मिनट या
          4 बज कर 17 मिनट. जब कोई कमरे में घुसता था तो न ही वो उसके
          स्वागत में खड़े होते थे और न ही उससे हाथ मिलाते थे."
        - गरीबी दूर करने का मंत्र
- चाय व शराब से दूर संजय को मैटाडोर थी पसंद
संजय गांधी के करीबी जनार्दन गहलौत के मुताबिक, "वो कैंपा कोला और पेप्सी तक पीना पसंद नहीं करते थे और लोगों से सवाल पूछा करते थे कि तुम पान क्यों खाते हो. मैं समझता हूँ कि देश को नौजवानों को वो अलग रास्ते पर ले जाना चाहते थे. उनकी सादगी का आलम ये था कि वो खद्दर का कुर्ता पायजामा पहनते थे, औरों की तरह नहीं कि शाम को जींस और टी शर्ट पहन कर घूम रहे हों."
उनके मुताबिक, "जिस दिन वो प्लेन उड़ाने गए थे,
          मेनकाजी ने इंदिराजी से कहा था कि वो संजय से गोता न लगाने के
          लिए कहें और उन्हें रोक लें. लेकिन जब तक इंदिराजी बाहर पहुंचती,
          वो अपनी मैटाडोर लेकर निकल चुके थे. उसी दिन ये हादसा हो गया."
        
  - ...जब संजय गांधी साइकिल से पहुंचे थे संसद
जहां वह तेज गति से मैटाडोर चलाने और प्लेन करतब 
के साथ उड़ाने के शौकीन थे, वहीं पर्यावरण की रक्षा का संदेश देने के लिए 
1980 में चुनाव जीतने के बाद पहली बार अपने घर से संसद साइकिल पर गए थे। 
उनके इस अंदाज को सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने प्रमुखता से अपने अखबार में 
पहले पेज पर स्पेस दिया था। 
  
बेशक संजय गांधी का नाम लेते ही तमाम लोग तुरंत एक बुरे आदमी का नाम आने जैसी भाव भंगिमा बनाने लगें, लेकिन यदि आप समग्र रूप से देखें तो संजय गांधी की सोच बहुत अच्छी थी, लेकिन देश की पक्षपाती मीडिया और राजनीतिक विरोधियों ने उसकी विलेन की छवि बनाई। आज देश में जब स्वदेशी की बात करने वाले राष्ट्रवादी का दंभ भरने वाले लोग विदेशियों का राग अलापने लगे हैं, तब देखें, संजय गांधी अब से 45 वर्ष पहले देश को संपन्न और विकसित आत्मनिर्भर भारत का सपना देखता है। उसकी तरक्की में अपार जनसंख्या को बड़ी बाधा को समझता है, जिसे आज हर व्यक्ति समझ चुका है। कोराना काल ने पर्यावरण का महत्व एक झटके में सभी को समझा दिया, जब लाखों लोग केवल आक्सीजन की कमी से मर गए और स्वास्थ्य सेवा के सभी दावे खोखले साबित हो गए। जिस देश में एंबेसडर और फिएट कार होती थी, उस देश में संजय गांधी की स्वदेशी कार मारुति की परिकल्पना का ही नतीजा है कि आज विश्व में भारत मारूति के साथ ही सभी कारों को उपयोग करने वाला प्रमुख देश बन गया है। दफ्तरों में हर अफसर और कर्मचारी समय पर उपस्थित था और जनता के प्रति सीधे जवाबदेह था। रिश्वत मांगने की किसी की हिम्मत नहीं थी। आपातकाल का प्रशासन द्वारा कुछ बेजा इस्तेमाल से संजय गांधी की छवि ऐसे विलेन की बनी कि उनकी देश तरक्की के लिए अच्छी सोच दबकर रह गई। हालांकि निष्पक्ष लोग अब भी साफ तौर पर संजय गांधी की सोच, कार्यप्रणाली और उनके पांच सूत्रीय कार्यक्रम को प्रासंगिक मानते हैं।
        
 - संजय की सोच दबाई, छवि विलेन की बनाई
बेशक संजय गांधी का नाम लेते ही तमाम लोग तुरंत एक बुरे आदमी का नाम आने जैसी भाव भंगिमा बनाने लगें, लेकिन यदि आप समग्र रूप से देखें तो संजय गांधी की सोच बहुत अच्छी थी, लेकिन देश की पक्षपाती मीडिया और राजनीतिक विरोधियों ने उसकी विलेन की छवि बनाई। आज देश में जब स्वदेशी की बात करने वाले राष्ट्रवादी का दंभ भरने वाले लोग विदेशियों का राग अलापने लगे हैं, तब देखें, संजय गांधी अब से 45 वर्ष पहले देश को संपन्न और विकसित आत्मनिर्भर भारत का सपना देखता है। उसकी तरक्की में अपार जनसंख्या को बड़ी बाधा को समझता है, जिसे आज हर व्यक्ति समझ चुका है। कोराना काल ने पर्यावरण का महत्व एक झटके में सभी को समझा दिया, जब लाखों लोग केवल आक्सीजन की कमी से मर गए और स्वास्थ्य सेवा के सभी दावे खोखले साबित हो गए। जिस देश में एंबेसडर और फिएट कार होती थी, उस देश में संजय गांधी की स्वदेशी कार मारुति की परिकल्पना का ही नतीजा है कि आज विश्व में भारत मारूति के साथ ही सभी कारों को उपयोग करने वाला प्रमुख देश बन गया है। दफ्तरों में हर अफसर और कर्मचारी समय पर उपस्थित था और जनता के प्रति सीधे जवाबदेह था। रिश्वत मांगने की किसी की हिम्मत नहीं थी। आपातकाल का प्रशासन द्वारा कुछ बेजा इस्तेमाल से संजय गांधी की छवि ऐसे विलेन की बनी कि उनकी देश तरक्की के लिए अच्छी सोच दबकर रह गई। हालांकि निष्पक्ष लोग अब भी साफ तौर पर संजय गांधी की सोच, कार्यप्रणाली और उनके पांच सूत्रीय कार्यक्रम को प्रासंगिक मानते हैं।
- संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम
- शिक्षा
- परिवार नियोजन
- वृक्षारोपण
- जातिवाद का बंधन तोड़ना
- दहेज़ प्रथा का खात्मा.
- साभारः
- आर.के. मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार.
 


 
 
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