Khel Haidrabadi, what will happen In UP Election 2022

  •  खेल हैदराबादी!


  • क्या चलेगा इस बार यूपी में ?



  • के. विक्रम राव    


        चन्द महीने बाद यूपी की 18वीं विधानसभा के चुनाव में इतिहास फिर भूगोल से टकरायेगा। सात दशक पूर्व यूपी के जिन्नावादी मुस्लिम लीग ने निजामशाही हैदराबाद को आजाद गणराज्य बनने में मदद की थी। यदि हो जाता तो, काजीपेट के लिये बीजा लेना पड़ता! कश्मीर में यही अवधीमुल्ले काफी हद तक कामयाब रहे थे। घाटी के मतांतरित निरीह पण्डितों की संतानों को महाराजा के खिलाफ मुल्ले उकसा चुके थे। भला हो भारतीय सेना का कि उसने वादी बचा ली। आज क्या घाटी में ऐसी विपदा टल पायेगी? संदर्भ मियां असदुद्दीन ओवैसी से है जो अवध प्रांत पर गत महीनों में कई बार चढ़ाई कर चुकें हैं। 


        आज का दिन (17 सितम्बर 2021) भी यादगार है। इसी दिन सात दशक पूर्व हैदराबाद को भारतीय सेना (जनरल जयंत चौधरी की कमांडरी में) निजाम को उखाड़कर तारीख की गर्त में ढकेला गया था। यूपी को तय करना होगा कि वह सेक्युलर बना रहेगा अथवा जमात के वोट से साम्प्रदायिक शासन लायेगा? अर्थात् तेलुगुभाषी हैदराबाद का असर यूपी पर कितना पड़ेगा? बिहार (अटरिया), बंगाल और पिछली बार पश्चिम यूपी पर इस दक्षिणी पार्टी का काफी दबाव पड़ा था। उसके नायक रहे असदुद्दीन ओवैसी। दोबारा प्रगट हुए हैं। इसीलिये इस निखलिस पाकिस्तान—समर्थित पार्टी पर गौर कर लें। इसकी स्थापना 12 नवम्बर 1927 को हुयी थी। लक्ष्य था हिन्दुस्तान में मुस्लिम रियासत कायम की जाये। नवाब मीर उस्मान अली खान ने दैवी प्रेरणा से आप्लावित होकर संस्कृतिक तथा मजहबी घोषणापत्र बनाया था। नवाब बहादुर यावर जंग मजलिस के सदर 1938 में चुने गये थे। कासिम रिजवी इसके सभापति छह वर्ष बाद बने। यह कासिम रिजवी वही थे जो पाकिस्तानी शस्त्रों मदद से हैदराबाद को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य और निजी मुस्लिम की पादशाही बनाने वाले थे। उस्मान अली ने मोहम्मद अली जिन्ना को 1947 में दो सौ करोड़ रुपये देकर आधुनिक शस्त्र मांगा था। इस अलगाववाद के आयोजक (मजलिस) के वकील अब्दुल ओवैसी थे। इनके पुत्र सुलतान सलाहुद्दीन ओवैसी ने मजलिस का नेतृत्व उत्तराधिकार में पाया। वे सांसद भी रहे। उन्हें सालार—ए—मिल्लत (मुसलमानों के कमांडर) कहते थे। वे जनाब सुलतान ओवैसी के आत्मज हैं। आज यही असदुदृीन ओवैसी मजलिस—ए—इत्तेहादे मुसलमीन (एमआईएम) के कर्ताधर्ता हैं। यूपी के मुस्लिम इलाकों में हरा चांद सितारों वाला परचम लहरा रहे हैं। अपने हैदराबाद (1983—87) में टाइम्स के संवाददाता के काल में मुझे इन सब को निकट और गहनता से जानने का मौका मिला था। ये लोग लंदन से कानून पढ़े हैं। इन्हीं के अनुज सैय्यद अकबरदीन ओवैसी का दावा है कि पन्द्रह मिनट, सिर्फ पन्द्रह मिनट, पुलिस अपने थानों से बाहर न निकले तो भारत को हिन्दुओं से मुक्त किया जा सकता है।


        मुगलिया सल्तनत की खास रियासत हैदराबाद (इंग्लैण्ड, स्क्वाटलैण्ड तथा वेल्स के भूभाग के बराबर) कभी दारुल जिहाद कहलाता था। इसे जिन्ना के स्वप्न का ''दक्षिणी पाकिस्तान'' माना जाता था। अलीगढ़ विश्वविद्यालय  में शिक्षित सैय्यद कासिम रिजवी ने इस्लामी रजाकार (उर्दू में स्वयंसेवक) ने संगठित किया था। यह अपने को नवनिर्मित इस्लामी पाकिस्तान के प्रथम संस्थापक प्रधानमंत्री नवाबजादा लियाकत अली का समकक्ष समझता था। इनके साथी रहे थे मियां लाइक अली। यदि लार्ड माउंटबैटन का बस चलता तो कश्मीर की भांति हैदराबाद भी पाकिस्तानी प्रदेश रहता। भारत का दुर्भाग्य रहा कि कांग्रेसी मंत्री तथा विश्व हिन्दू परिषद के संस्थापक रहे युवराज कर्ण सिंह के पिता महाराजा हरि सिंह भारत और पाकिस्तान को समान मानते थे। नतीजन कश्मीर का बड़ा भूभाग आज पाकिस्तान के कब्जे में है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की भी इच्छा थी कि हैदराबाद को संवाद द्वारा हल किया जाये। सरदार पटेल के सचिव वीपी मेनन ने इस विषय पर ''हिन्दुस्तान टाइम्स'' के संपादक दुर्गादास को ऐसा बताया था। अर्थात ब्रिटिश वायसराय लुई माउंटबैटन निजाम के पक्षधर थे। ''नेहरु तो वायसराय की जेब में थे।'' (संपादक दुर्गादास, प्राम कर्जन टू नेहरु एण्ड आफ्टर'' प्रकाशक : रुपा—1969, पृष्ट—240)। उल्लेख है कि तब निजाम ने जिन्ना को बीस करोड़ रुपये शस्त्र की कीमत हेतु दिया था। निजाम ने पड़ोसी गोवा द्वीप को पुर्तगाली साम्राज्यवादियों से खरीदने की पेशकश की थी ताकि हैदराबाद को समुद्री मार्ग मिल सके। भारतीय मुक्ति सेना ने इस नासूर पर नश्तर चला दिया। ओवैसी की यह सब विरासत है।


         आज यूपी की धरा पर कासिम रिजवी और सुलतान ओवैसी को देखकर हम श्रमजीवी पत्रकारों को साथी शोएबुल्लाह खान का स्मरण हो आता है। वह हैदराबाद के नवस्तंत्र भारत के पूर्ण विलय के पक्ष में लेख तथा समाचार छाप रहे थे। उसे रामपुरी छुरे भोंक कर शहीद कर दिया गया। ताज्जुब है कि अब तक भाजपायी अध्यक्षों और शासकों ने स्वामी रामानन्द तीर्थ के जबरदस्त संघर्ष की स्मृति को जगाया क्यों नहीं? स्वामी रामानन्द तीर्थ (उर्फ व्यंकेटश भगवानराव खेडिगकर) को बिना याद किये स्वाधीन हैदराबाद का इतिहास अधूरा है। यहां के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. बुर्गुल रामकृष्ण राव मेरे स्वजन थे, जो उत्तर प्रदेश के चौथे राज्यपाल (वीवी गिरी के बाद) थे। इनके नाम का कोई मार्ग या भवन अथवा स्मारक के रुप में आजतक लखनऊ में कुछ भी नहीं बना।


  • K Vikram Rao, Sr. Journalist 
  • Email: k.vikramrao@gmail.com
  • Mob: 9415000909

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