Punjab Rahul Gandi's Feud and Future Congress BSP and Akali Dal
राहुल गांधी की अदावत और भविष्य की कांग्रेस
- पंजाब में बड़ा दांव ; प्रथम दलित मुख्यमंत्री, गैर कांग्रेस दलों को पड़ा झटका
- मुबहिसा : आर.के. मौर्य
पंजाब प्रदेश में कांग्रेस द्वारा दलित मुख्यमंत्री बनाया जाना, केवल राहुल गांधी की कैप्टन अमरिंद्र सिंह से अदावत का ही परिणाम नहीं, बल्कि भविष्य के लिए कांग्रेस की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। यदि ऐसा ना होता, तो शायद नवजोत सिंह सिद्धू ही पंजाब के मुख्यमंत्री बना दिए गए होते। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और बसपा गठबंधन मजबूत होकर उभर रहा है। वहां भाजपा नहीं बल्कि शिरोमणि अकाली दल से ही कांग्रेस को दो-दो हाथ करने हैं। ऐसे में दलितों के बीच अपने मजबूत जनाधार को बनाए रखने और भविष्य के चुनाव में शिरोमणि अकाली दल और बसपा गठबंधन को मात देने के लिए चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का प्रथम दलित मुख्यमंत्री बनाए जाने की रणनीति को अमलीजामा पहनाया गया। बसपा सुप्रीमो मायावती और भाजपा में दलित नेता सांसद व भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव दुष्यंत गौतम के बौखलाहट भरे बयान भी कांग्रेस की इस मजबूत रणनीति को बल दे रहे हैं।
- बदलती कांग्रेस, बदलती रणनीति
सत्ता राजा महाराजाओं के घर से निकलकर यदि एक गरीब की झोपड़ी तक पहुंच रही है तो इसमें इतना शोर शराबा क्यों, यह सब अब जनता खुद भी समझती है। कांग्रेस के पंजाब दांव से जहां अकाली दल-बसपा गठबंधन को बड़ा झटका लगा है, वहीं पंजाब में बड़ी ताकत का ख्वाब देख रहे भाजपा वालों को भी दिन में तारे नजर आने लगे हैं। इसकी शुरूआत महाराष्ट्र में सुशील शिंदे को भी मुख्यमंत्री बनाकर की गई थी। क्या किसी स्तर पर सुशील शिंदे का कांग्रेस में सम्मान कोई कम हुआ ? वह कांग्रेस हाईकमान में पहली पंक्ति के नेता माने जाते हैं। अब पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को पहला दलित मुख्यमंत्री बनाया गया है। वह कांग्रेस के लिए सरकार के जरिए मजूबत आधार बनाएंगे, तब ही तो कांग्रेस प्रदेश में पुनः जीत की तरफ बढ़ेगी और यदि वह ठीक काम नहीं करेंगे तो फिर उसका नुकसान भी तो पार्टी को ही भुगतना पड़ेगा, ऐसे में साफ है कि यदि गुजरात में जातिगत राजनीति के तहत भाजपा वैश्य समाज के विजय रूपाणी को हटाकर पटेल समाज के भूपेंद्र भाई को मुख्यमंत्री बना सकती है तो फिर कांग्रेस ने यदि महाराजा घराने के कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर गरीबों के नुमाइंदे दलित चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया तो कौन गलत है। ऐसे फैसले जाहिर है राजनीतिक फायदे के लिए ही किए जाते हैं, वे गेम चेंजर भी साबित हो सकते हैं और उनका बड़ा नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। यह तो आखिर जनता को ही चुनाव के वक्त अपने वोट के जरिए तय करना है, लेकिन हमारा मीडिया अपने व्यावसायिक हितों के लिए पहले से ही तय करने में लगा है कि गुजरात में भाजपा का निर्णय सही और पंजाब में गलत और उसको आधार बना लिया कांग्रेस के पंजाब प्रभारी हरीश रावत के उस बयान को, जिसमें उन्होंने एक सवाल के जवाब में कह कि चुनाव कांग्रेस कमेटी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। ज्यादा पूछने पर उन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू की लोकप्रियता की तारीफ कर दी तो उसको लेकर मीडिया ने तुरंत अपने-अपने तरह से हवा दी और गैर कांग्रेस दलों ने भी उसे हथियार बना लिया।
यह तो निर्विवाद तय है कि चुनाव तो पार्टी के ही नेतृत्व में लड़ा जाता है, सरकार का कामकाज तो चुनाव में हार जीत तय करता है। चन्नी यदि अच्छा काम करके दिखाएंगे तो उनको जीत मिलेगी ही। दरअसल लोग जानबूझकर इस बात को भुलाने की कोशिश करते हैं कि देश में अपने खोए जनाधार को पुनः पाने के लिए कांग्रेस ने निरंतर अपनी रणनीति में बदलाव किया है। वह हर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य के मुताबिक अपनी रणनीति में किसी भी बदलाव के लिए तैयार है। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ सरकार चलाना हो या फिर बिहार में राजद के साथ गठबंधन और यूपी में भी गैर भाजपा सभी दलों से हाथ मिलाने की कोशिश भी इसी बात का हिस्सा है।
- मीडिया का कांग्रेस विरोधी खेल
कांग्रेस का मीडिया विरोधी खेल हर मौके पर सामने आता है। हाल ही में गुजरात में भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री विजय रुपानी को हटाकर भूपेंद्र भाई पटेल को मुख्यमंत्री बनाए जाने और पंजाब में कांग्रेस द्वारा अपने मुख्यमंत्री अमरिंदर को बदलकर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने के वक्त की कवरेज को देखकर साफ पता लगता है कि मीडिया घराने देश में किसके इशारे पर कैसी पत्रकारिता से अपने हित साधने में लगे हैं। गुजरात में भाजपा पक्ष की कवरेज और पंजाब में कांग्रेस विरोध की कवेरज साफ करती है देश की पत्रकारिता की नीयत को। यदि मुख्यमंत्री पद एक दलित को मिलता है तो उसका प्रतिस्थापन इस तरह से किया जाता है कि जैसे वह काम जानते नहीं हैं और कोई नेतृत्व भी संभाल नहीं सकते हैं ?, यही पंजाब में गैर कांग्रेस दलों के साथ ही मीडिया भी अपने हितों की रक्षा के लिए साबित करने की कोशिश कर रहा है। क्या उत्तर प्रदेश में कोई भी मायावती के शासनकाल पर उंगली उठा सकता है ?, उनके कार्यकाल की विरोधी भी तारीफ करते हैं।
- राजीव गांधी और कैप्टन अमरिंद्र की दोस्ती को किया दरकिनार
कैप्टन अमरिंदर सिंह और गांधी परिवार के बीच राजीव गांधी और कैप्टन अमरिंदर सिंह की दोस्ती से शुरू दो पीढ़ियों के घनिष्ठ रिश्ते की इस डोर में कई गांठें हैं और कई सुलझाई गई गांठों की सिलवटें भी मौजूद हैं। ये गांठें कैसे पड़ीं। इस कहानी के दो पार्टों में चार मुख्य किरदार राजीव, सोनिया, राहुल और खुद अमरिंद हैं। पहला हिस्सा 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेगे' वाले दो यारों की है और फिर अदावत की कहानी है। सियासत जिस चीज के लिए बदनाम है, वह भी इसका हिस्सा है। एक दूसरे को मात देने के दांव-पेच भी इसमें शामिल हैं।
- दून स्कूल में हुई थी दोस्ती
पटियाला राजघराने और सत्ता का पर्याय रहे गांधी परिवार के अलग-अलग मिजाज के राजीव गांधी और अमरिंद्र सिंह में एक धीर-गंभीर, संकोची। दूसरा राजसी तेवर वाला और जिद का पक्का। पटियाला और दिल्ली से दूर देहरादून के मशहूर दून स्कूल में राजीव गांधी और अमरिंदर सिंह की दोस्ती परवान चढ़ी। 60 के दशक के आखिरी सालों की बात है, तब राजीव के नाना जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे। दोस्ती में गर्माहट बढ़ती है। छुट्टियां एक दूसरे के घर में मनाने का सिलसिला चलता है। राजीव दोस्त अमरिंदर को दिल्ली में घर आने का न्योता देते। और स्कूल से इतर भी राहुल के घर यानी पीएम नेहरू के आवास पर यह दोस्ती और मजबूत होती जाती है। स्कूल के दिन बीतते हैं। देहरादून से दोनों की राहें जुदा हो जाती हैं। अमरिंदर पहले खडकवासला और फिर दून की राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में भर्ती हो सेना में चले जाते हैं। और पायलट बनने की ख्वाहिश पाले राजीव आगे की पढ़ाई के लिए लंदन का रुख करते हैं।
- दोस्त की जिद पर नेता बना फौजी
साल 1977 देश में आपातकाल के ठीक बाद देश में सियासत कई करवटें बदल चुकी थी। गांधी परिवार भी काफी उतार-चढ़ाव देख चुका था। अमरिंदर सेना में पारी पूरी कर लौटकर आए तो राजीव ने उनको राजनीति में आने का आमंत्रण दिया। एक तरह से राजीव की जिद पर अमरिंदर मान गए और कांग्रेस ज्वॉइन कर ली। 1977 के लोकसभा चुनाव में पटियाला से कद्दावर अकाली नेता गुरुचरण सिंह तोहरा के खिलाफ लड़ा, पर आपातकाल की इंदिरा विरोधी हवा में तिनके की तरह उड़ गए, लेकिन तीन साल बाद ही इसी सीट से 1980 में वह पहली सियासी जीत का स्वाद चख संसद पहुंच गए।
- दोस्ती के रिश्ते में पहली गाठ
आखिर फिर इस यारी को भी वही रोग लगता है, जिसके लिए दोस्ती और सियासत को अलग रखने की हिदायत दी जाती है। रिश्ते में पहली गाठ पड़ती है। 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में अमरिंदर सांसदी के साथ कांग्रेस से रिश्ता तोड़ देते हैं, वे अकालियों से जुड़ते हैं। 1991 में अकाली दल पंथिक पार्टी बनाते हैं और असफलता के बेहद बुरे दौर से गुजरते हैं। इस दौरान 1991 में राजीव गांधी की हत्या हो जाती है। इसके बाद सियासी तबाही के मुहाने पर बैठे अमरिंदर कांग्रेस में वापसी करते हैं। रिश्तों में पड़ी इस गांठ को खोलने का काम सोनिया करती हैं। अपने विधानसभा क्षेत्र से महज 856 वोट पाने वाले अमरिंदर 1998 में अपनी पार्टी अकाली दल (पंथिक) का कांग्रेस में विलय कर देते हैं और कांग्रेस में उनकी दूसरी पारी शुरू हो जाती है।
- कैप्टन का कद बढ़ा और रिश्ते असहज
अमरिंदर को 1999 में पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए गया। पंजाब में अमरिंदर का कद बढ़ता चला जाता है, लेकिन 10 जनपथ (सोनिया गांधी का आवास) में उनको लेकर अविश्वास की जड़ें गहरी होने लगती हैं। अमरिंदर पंजाब में कांग्रेस का पर्याय बन गए और 2004 में राहुल गांधी की कांग्रेस में औपचारिक आमद हो गई। इसके साथ ही राहुल की साल दर साल भूमिका बढ़ी। वे पार्टी के उपाध्यक्ष बन गए। इस दौरान अमरिंदर और राहुल के रिश्तों में एक अजीब सी असहजता पनपती दिखी, जो 2015 के आते-आते चरम पर पहुंच गई।
- राहुल गांधी और अमरिंदर सिंह की नजदीकी भी दून से ही
अमरिंदर और राहुल के रिश्ते की कहानी भी देहरादून के उसी दून स्कूल से शुरू हुई थी, जहां कभी उनकी और राजीव की दोस्ती परवान चढ़ी थी। संयोग से राजीव और अमरिंदर के बेटे राहुल और रनिंदर दून स्कूल में ही साथ पढ़ते थे। अमरिंदर अक्सर अपने बेटे से मिलने दून स्कूल जाया करते थे।अमरिंदर सिंह की जीवनी 'कैप्टन अमरिंदर सिंहः द पीपल्स महाराजा' में सरदार खुशवंत सिंह ने इसका जिक्र करते हुए लिखा है कि 'अमरिंदर जब भी अपने बेटे रनिंदर से मिलने दून स्कूल जाते, तो साथ में राहुल को भी आउटिंग के लिए लेकर जाया करते थे।' हालांकि यह अलग बात है कि ये यादें दोनों के रिश्तों में कभी ज्यादा मिठास नहीं घोल पाईं।
- जब सोनिया ने काल पर कहा "आप मेरे लिए लड़ेंगे अमरिंदर?"
पंजाब में 2007 और 2012 की लगातार हार के बाद कैप्टन बैकफुट पर थे। 2013 में प्रताप सिंह बाजवा पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए जाते हैं। इसके साथ ही गांधी परिवार और कैप्टन के रिश्तों में कड़वाहट घुलने लगती है। 2014 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर रिश्तों पर जमी बर्फ पिछलने की कोशिश दिखती है, लेकिन यह भी सियासी ही निकली। खुशवंत सिंह किताब में इसका जिक्र करते हैं, "दिल्ली से चंडीगढ़ लौट रहे कैप्टन जब पानीपत ही पहुंचे तो उनके फोन की घंटी बजती है। फोन सोनिया गांधी का होता। 'क्या आप मेरे लिए लड़ेंगे अमरिंदर?" सोनिया के शब्द गुजारिश लिए हुए होते हैं। सोनिया के बाद अमरिंदर को प्रियंका का फोन जाता हैं- 'अंकल, मैं चाहती हूं आप अमृतसर से चुनाव लड़ें।' और इस दोस्ती में राजीव काल की गर्माहट महसूस की जाने लगती है।
- अरुण जेटली को हराकर अमरिंदर फिर हीरो बनकर उभरते हैं
पंजाब में दो चुनावों में खराब प्रदर्शन के दाग को धोने का यह बड़ा मौका अमरिंदर हाथ से जाने नहीं देते। वह जीवन का सबसे बड़ा दांव खेलने का फैसला कर लेते हैं। यह जानते हुए कि कांग्रेस और अकालियों के किले अमृतसर में हार उनकी सियासी करियर तबाह कर सकता है। 28 मार्च 2014 को अमृतसर पहुंचने पर कांग्रेस में उनका भव्य स्वागत हुआ था और फिर वह हुआ, जिसकी उम्मीद शायद खुद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी की थी। बीजेपी के कद्दावर नेता अरुण जेटली को कैप्टन ने हराकर इतिहास रच दिया था। रातोंरात कैप्टन का कद कई गुना बढ़ गया था। साथ ही उनके तेवर भी तल्ख हो गए थे। पंजाब में वापसी की उनकी छटपटाहट ने सोनिया-राहुल की भी मुश्किल भी बढ़ा दी थी।
- सोनिया की राहुल को नसीहत
पंजाब में विधानसभा चुनाव- 2017 से पहले अमरिंदर और बाजवा के बीच संग्राम का सीन कमोबेश कुछ वैसा ही था, जैसा इन दिनों अमरिंदर और सिद्धू के बीच रहा। पंजाब पाने के लिए अमरिंदर नेे हर दांव चला। नवंबर 2014 में पहली बार राहुल की काबिलियत पर सीधा सवाल उठाते हुए बगावत का बिगुल फूंका। वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने का भी आरोप जड़ा। एक तरह से कैप्टन और गांधी परिवार के बीच शीतयुद्ध चला। इस दौरान सोनिया तो नरम रही, लेकिन राहुल से उनके रिश्ते बिगड़ते चले गए।
यह भी कहा जाता है कि 'सोनिया गांधी पंजाब में अमरिंदर की वापसी पर एक हद तक सहमत थीं, लेकिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बाजवा के हाथ से कमान लेने को कतई तैयार नहीं थे।' राहुल और अमरिंदर के बीच कड़वाहट किस कदर बढ़ चुकी थी किताब में खुशवंत सिंह इसका खुलासा करते हुए कहा है '10 जनपथ पर पंजाब की कलह को दूर करने के लिए बैठक बुलाई गई थी। इसमें राहुल ने अमरिंदर को वैसा सम्मान नहीं दिया, जैसा एक वरिष्ठ नेता को दिया जाना चाहिए। बैठक के दौरान सोनिया को हस्तक्षेप कर राहुल को बताना पड़ा कि वह अपने पिता के दोस्त से बात कर रहे हैं। इसके बाद ही राहुल चुप बैठे।'
- लोकसभा चुनाव 2019 में असफलता अमरिंदर के पतन का कारण
इस बर्ताव से अमरिंदर इस कदर खफा थे कि उन्होंने राहुल को सीधे निशाने पर लेना शुरू कर दिया। कैप्टन ने कांग्रेस अपाध्यक्ष को जमीनी हकीकत जानने की नसीहत दी और नई पार्टी बनाने की धमकी तक दे डाली। हाईकमान पर दवाब बढ़ाने के लिए वह बीच-बीच में बीजेपी से नजदीकी दिखाने के दांव भी चलते रहे। पंजाब में बढ़ती कलह को दूर करने के लिए अक्तूबर 2015 की बैठक में राहुल ने अमरिंदर से सवाल किया, 'मैंने सुना है कैप्टन साहब कि आप अलग पार्टी बना रहे हैं?' इस पर अमरिंदर का जवाब था, 'आपने जो सुना है, बिल्कुल सही है। अगर मैं आपके खांचे में फिट नहीं बैठता हूं, तो मुझे विकल्प तलाशने ही पड़ेंगे। मैं पंजाब में रहता हूं और अकालियों ने इसे बर्बाद कर दिया है। अगर आपके पास मेरे लिए कोई प्लान नहीं है, तो मुझे अलग रास्ता चुनना होगा।' राहुल ने इस पर हिदायत देते हुए कहा- 'अगर आपने यह कदम उठाया तो हम दोनों को नुकसान होगा।' अमरिंदर ने भी तल्खी के साथ जवाब दिया था, 'चाहे ऐसा ही क्यों न हो।' तब कैप्टन की जिद के आगे कांग्रेस को झुकना पड़ा था और 10 साल बाद पंजाब में कांग्रेस की वापसी भी कराने का सेहरा भी उनको बंधा था, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सफलता नहीं मिलने पर वे फिर राहुल गांधी के निशाने पर आ गए और कांग्रेस ने पंजाब में लोकसभा चुनाव के दौरान अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाने और अमरिंदर सिंह की कुछ बढ़ती पीएम मोदी से नजदीकी उनके पतन का कारण बन गई।
- साभार.
- आर.के.मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार.
- नई दिल्ली.
Sir Achha likha h
ReplyDelete