Tamil superstar Surya 's film Jay Bheem police against injustice tribal women's struggle in hindi

  •  अन्याय के खिलाफ आदिवासी महिला का संघर्ष है "जय भीम"


मुबाहिसा: आर. के. मौर्य


भारत का दलित समाज इन दिनों दक्षिण भारत के तमिल सुपरस्टार सूर्या की फिल्म "जय भीम" को लेकर बहुत ही उत्साहित और रोमांचित है। यह फिल्म पुलिस द्वारा चोरी के झूठे में मामले में फंसाने के लिए पकड़े गए आदिवासी सपेरे को बुरी तरह पीटकर मार देने पर उसकी पत्नी द्वारा न्याय के लिए किए गए संघर्ष की कहानी है। 

फिल्म के नाम "जय भीम" को लेकर भारत रत्न बाबा साहेब डा. आंबेडकर के अनुयाई उत्साहित और रोमांचित हैं हालांकि पूरी फिल्म में प्रत्यक्ष रूप से एक सीन में बाबा साहेब आंबेडकर के नहीं होने पर एतराज जताया गया है और फिल्म के अंत में बाबा साहेब आंबेडकर के फोटो के साथ एक कविता लिखी गई है। इसके अलावा फिल्म में "जय भीम" से जुड़ा कोई सीन नहीं तो नहीं है, लेकिन आदिवासियों पर पुलिस के जुल्म और एक सच्चे ईमानदार वकील की कहानी को बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर के जीवन और विचारों से ही प्रभावित माना जा रहा। फिल्म को  बहुत ही मार्मिक चित्रण के साथ प्रस्तुत किया गया है, जिससे दलित बहुत ही भावुक हो सकते हैं।


  • ‘जय भीम’ आपको झकझोर कर रख देगी !

हमारे देश भारत में माना जाता हैं की "जय भीम"… ये दो शब्द अपने आप में वंचितों–शोषितों के संघर्ष और आत्मसम्मान की लड़ाई को बयां करने के लिए काफी हैं, क्योंकि जय भीम सिर्फ नारा नहीं बल्कि ज़ुल्म के खिलाफ विद्रोह का नाम है। इसी कड़ी में तमिल सिनेमा जगत से एक शानदार फिल्म रिलीज़ हो चुकी है जिसका नाम है जय भीम… तमिल सुपरस्टार सूर्या की फिल्म जय भीम नाम इसी से प्रेरित नाम है।


  • जय भीम फिल्म वाकई देखने लायक है?


मुझे तो इस फिल्म का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था इसलिए मैंने तुरंत देख डाली। लेकिन क्या जय भीम फिल्म वाकई देखने लायक है? क्या है फिल्म की कहानी और क्यों आपको ये फिल्म देखनी चाहिए? आगे आपको इन सभी सवालों के जवाब मिलने वाले हैं। तो सबसे पहले बात करते हैं फिल्म की कहानी की।


  • "जय भीम" फिल्म की कहानी ?

फिल्म में साल 1995 के दौरान तमिलनाडु में होने वाले जातीय उत्पीड़न और पुलिसिया बर्बरता को दिखाया गया है। ये फिल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित है… मतलब फिल्म में जिस तरह की दरिंदगी दलित–आदिवासियों के साथ होते दिखाई गई है, वैसी ही हैवानियत हो चुकी है और आज भी होती है। इसलिए इसे सिर्फ मात्र एक संयोग टाइप काल्पनिक कहानी नहीं माना जा सकता है।

फिल्म को देखते हुए वो पीड़ा महसूस होती है, जो असंख्य दलित–आदिवासी हर रोज़ सह रहे हैं। बात फिल्म की कहानी की करें तो ‘जय भीम‘ इरुलुर आदिवासी समुदाय के एक जोड़े सेंगगेनी और राजकन्नू की कहानी है। इरुलुर समुदाय के लोग सांप और चूहे पकड़ने का काम करते हैं। राजकन्नू को चोरी के झूठे आरोप में पुलिस पकड़ लेती है और इसके बाद वो उसको पुलिस हिरासत से लापता होने का पुलिस नाटक करती है। उसकी पत्नी उसे ढूंढने के लिए संघर्ष करती है। तमिल सुपर स्टार सूर्या ने चंद्रू नाम के वकील का किरदार निभाया है, जो कानून के ज़रिए मज़लूमों की मदद करना अपना मिशन समझता है।


  • पुलिस सिस्टम और जाति का क्रूर चेहरा 


"जय भीम" का पहला ही सीन आपको खींच लेता है। फिल्म की शुरुआत होती है जेल के बाहर से जहां कुछ कैदी अपनी सज़ा काटकर रिहा हो रहे होते हैं,  लेकिन जेल के बाहर खड़ा जेलर हर कैदी से उसकी जाति पूछता है। जिसकी जाति दलित, उसे अलग लाइन में खड़ा कर दिया जाता है और सवर्ण जाति के कैदी अपनी जाति बताकर चले जाते हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि भला ऐसा क्यों हो रहा है ? दरअसल इस सीन में दिखाया गया है कि आसपास के थानों से पुलिस वाले अपनी गाड़ियां लेकर यहां आए हुए हैं। उन्हें अपना रिकॉर्ड सुधारने और प्रमोशन के लिए कुछ अपराधी चाहिए, जिनपर वो झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल सकें या उनका फेक एनकाउंटर करके मेडल लेकर वर्दी पर एक सितारा और बढ़ा सकें।

जेलर इन दलित कैदियों को ऐसे बांट देता है जैसे कोई कसाई बचे हुए गोश्त को कुत्तों के सामने फेंक देता है। आपको सुनने में अटपटा जरूर लग सकता है, लेकिन भारत में लाखों दलित–आदिवासियों के साथ अक्सर इस तरह की ज्यादती होती रहती है। फिल्म का पहला सीन बता देता है कि कहानी किस ओर जाएगी। कस्टॉडियल टॉर्चर और जातिवाद के साथ–साथ फिल्म अशिक्षा, छुआछूत और आर्थिक गैर–बराबरी जैसी समस्याओं को भी बेहद मार्मिक रूप से टच करती है। लेकिन खास बात ये है कि इन सभी मसलों को इस तरह से कहानी में पिरोया गया है कि ये सब ज़बरदस्ती ठूंसे हुए नहीं लगते। मतलब कहानी देखने वाला बोर कतई नहीं होगा। 


  • जय भीम में दमदार अभिनय और निर्देशन 

सभी किरदारों ने जबरदस्त  अभिनय किया है। फिल्म का आकर्षण भले ही वकील चंद्रू है, लेकिन उसे स्टीरियोटाइप हीरो की तरह नहीं पेश किया गया है। सूर्या ने चंद्रू के रोल में शानदार काम किया है लेकिन डायरेक्टर टीजे ज्ञानवेल ने इस बात का ख्याल रखा है कि चंद्रू बाकी किरदारों पर हावी न हो जाए। यानी दक्षिण की कई फिल्मों की तरह हीरो की एंट्री पर तेज़ हवाएं नहीं चलती और न ही लोग हवाओं में उड़ने लगते हैं।

राजाकन्नू का किरदार मणिकंदन और सेंगेनी का रोल लिजोमोल ने निभाया है। मणिकंदन और लिजोमोल ने जबरदस्त अभिनय किया है। सेंगेनी जब पुलिस स्टेशन में अधमरे हो चुके राजाकन्नू को अपने हाथ से चावल खिलाते हुए मुंह खोलने के लिए कहती है तो देखने वाला अंदर तक हिल जाता है। सेंगेनी अनपढ़ आदिवासी महिला जरूर है लेकिन आत्मविश्वासी और न्याय के लिए डटे रहने वाली महिला दिखाई गई है।

वहीं प्रकाश राज हमेशा की तरह बेहद प्रभावी रोल निभाते हैं, एक ईमानदार पुलिस महानिरीक्षक के रोल में वो बताते हैं कि कैसे अगर पुलिस और जस्टिस सिस्टम अपना काम सही से करे तो लोगों को न्याय मिल सकता है। इन सबके अलावा सहायक किरदारों ने भी असरदार भूमिका निभाई है। फिल्म की एक बात और अच्छी है कि मैत्रा नाम की टीचर फिल्म में मजबूत कड़ी का काम करती है लेकिन हिंदी फिल्मों की तरह जबरदस्ती चंद्रू और मैत्रा के बीच लवस्टोरी नहीं घुसाई गई है। ये बात आपको अच्छी लगेगी क्योंकि हिंदी की ज्यादातर फिल्मों में हीरोइन को सिर्फ हीरो के रोमांटिक पहलू को दिखाने के लिए ही रखा जाता है नाकि कहानी के मुख्य पात्र के रूप में। इस फिल्म में हीरोइन भी अपने हिस्से का स्पेस मजबूती से बनाए रखती हैं। पुलिस स्टेशन और अदालत के सीन काफी रियल लगते हैं और डायलॉग भी काफी प्रभावी हैं।

  • बाबा साहेब डॉ आंबेडकर का प्रभाव 

इरुलर लोगों के पास ज़मीन नहीं है, इनकम का कोई साधन नहीं है इसलिए सांप–चुहे पकड़ने को मजबूर हैं। राजकन्नू ईंट भट्टे पर ईंट बनाते वक्त ईंट को देखकर कहता है ‘ना जाने मैंने कितनी ईंटे बनाई होंगी लेकिन अपने परिवार को पक्का मकान नहीं दे पाया’… फिल्म का ये डायलॉग सुनकर आपको बाबा साहब डॉ आंबेडकर का 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिया आखिरी भाषण याद आ जाएगा। बाबा साहब ने कहा था ‘26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे। लेकिन अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे।’ 

बाबा साहब की ये भविष्यवाणी सच साबित हुई है औैर फिल्म में इस सामाजिक–आर्थिक गैर–बराबरी की समस्या पर भी चोट की गई है। पा रंजीत की तरह ही जय भीम फिल्म में भी बहुजन प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है। चंद्रू के घर में बाबा साहब डॉ आंबेडकर और ई वी रामासामी पेरियार के साथ कार्ल मार्क्स की तस्वीर भी दीवार पर दिख जाएगी। एक सीन में स्कूल के बच्चे गांधी–नेहरू बने हैं तो चंद्रू पूछता है कि यहां नेहरू और गांधी तो हैं लेकिन आंबेडकर क्यों नहीं हैं ?

वॉइस ओवर में आपको बाबा साहब की आवाज़ सुनाई देती है। बाबा साहब कहते हैं ‘हम छुआछूत खत्म करना चाहते हैं। हम पिछले 2000 साल से छुआछूत झेल रहे हैं लेकिन किसी को इसकी फिक्र नहीं हुई’

बाबा साहब खुद वकील थे और उन्होंने कानून का सहारा लेकर दलितो, आदिवासियों, पिछड़ों और महिलाओं के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया था। इसी तरह चंद्रू भी कानून पर भरोसा करता है और कानून के सहारे ही न्याय के लिए संघर्ष करता है। एक जगह चंद्रू कहता है ‘कानून बहुत ताकतवर हथियार है लेकिन आप इससे किसे बचाते हैं, इससे जरूरी और कुछ नहीं होता’


  • असली है चंद्रू का किरदार, जिनको बाबा साहेब के जीवन से मिली प्रेरणा 


"जय भीम" की कहानी सच्ची है, साल 1993 में तमिलनाडु में चंद्रू नाम के वकील ने राजाकन्नू की पत्नी पार्वती का ये केस लड़ा था। उन्होंने मानवाधिकार उल्लंघन से जुड़े किसी भी केस में एक रुपया भी फीस नहीं ली। आगे चलकर चंद्रू मद्रास हाईकोर्ट के जज बने और उन्होंने बतौर जज करीब 96,000 केसों का निपटारा किया। जस्टिस चंद्रू ने अपने कार्यकाल में कई लैंडमार्क जजमेंट भी दिए। उनका कहना है कि उन्हें राजाकन्नू जैसे केस लड़ने और समझने में बाबा साहब डॉ आंबेडकर की राइटिंग्स और भाषणों ने बहुत मदद की। 

फिल्म खत्म होती है एक मराठी कविता जय भीम के साथ। स्क्रीन पर बाबा साहब की तस्वीर के साथ आता है  ‘जय भीम मतलब रोशनी, जय भीम मतलब प्यार, जय भीम मतलब अंधेरे से रोशनी की यात्रा, जय भीम मतलब करोड़ों लोगों के आंसू’


  • "जय भीम" मतलब: दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की पीड़ा 


फिल्म खत्म होते–होते  गहरा असर डाल जाती है। खासकर उन लोगों के लिए ये फिल्म देखना बेहद मुश्किल होगा, जिन्होंने ऐसी तकलीफें सही हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है कि देशभर में रोजाना औसतन करीब 100 मामले SC-ST एक्ट के तहत दर्ज होते हैं। भारत में रोजाना औसतन 10 दलित महिलाओं के साथ यौन हिंसा होती है। देश की जेलों में सबसे ज्यादा अंडर ट्रायल कैदी दलित–आदिवासी और मुस्लिम समाज से आने वाले लोग हैं। ये फिल्म देश में इन मसलों पर भी बहस का सवाल भी पैदा करती है।


  • साभार: आर.के.मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार.
  • नई दिल्ली

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