Doctor Ram Manohar Lohia and Goa
- मोदीजी, कृपया लोहिया को ठीक से जानिये !!
- के. विक्रम राव
नरेन्द्र मोदी ने अपने डेढ घंटे के संबोधन में गोवा मुक्ति संघर्ष के जनक डा. राममनोहर लोहिया का नाम केवल एक बार लिया। स्वतंत्रता दिवस के दिन तलईगांव में जनसभा कल (19 दिसम्बर 2021) थी। प्रधानमंत्री का यह उल्लेख भी केवल वाक्यांश के तौर पर। सरसरी रीति से। इससे नेहरुवादी अतीव प्रमुदित हुये होंगे। राष्ट्रभक्त मर्माहत।
इतिहास में दर्ज है कि सर्वप्रथम 18 जून 1946 को गोवा की साम्राज्यवादी पुर्तगाल सरकार को लोहिया की जनसभा से चुनौती मिली थी। उसे बाधित किया गया तथा लोहिया को नजरबंद कर दिया। यह चार सदियों की गुलामी के युग के में गोवा का प्रथम स्वाधीनता संघर्ष था। मगर उस दौर के नेहरु—समर्थक कांग्रेसी इस गोवा संघर्ष के प्रारम्भ की आलोचना करते रहे। ''लोहिया एक जीवनी'' में लेखक—द्वय अरविंद मोहन तथा ओम प्रकाश दीपक ने कहा था : ''नेहरु ने फरवरी 1947 को कहा था कि गोवा की आजादी का प्रश्न गौण है।'' बल्कि बताया था ''गुलाम गोवा केवल एक फुंसी है जिसे कभी भी मसला जा सकता है।'' मगर विपरीत विचार था महात्मा गांधीजी का। बापू ने मुक्तकंठ से लोहिया की सराहना की। इतना ही नहीं, 14 अगस्त 1946 को अपनी पत्रिका ''हरिजन'' में महात्मा गांधी ने लिखा, ''लोहियाजी को बधाई दी जानी चाहिए।'' गांधीजी ने गोवा की प्रजा पर पुर्तगाली सरकार के दमन की कड़े शब्दों में आलोचना की और पुर्तगाली प्रशासन द्वारा डॉ. लोहिया की गिरफ्तारी पर सख्त बयान दिया। गांधीजी ने नेहरु से कहा कि वह गोवा में डॉ. लोहिया की रिहाई सुनिश्चित करें। नेहरु ने इस मामले में हस्तक्षेप करने में अपनी असमर्थता जताई। गांधीजी ने कहा कि डॉ. लोहिया कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं, ''बल्कि भारत की आत्मा गोवा की जेल में है।'' उसके बाद गांधीजी ने भारत के वायसराय लॉर्ड वेवेल को पत्र लिखकर कहा कि वह डॉ. लोहिया की रिहाई के लिए पुर्तगाल की सरकार पर दबाव डालें। गांधीजी ने वायसराय और गोवा के चर्च से इस बारे में बार-बार अनुरोध किया। उनके प्रयास सफल हुए और 9 अक्टूबर 1946 को डॉ. लोहिया रिहा कर दिए गए।
नेहरु ने डॉ. लोहिया के संघर्ष को अनावश्यक तथा आतिशी कदम बताया था। पर लाहौर जेल की कठोर यातना का भोगी यह गांधीवादी यातना से क्यों पीछे हटता? फिर पंजिम में जो हुआ वह सर्व विदित है। बापू के समर्थन के बावजूद कुछ कांग्रेसियों ने डॉ. लोहिया के कदम को नापसंद किया लेकिन भारत के आधुनिक इतिहास का दुखद अध्याय यही है कि गोवा की मुक्ति को लेकर डॉ. लोहिया के जनसंघर्ष के पंद्रह वर्ष बाद देश के चेहरे पर मुहासे जैसा गोवा पूरा फोड़ा बन गया। गोवा के पुर्तगाली गवर्नर जनरल मैनुअल सिल्वा ने 11 दिसंबर 1961 को भारतीय मुक्ति सेना के मुखिया जनरल कुन्हीरामन पी. कैंडेथ के समक्ष आत्मसमर्पण किया और हिन्दुस्तान का आखिरी यूरोपीय उपनिवेश मुक्त हो गया।
यहां गमनीय बात है कि नेहरु का तर्क था कि गोवा, दमन द्वीव, दादरा नगर हवेली आदि पुर्तगाली उपनिवेश की जनता को खुद तानाशाह डा. एन्वोनिओ ओलिव सालाजार के विरुद्ध स्वतंत्र होने का संघर्ष चलाना चाहिये। अर्थात यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों के तुष्टिकरण की यह बात थी। जैसे भारत से कोई सरोकार नहीं है। पुर्तगाल स्वयं अधिनायकवादी गणराज्य था। ब्रिटेन और फ्रांस की भांति लोकतांत्रिक नहीं जो गुलाम भारत तथा पाण्डिचेरी के संघर्ष को समझकर उन्हें आजादी दे देता। दमन पुर्तगाली साम्राज्य की नीति रही। फिर नेहरु लगातार कहते रहे कि वे सैन्यबल से गोवा को मुक्त नहीं करायेंगे।
तो 19 दिसम्बर 1961 को नेहरु क्यों पलटे? तब भारतीय सेना ने गोवा में घुसकर पुर्तगाली गर्वनर—जनरल से आत्म समर्पण करा दिया। क्या कारण था? मूल बात यह थी कि तब (1962 फरवरी) तीसरी लोकसभा का आम चुनाव था। उत्तर मुम्बई सीट से नेहरु के रक्षामंत्री और कम्युनिस्ट चीन के यार रहे वीके कृष्णमेनन की पराजय तय थी गांधीवादी निर्दलीय प्रत्याशी आचार्य जेबी कृपलानी की विजय निश्चित थी। अपनी तथा अपने कम्युनिस्ट—समर्थक रक्षामंत्री मेनन को बचाने हेतु गोवा में नेहरु ने अपनी सर्वविदित, बारंबार कही गयी बात को झुठलाकर, बहुघोषित अहिंसक सत्याग्रह का मार्ग छोड़कर, सेना को चुनाव के ठीक डेढ माह पूर्व गोवा कूच करा दिया। उस जनावेश में मेनन जीत गये। मगर कीमत नेहरु ने चुकाई कि इसी मेनन का दावा झूठा पड़ा कि सीमा पर खतरा अमेरिका—समर्थित पाकिस्तान से है, न कि कम्युनिस्ट चीन से। फिर चीन ने भारत को (अक्टूबर 1962) हराया और मेनन को निर्वाचित होने के छह माह के अंदर काबीना से त्यागपत्र देना पड़ा। लेकिन तब तक पूर्वोत्तर और लद्दाख के बड़े भूभाग पर चीन का कब्जा हो गया था। आज भी है। इस बारे में भी डा. लोहिया चेतावनी दे चुके थे।
इसी परिवेश में नरेन्द्र मोदी का मुक्त गोवा के लिये डा. लोहिया के योगदान को पर्याप्त न आंकना और मामूली तौर पर दो चार शब्दों में समेट डालना, अत्यंत शोचनीय है। शायद भाजपा की सोच अभी भी नेहरु—अटल के अप्रत्यक्ष दबाव में है। वर्ना इतिहास को ऐसे कमतर नहीं आंका जाता। हम लोहिया के लोग मर्माहत हैं।
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