Dream of former chief minister Akhilesh Yadav
- अखिलेश का सपना !
- के. विक्रम राव
मथुराधिपति ने अखिलेश यादव को ख्वाब में सूचित किया था कि वे दोबारा यूपीपति बननेवाले हैं। किन्तु उनके भाजपाई शत्रुजन इसे मुंगेरीलाल टाइप बताते हैं। यूं तो द्वाराकाधीश मेरे भी स्वप्न में पधारे थे। अखिलेश के पास से वापसी पर। यदुनन्दन कृष्ण, दामोदर, वासुदेव, गोपिकाप्रेमी रुक्मिणीपति राधावल्ल्भ माधव मेरी तंद्रिल अवस्था में मेरे चक्षुओं के समक्ष प्रगट भये थे। वे बोले : ''मेरे वंशज ने ठीक ही कहा, पर अर्धसत्य था। मेरी मांग थी कि मुख्यमंत्री बनना हो तो अखिलेश को मतदान के पूर्व कृष्णमंदिर निर्मित करने का ऐलान करना होगा। गंगातट वाले शिव तथा सरयूतट वाले राम के मंदिरों से यह यमुनातट वाला दिव्यतर हो। अर्थात नाजायज अधिग्रहण द्वारा बनी औरंगजेबी मस्जिद ध्वस्त करनी जरुरी है। शायद अखिलेश सहमत हो जायें। सत्ता के लिये प्रत्येक डील स्वीकार्य होती है। कीमत जितनी भी हो। फिर राजनीति तो अल्पकालीन धर्म होता है कहा था अखिलेश के प्रणेता राममनोहर लोहिया ने।
इस बार 2012 और 2017 के चुनावों की तुलना में टक्कर भी तीव्र होगी क्योंकि सपा प्रमुख को आशंका है कि ''2022 का विधानसभा चुनाव लोकतंत्र बचाने का अंतिम निर्वाचन होगा।'' (अमर उजाला, 30 दिसंबर 2021)। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कृष्णजन्म स्थान से प्रत्याशी बनने का आग्रह है, तो अखिलेश से रामजन्मभूमि क्षेत्र से है। अत: दोनों, पूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्रियों को कृष्ण तथा राम के साये में वोट मांगना होगा। अखिलेश अपने दल की विजय से आश्वस्त हैं क्योंकि उनका मानना है कि : ''नाम बदलने वालों'' को यूपी की जनता बदल डालेगी (नवभारत टाइम्स, 26 नवम्बर 2021)। मतलब सपा की विजय पर अयोध्या का नाम वापस फैजाबाद हो जायेगा। वे बोले थे कि : ''अयोध्या में राम मंदिर बनने पर दर्शन करने वे जायेंगे और दक्षिणा भी देंगे (दैनिक आज, 5 दिसंबर 2021)।'' इस पर यूपी भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने कहा कि : ''अखिलेश यादव सीजनल (मौसमी) हिन्दू हैं।'' सपा मुखिया भी दृढ रहे कि :''भाजपा अपनी ऐतिहासिक पराजय हेतु तैयार रहे।''
इस कदर मजहब का मतदान पर जोर बढ़ रहा है। अबकी भी वही नजारा है। एक पुराने उपचुनाव (1948) का स्मरण कराता हूं। तब रामलला के बाबरी गुंबद तले प्रगट हुए साल भर ही बीते थे। समाजवादी नेता आचार्य नरेन्द्रदेव ने कानपुर अधिवेशन में नेहरु—कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी रची थी। सैद्धांतिक आधार पर विधायकी से त्यागपत्र देकर सोशलिस्ट प्रत्याशी बनकर आचार्यजी फैजाबाद से उपचुनाव लड़े। तब कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी बाबा राघवदास राममंदिर के मुद्दे पर वोट मांग रहे थे। वे मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत के उम्मीदवार थे। एक श्रोता ने रैली में आचार्यजी से पूछा कि : ''आपकी ईश्वर में आस्था है।'' आचार्यजी ने इनकार कर दिया। उधर कांग्रेसियों ने गंगा जल तथा तुलसीदल पर हिन्दुओं द्वारा वोट देने की कसम खिलायी। अनीश्वरवादी आचार्यजी हार गये। आज आचार्यजी के सहविचार वाली पार्टी का प्रत्याशी (सपाई) भगवान के नाम पर वोट मांगने से हिचक नहीं रहा है।
ऐसी ही माहौल 1963 में कन्नौज से लोकसभा उपचुनाव के वक्त था। कन्नौज आज जाना जाता है इत्र तथा अखिलेश के संसदीय चुनाव क्षेत्र के लिये। तब सोशलिस्ट प्रत्याशी थे डा. राममनोहर लोहिया। विरोधी थे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के आत्मीय डा. बालकृष्ण वी. केसकर। लोहिया जीत गये। मगर बाद में आम चुनाव (1967) लोहिया लड़े तो एक मुल्ला ने उनसे पूछा था : ''लोहियाजी क्या आप हमारा चार शादी का हक छीन लेंगे?'' लोहिया का सरल जवाब था: ''एक पत्नी व्रत होना हर पुरुष का कर्तव्य है।'' लोहिया बमुश्किल पांच सौ वोटों से जीते। अखिलेश तो मुसलमानों के चार पत्नी वाले कानून के पक्षधर रहें हैं।
यह दोनों मतदान (1963 और 1967) आज के विधानसभा के मतदान से कहीं ज्यादा दिलचस्प है। आस्था के मसले पर वोट मांगनेवाले भाइपाईयों को भी स्मरण करा दूं। बात 1963 की है। जौनपुर लोकसभा उपचुनाव में पंडित दीन दयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी थे। तभी रेलवे स्टेशन के पास पार्टी ने विशाल ब्राह्मण रैली आयोजित की थी। दीनदयालजी मुख्य वक्ता थे। उन्होंने भाग लेने से इनकार कर दिया। उनका तर्क बड़ा सहज था : ''यदि मैं ब्राह्मण रैली में गया तो मैं जीत सकता हूं। पर भारतीय जनसंघ हार जायेगी।'' पंडित जी नहीं गये। वे उपचुनाव हार गये। और परखें आज की भाजपा को?
- Courtsy:
- K.Vikram Rao, Sr. Journalist @kvikramrao
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