अफसरों की राय में मायावती की हार 
एक मेरे घनिष्ट प्रशासनिक अधिकारी ने फोन पर मायावती की हार के कारणों को लेकर अलग ही बात बताई। उनका कहना था कि तीन साल पहले सत्ता विरोधी रुझान की सरसराहट को अगर मायावती ने तनिक महसूस किया होता तो शायद वह इस माहौल को आंधी में बदलने से रोक सकती थीं, लेकिन वे केवल सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे सत्ता में वापसी का ख्वाब देख रहीं थीं। अब यह उनके लिए महज रेत का टीला ही साबित हुआ। बसपा इस सवाल को नहीं समझ पाई कि जब पांच साल के लिए पूर्ण बहुमत का जनादेश मिला है तो दागियों, माफिया को गले लगाने की क्या जरूरत है? अगर किसी का अपराध सामने आता है तो उस पर कार्रवाई करने में हिचकिचाहट क्यों रहती है? यह सवाल पहले बसपा काडर से उठता था धीरे-धीरे जनता के बीच उठने लगा। हर समस्या के लिए विरोधियों या केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ने वाली बसपा सरकार से जनता ने अब सपा के पक्ष में  जनादेश देकर पूछा है कि जब आपको केवल आरोप ही लगाना है तो आपकी जरूरत ही क्या है?
 पांच साल पहले बसपा को जो कामयाबी मिली थी उससे बड़ी कामयाबी सपा को इस बार हासिल हुई है। वहीं सपा ने बसपा क ो भी दस साल पहले की स्थिति में ढकेल दिया है।
असल में बसपा सुप्रीमो मायावती समझ नहीं पाईं कि जिस जंगलराजके खिलाफ वो 2007 के चुनाव जीतीं थीं, उसे दुबारा उछालने से कोई फायदा नहीं होने वाला। दूसरों की पांच साल तक खामियां गिनाने वाली बसपा इतने वक्त में कोई ऐसा बड़ा तसल्लीबख्श काम भी नहीं कर पाई जिससे उसकी खामियों पर पर्दा पड़ा रहता। इस बीच इतने वक्त में उनकी सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामों को भी जनता देखती रही है। असल में मायावती ने 2009 के लोकसभा चुनाव से पूरा सबक भी नहीं लिया। लिया होता तो वह सोशल इंजीनियरिंग के मुद्दे पर अत्याधिक भरोसा नहीं करतीं। जनता के बीच जातीं तो उन्हें अहसास होता कि किस तरह उन्हीं के अफसरों ने जनता से उन्हें काट दिया है। अफसरों की सलाह पर सुरक्षा के बहाने उन्होंने जनता के बीच जाना छोड़ दिया। चुनाव प्रचार के दौरान यह मुद्दा भी बना। वे अपनी सरकार की खराब होती छवि की चिंता करतीं। अपराधियों व दागियों लोगों पर ढुलमुल कार्रवाई के बजाए वास्तविक रूप से कार्रवाई करतीं। पर ऐसा नहीं हुआ। निजी पूंजी निवेश के नाम पर कुछ खास लोगों को फायदा दिलाया गया।
याद कीजिए, एनआएचएम घोटाले व स्वास्थ्य अधिकारियों की हत्या का मामला हो, शीलू निषाद का मामला या अन्य घोटाले-बसपा सरकार की प्रवृत्ति मामले को पहले दबाने की रही। जब हल्ला मचता तो वह बेमन से उस पर कार्रवाई करती। लोकायुक्त की जांच पर उसने दर्जन भर से ज्यादा मंत्रियों सरकार से तो बाहर किया लेकिन कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की और जब नसीमुद्दीन सिद्दीकी का नाम आया तो वह उसके साथ खड़ी हो गईं। बसपा का पूरा अभियान कांग्रेस, सपा, भाजपा को दिन रात कोसने में ही बीतने लगा।
बसपा को पिछले लोकसभा चुनाव में महज 22 लोकसभा सीटें मिली और इस आधार पर उसे 100 विधानसभा सीटों पर ही बढ़त मिली थी। यह उसके लिए खतरे की घंटी थी, लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती शायद इसे सुन नहीं पाईं  और नतीजतन वह 206 सीटों से घटकर  80 सीटों पर पहुंच गईं। मायावती को भरोसा था कि सतीश चंद्र मिश्र इस बार भी सवर्णों का समर्थन हासिल कर लेंगे, लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हुई।

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