जाति विरोधी भावना को महसूस नहीं कर पाईं मायावती जी!
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार धराशाई हो गई, जिसको लेकर कोई सत्ता विरोधी आंधी बता रहा है तो कोई मायावती के भ्रष्टाचार को लेकर जनादेश बता रहा है। मेरा इस परिणाम को लेकर अलग ही मानना है और इसको लेकर मैं 2009 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान भी कहता रहा हूं कि उत्तर प्रदेश में मायावती को सबल वर्ग ने वोट देकर पूर्ण बहुमत का दलित मुख्यमंत्री बनाया जरूर है, लेकिन मायावती के मुख्यमंत्री बनते ही किए गए व्यवहार को लेकर जातीय भेदभाव से सबल वर्ग उबलने लगा है। सभा के खुले स्थलों के मंचों पर प्रधानमंत्री की सभाओं का उदाहरण देकर एसी लगवाना. मंच पर अकेले बैठकर सबल वर्ग के मंत्रियों और विधायक से पैर छूने को देखकर सबल वर्ग पचा नहीं पाया। कई सबल वर्ग के मंत्रियों और विधायकों को इस बाबत कई बार अपने क्षेत्रों में विरोध भी झेलना पड़ा। 
जब मायावती और उनकी पार्टी ने 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री बनने की हुंकार भरी तो इसको सबल वर्ग अपनी आंतरिक दलित विरोधी भावना को दबा नहीं पाया और ऐसा अंडर करंट फैला कि 50 से ऊपर सांसद जीतने की उम्मीद लगाए बैठी मायावती को 20 सांसदों पर ही संतोष करना पड़ा। लोकसभा-09 के चुनाव परिणाम ने यह बात साबित कर दी थी कि अब सबल वर्ग विशेष रूप से ब्राहमण और राजपूत के साथ ही नव सबल वर्ग पिछड़ा वर्ग मायावती के मुख्यमंत्री बनने से चिढ़ने लगा है, लेकिन मायावती जी इस बात को शायद भांप नहीं पाईं। तब ही तो अति चतुर सबल वर्ग ने पूरे पांच वर्ष तक सत्ता का भरपूर उपभोग किया और मौका आने पर मायावती को धूल चटा दी। 
   आज मैं मायावती जी की प्रेस कांफ्रेंस सुन रहा था, जिसमें उन्होंने दावा किया कि उनका दलित वोट बैंक पूरी तरह उनके साथ रहा है। मेरा इसमें भी मानना है कि अभी भी मायावती जी कहीं न कहीं धोखे में हैं। अब दलित वोट बैंक में मायावती जी के साथ केवल दो जाति जाटव और चमार ही पूरी ताकत के साथ खड़ा है। बाकि सभी दलित जातियों ने अपने-अपने राजनीतिक ठिकाने तलाश कर लिए हैं और वैसे भी सभी राजनीतिक दलों ने बिहार की तरह बसपा के वोट बैंक जाटव और चमार को छोड़ अन्य सभी दलित जातियों को अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह भी है कि बसपा को छोड़ सभी दलों ने जाटव और चमार के अलावा सुरक्षित सीटों से अन्य जाति के प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। उनका यह प्रयोग काफी लाभ का सौदा भी साबित हुआ है, जिसको मायावती जी को गंभीरता से सोचना चाहिए।     
मायावती जी को यह भी सोचना चाहिए कि प्रशासनिक स्तर पर उन्होंने सर्वाधिकार संपन्न शशांक शेखर बनाया, जो जाट हैं और जाटों का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सीधा टकराव जाट और चमार जाति से है। माना जाता है कि एक जाट अधिकारी कभी भी दलित वर्ग का शुभचिंतक नहीं हो सकता है। उन्होंने राजनीतिक सर्वाधिकार संपन्न जोन कोआर्डिनेटर के रूप में जिन मुसलिम या फिर ब्राहमणों को बनाया, वे भी अभी सत्ता सुख प्राप्त करने के लिए भले ही मायावती जी के सामने उनके बड़े ही ‌विश्वासपात्र बनने का ढोंग कर रहे हों, लेकिन वास्तविकता में इस बार सत्ता के दौरान सभी ने अपनी-अपनी कई-कई पीढ़ी के लिए धन संपदा एकत्र करने का ही काम किया है। ऐसे में मायावती जी को आस्तीन के सांप बने सतीश मिश्रा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, शशांक शेखर जैसे लोगों से भी होशियार होने की आवश्यकता है।
मायावती जी को इस बात पर भी पुनर्विचार करना होगा कि वह राजा नहीं बल्कि एक जननायक हैं। उनको जनता के सीधे संपर्क में रहना चाहिए। उन्होंने अपने कार्यकाल में जिस तरह जनता विशेष रूप से आम दलित से  दूरी बनाई वह उनके लिए ही आत्मघाती साबित हुई है। मुख्यमंत्री आवास पर जनता दरबार बंद करने का निर्णय उनके लिए बड़ा घाटे का सौदा रहा। उनको सरकार का फीडबैक ही नहीं मिल पाया। प्रशासन ने एक षड़यंत्र रचकर जिलों के दौरे में उनसे जनता को नहीं मिलने देने के लिए कर्फ्य के से हालात पैदा किए, इसको खुद दलितों ने भी बुरा माना है।      

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