जब सभी हिंदू, फिर एक-दूसरे के प्रति विद्वेश कैसा ?


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माननीय सरसंघ चालक श्रीमान मोहन भागवत जी ने कहा है कि जो हिंदुस्तान में रहता है वह हिंदू है, चाहे वह किसी भी पूजा पद्धति व कर्म कांड में विश्वास करता है या नहीं भी करता चाहे वह नास्तिक भी क्यों न हो ?  हिंदू धर्म को परिभाषित करते हुए एक मुकदमे का फैसला करते हुए सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश जस्टिस दंडपाणि ने आख्या दी थी कि हिंदू कौन ?, उन्होंने फरमाया जो कर्म भोग, पुनर्जन्म व वेदों की व्यवस्था में यकीन रखता हो वह हिंदू है।
हिंदू महासभा के प्रख्यात नेता श्री दामोदर सावरकर के अनुसार जो भी इस हिंदुस्तान को अपनी कर्मभूमि व पुण्यभूमि मानता है, वह हिंदू है। अनेक वर्षों पहले हमारे ऋषियों ने एक श्लोक के माध्यम से इस धरती को नैतिकता व अध्यात्म की धरती कहा था व पूरे विश्व को इससे शिक्षा लेने का आह्वान किया था ।
"एतद देशसस्य प्रसुतस्य सकाशादग्र जन्मन:",
"स्वम् स्वम् चरित्रं शिक्षरेन्पृथिव्यां सर्व मानवा:"।
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने तिब्बत अर्थात त्रिविष्टप ( तिब्बत) को सभी मनुष्यों की उतपत्ति स्थल बताया था । उन्होंने इस देश का नाम आर्यावर्त तथा इसमे रहने वाले निवासियों को आर्य कह कर सम्बोधित किया था । उन्होंने कही भी हिन्दू शब्द का प्रयोग न करके आर्य  व वैदिक धर्म की बात की । आर्य समाज के दूसरे नियम में उन्होंने कहा कि "वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है तथा इसका पढ़ना व पढ़ाना, सुनना व सुनाना सभी आर्यों का परम धर्म है" ।  चार्वाक सहित अनेक नास्तिक ऋषियों ने हर प्रकार के कर्मकांड का विरोध किया तथा "ऋणम कृत्वा घृतं पिबेत" की बात की । भगवान बुद्ध व भगवान महावीर ने सनातन धर्म के मूल तत्व वेदों, पुनर्जन्म व कर्मकांड का विरोध किया। वहीं, समाज को नई दिशा देकर सनातन वैदिक धर्म से अलग मतों की स्थापना की। आद्य शंकराचार्य ने बौद्ध व जैन मत के विरुद्ध सतत अभियान चला कर सनातन धर्म की पुनर्स्थापना का कार्य किया ।
 महान सम्राट अशोक ने कलिंग के युद्ध के बाद बौद्ध धर्म स्वीकार कर अनेक मठों तथा बौद्ध विहार की स्थापना की। अपनी सुपुत्री संघमित्रा तथा सुपुत्र महेंद्र को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए सुदूर दक्षिण देश सिंघल द्वीप ( वर्तमान श्रीलंका) भेजा । इसके बाद ही सुदूर पूर्वी देशों ,मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। यह वह समय था जहाँ शंकराचार्य ने इन धर्मों का भरपूर विरोध किया और अपनी प्रश्नोत्तरी में लिखा "एक तरफ जैन मंदिर है और दूसरी ओर मदमस्त हाथी चला आ रहा है तो क्या करे"? उनका उत्तर था "मदमस्त हाथी के पैरों तले कुचला जाना ज्यादा बेहतर है जैन मंदिर में जाने की बजाय" । बौद्ध राजा हर्षवर्धन ने अपने राज्यकाल में दक्षिण व मध्य भारत के अनेक सनातन मंदिरों व मठों को ध्वस्त कर उन्हें बौद्ध केंद्र बनवाया। भक्तिकाल में गुरु नानकदेव, संत कबीर, गुरु रविदास ऐसे संत हुए जिन्होंने वैदिक मत मतांतर का विरोध किया तथा मानुष की एक जात की पैरवी की। इस सब के बावजूद शुद्रों के तमाम तबकों को न तो मंदिर प्रवेश मिला व न ही अन्य अधिकार । 
      17वीं शताब्दी में सिखों के नोवें गुरु तेगबहादुर जी के बलिदान के बाद दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने सिखों को केश, कड़ा व सैनिक वेश देकर "खालसा पंथ" की नींव डाली और सिखों को आदेश दिया "सब सिक्खन को हुकुम है,गुरु मान्यों ग्रन्थ"। अपने जीवन काल मे ही उन्होंने अपने सभी बच्चों को परोपकार के लिये शहीद होते देखा और बाद में महसूस किया कि अनेक लोगों की मौजूदगी के बावजूद भी कोई गुरु तेग बहादुर जी महाराज की मदद के लिये आगे नही बढ़ा । 
 18वीं शताब्दी में महात्मा जोतिबा फुले ने सत्य शोधक समाज की स्थापना की तथा अपनी अनुपम कृति "गुलाम गिरी" में तथाकथित सनातन धर्म को किन्ही ख़ास वर्ण व जातियों का धर्म बताया । 19वीं शताब्दी में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने अपने जीवनकाल में अपनी व अपनी समाज की दुर्दशा को देखकर उसका गहन अध्ययन किया तथा कहा कि हिंदू समाज चार मंजिला इमारत है, जिसमें एक मंज़िल का व्यक्ति दूसरी मंजिल में नहीं पहुंच सकता। अतः सबसे पहले उन्हें मनुष्यत्व का अधिकार चाहिए। उन्होंने कहा कि वे इस गले सड़े धर्म मे पैदा अवश्य हुए है पर मरना नहीं चाहते। उन्होंने आज़ादी से पहले ही अलग दलितस्थान की मांग की और इंग्लैंड में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में इसे  पुरजोर ढंग से रखा। यह तो महात्मा गांधी का पराक्रम था कि उन्होंने बाबा साहब को सहमत कर हिंदुस्तान में रखा। प्रसिद्ध दलित लेखक कांचा इलैया ने अपनी पुस्तक "मैं हिन्दू क्यों नही हूँ" में दलितों को इस देश का मूलनिवासी बताते हुए तर्क दिए है कि भारत की दलित व मूल संस्कृति किसी भी प्रकार से कथित हिंदू संस्कृति से मेल नहीं खाती । 
     भारत की स्वतंत्रता के बाद से जैन, बौद्ध तथा सिखों ने व्यापक आंदोलन कर स्वयं को कानूनन रूप से हिंदू धर्म से अलग करवाकर अल्पसंख्यक धर्म घोषित किया। जैसा कि मुस्लिम आदि हैं। आज़ादी से पूर्व जहां एक तरफ स्वतंत्रता का आंदोलन चल रहा था, वहीं देश की अन्य समस्याओं पर भी लोग जागृत थे। रहबरे आज़म सर छोटूराम तत्कालीन संयुक्त पंजाब में कांग्रेस व मुस्लिम लीग के समानांतर जमींदारा लीग बनाकर कार्यरत थे। पंजाब में जमींदार का अर्थ किसी सामंत व बड़े किसान से न होकर हर किसी व्यक्ति से हो जो खेती के काम से जुड़ा है। पाकिस्तान के संस्थापक व मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना एक जनसभा को संबोधित करने के लिए करनाल आए और लगे "मुसलमान पाकिस्तान" करने। उनके भाषण के दौरान ही एक साधारण किसान खड़ा हुआ और उसने सवाल किया "जिन्ना साहब  पहले बताओ मुसलमान पैदा हुआ या जाट" । ज़िन्ना के पास कोई जवाब नहीं बना और वह बोला कि लगता है तू छोटूराम के चक्कर में आ गया है। हर धर्म से पहले जाति है वर्ण है। क्या इसे मिटाए बिना कोई हिंदू बना रह सकता है।  
क्या सिख, जैन, बौद्ध ,ईसाई अथवा मुसलमान स्वयं को हिंदू मानने को तैयार है?  इन्हें तो छोड़े क्या दलितों को हिंदू मानने को तैयार हो ? मानने का अर्थ रोटी-बेटी के संबंध से भी है। लगता है यह दूसरा मनोवैज्ञानिक प्रयोग है। पहला नागरिकता कानून में संशोधन कर गैर मुस्लिम को नागरिकता देने का और दूसरा सभी को हिंदू कहने का। तीसरा प्रयोग आरक्षण को लेकर आने वाला है। यह सभी काम धीरे-२ होने हैं, ताकि हो भी जाए और पता भी नहीं चले।
    हिंदू तुरुप चाल इस देश की अखंडता, सार्वभौमिकता व एकता के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। ऐसी उद्घोषणाएं अन्य अल्पसंख्यक मतों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाएंगी व उनका आक्रोश उन्हें आंदोलित करेगा ।
  जब सभी हिंदू ही हैं फिर एक-दूसरे के प्रति विद्वेष कैसा?  हर पार्टी के आईटी सेल को हिदायत दीजिए कि अब मुसलमान समेत सभी एक हैं, इसलिए उनके खिलाफ विषवमन बंद करें। सोशल मीडिया पर आप एक हिंदू-मुस्लिम एकता की पोस्ट डालें फिर देखिए प्रतिकार। एक के मुकाबले 20-25 तक पोस्ट होंगी और धमकी भी कि पाकिस्तान भेज दिए जाओगे।
साभार : राम मोहन राय, पानीपत (हरियाणा)

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