क्रिसमस डै : ईसा मसीह की सिखावान
किसी दार्शनिक ने कहा है कि "भगवान नहीं जानते कि महापुरुषों को कैसे सजा दी जाए तो उन्होंने एक तरकीब ढूंढ निकाली- चेलों के रूप में।".....इतिहास गवाह है कि हर महापुरुष के मूल उपदेश को उसके चेलों ने इस तरह विकृत कर दिया कि कभी-कभी वह उपदेश ठीक विपरीत रूप में प्रस्तुत हो रहा है, जिससे अनेकों किस्म की गलतफहमियां पैदा हो रही है। कोई भी महापुरुषों चेलों की इन करतूतों से बच नहीं पाया है। ईसामसीह, महावीर भगवान ,बुद्धदेव से लेकर महात्मा गांधी तक सभी के साथ अन्याय करने में उनके चेले ही अगुवा रहे हैं।
बड़े दिन के मुबारक मौके पर ईसा मसीह के जीवन पर निगाह डालने पर पता चलता है कि करोड़ों इसाई श्रद्धालु समूची दुनिया में उनके जिस जन्मदिन को खूब धूमधाम से मनाते हैं, वह उनका जन्मदिन है ही नहीं। इधर के कुछ वर्षों में इतिहास के अनेकों खोए हुए पन्नों का पता चला है, जिससे चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।" रेड- सी- स्क्रोल्स" नाम से जाने गए दस्तावेज तथा अन्य खोज सामग्री से जो तस्वीर पेश हो रही है वह उस तस्वीर से बिल्कुल अलग है जो चर्च के द्वारा दो हजार वर्षों से पेश की जा रही है। दुर्भाग्य की बात यह है कि धर्म गुरुओं के द्वारा इन तथ्यों को दबाने की कोशिश भी कर रहे है।" पृथ्वी घूमती है" कहने वाले वैज्ञानिक गैलीलियो की चर्च द्वारा दी गई यातनाओं का दौर अभी थमा नहीं है। पश्चिमी जगत के जिन देशों में विज्ञान का चमत्कार जैसा विकास हुआ है उन्हीं देशों में अभी तक धर्म के क्षेत्र में संकीर्णता बनी हुई है, जिसके शिकार है स्वयं ईसा मसीह।
पिछले साल आठ दशकों से चल रही खोजों से जो तथ्य प्रकट हुए हैं ,उन्हें छोटे-छोटे लेखों द्वारा पश्चिम में कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया है, किंतु उनका संकलन कर पुस्तक रूप में प्रकाशित करने वाले अमेरिकी विद्वान Sh. Daniel Hoffmann ने हर दरवाजा खटखटाया पर विकासशील कहे जाने वाले पश्चिम जगत के किसी भी देश में किसी भी प्रकाशक ने धर्मगुरुओं के डर से उसे छापने की हिम्मत नहीं की। आखिर वह किताब छापी गई, भारत में विनोबा जी के पवनार आश्रम के प्रेस में, जिसका शीर्षक है - Essage on Early Christianity and its Betragal.
नई खोजो मे एक दिलचस्प बात यह है कि ईसा मसीह स्वयं शाकाहारी थे और उनके शिष्यों को भी शाकाहारी बनना पड़ता था। ईसा मसीह जैसे अहिंसा के पुजारी का शाकाहार आग्रह स्वाभाविक ही था। रोम में 'चर्च" की स्थापना के बाद यानी तीन-चार दशकों के बाद, धार्मिक विधि में मांस और मदिरा का प्रवेश हुआ और मांसाहार आम बात बन गई। विज्ञान के विकास के साथ आज शाकाहार की महिमा को पश्चिम जगत के कई विद्वान स्वीकार कर रहे हैं ।पश्चिमी देशों में शाकाहार के प्रचार प्रसार के लिए कई छोटे-छोटे समूह काम कर रहे हैं। भगवद गीता ने बहुत पहले सात्विक- राजस- तामस आहार का विश्लेषण कर, आहार शुद्धि की बात बताई थी। "जैसा खाओ अन्न वैसा बनेगा मन" वाली कहावतें लोक जीवन का हिस्सा बन गई थी। अहिंसा की साधना में शाकाहार की आवश्यकता पर जैन धर्म ने विशेष जोर दिया था ।बौद्धों में भी ऊंचे साधकों के लिए शाकाहार का विधान है। इसमें गांधी -विनोबा ने शाकाहार का विशेष प्रचार- प्रसार किया।किन्तु इस तथ्य को अभी तक उजागर नहीं किया गया कि ईसामसीह ने शाकाहार को आध्यात्मिक साधना का अनिवार्य अंग माना था।
यह मानी हुई बात है कि जो सेवा इसाई मिशनरी करते हैं, वह बेजोड़ है। दुनिया के कोने कोने में पहुंचकर दीन दुखियों की सेवा का करुणा कार्य कर वे सेवा की अद्भुत मिसाल पेश कर रहे हैं। हमारे देश में भी सुदूर जंगलों में , पहाड़ों में, जहां कोई नहीं पहुंचता है, वहां पर पहुंचकर शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवा, कुष्ठ सेवा आदि के द्वारा उपेक्षित जनता का उत्थान किया है। हर किस्म के बेसहारा का बेसहारा बन जाते हैं। इस सेवा को देख कोई भी सिर झुकाए बगैर नहीं रह सकता।
किंतु इस अनुपम सेवा के साथ जुड़ी हुई एक बात उस सेवा की महिमा को घटा देती है। विनोबाजी इसाई मिशनरियों की सेवा के लिए तारीफ करते हुए उनसे पूछा करते, "जैसे बड़ी हंडिया भर शुद्ध दूध में नमक की छोटी सी डली पड़ जाए तो सारा दूध फट जाता है ,उसी तरह आपकी इस उत्तम सेवा के साथ धर्म परिवर्तन वाली बात को जोड़ने से वही बात हो जाती है। क्या आप धर्म परिवर्तन किए बिना सेवा नहीं कर सकते हैं?उन ईसाई मिशनरियों ने सच्चाई के साथ जवाब दिया- धर्म परिवर्तन ही तो हमें प्रेरणा देता है सेवा करने की। उनके बिना कैसे चलेगा?
और यही बात है जो ईसाइयों की सेवा में खटास पैदा कर देती है और कहीं कहीं उन्हें संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर देती है। महापुरुष ईसा के महान संदेश पर धब्बा लगा देती है। सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या स्वयं ईसा यह मसीह चाहते थे?
हाल की खोजें बताती हैं कि ईसा मसीह ने कभी कोई नया धर्म स्थापित करने की सोची तक नहीं थी और न उन्होंने कोई 'चर्च' की स्थापना की थी। उनका उद्देश्य था शुद्ध साधकों का समूह बनाना, शुद्ध आचरण तथा सेवा के द्वारा प्रस्थापित धर्म पन्थों में घुसी हुई विकृतियों को दूर कर उन्हें परिशुद्ध बनाना, ताकि हर इंसान सही राह पर चल सके।' चर्च 'की स्थापना में तो सेंट पॉल के विचारों का प्रभाव है ,न कि ईसामसीह के विचारों का। तथ्य बताते हैं सेंट पॉल संगठित धर्मपंथ के पक्ष में थे ।इसी आधार पर काफी बाद में रोम में 'चर्च' की स्थापना हुई, जिसके सर्वोच्च धर्मगुरु पोप कहलाये गये ।यह परंपरा अभी तक चली आ रही है और सर्वाधिक संख्या "रोमन कैथोलिकों" की है, जो पोप की हर बात को प्रमाण मानते हैं। जिसके बारे में प्रश्न उपस्थित करना , धर्म विरोधी करार दिया जाता है ।इसी कारण इस पंथ में अधिक कट्टरता पाई जाती है। लेकिन विडंबना तो यह है कि इस कट्टरता के खिलाफ हुए विद्रोह के बाद जिसे प्रोटेस्टंट पंथ की स्थापना हुई, उसमें भी काफी विकृतियां है आ गई। धर्म परिवर्तन के मामले में कैथोलिकों और प्रोटेस्टंटो में होड़ लगी रहती है।
जब ईसा मसीह अलग धर्म पंथ ही कायम करना नही चाहते थे तो धर्म परिवर्तन के लिए कैसे स्वीकृति दे सकते थे? वह एक सच्चे आध्यात्मिक महापुरुष थे, जिनके हृदय में मानव मात्र के प्रति करुणा थी। मैं प्रस्थापित (धर्म को) उखाड़ फेंकने के लिए नहीं आया हूं। धर्म की परिशुद्धि करने आया हूं। जैसे ईसा- वचन इस भूमिका को प्रकट करते हैं। मेरे अन्य प्रासाद भी हैं। कहकर उन्होंने सभी धर्म पन्थों को समान मानने का संकेत दिया है। संगठित धर्म पंथ की स्थापना ईसा मसीह के विचार से कोसों दूर है ,इसलिए धर्म परिवर्तन कराना भी उनके विचार से कोसों दूर है। दुनिया इस बात को समझ लें तो ईसा मसीह का उपदेश अपने मूल स्वरूप में प्रकाशित होगा और तब ईसा मसीह का जन्मदिन मनाने के योग्य बन पाएंगे ।
लेखक : स्व. निर्मला देशपांडे पूर्व सांसद। 16 दिसंबर 1994
बड़े दिन के मुबारक मौके पर ईसा मसीह के जीवन पर निगाह डालने पर पता चलता है कि करोड़ों इसाई श्रद्धालु समूची दुनिया में उनके जिस जन्मदिन को खूब धूमधाम से मनाते हैं, वह उनका जन्मदिन है ही नहीं। इधर के कुछ वर्षों में इतिहास के अनेकों खोए हुए पन्नों का पता चला है, जिससे चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।" रेड- सी- स्क्रोल्स" नाम से जाने गए दस्तावेज तथा अन्य खोज सामग्री से जो तस्वीर पेश हो रही है वह उस तस्वीर से बिल्कुल अलग है जो चर्च के द्वारा दो हजार वर्षों से पेश की जा रही है। दुर्भाग्य की बात यह है कि धर्म गुरुओं के द्वारा इन तथ्यों को दबाने की कोशिश भी कर रहे है।" पृथ्वी घूमती है" कहने वाले वैज्ञानिक गैलीलियो की चर्च द्वारा दी गई यातनाओं का दौर अभी थमा नहीं है। पश्चिमी जगत के जिन देशों में विज्ञान का चमत्कार जैसा विकास हुआ है उन्हीं देशों में अभी तक धर्म के क्षेत्र में संकीर्णता बनी हुई है, जिसके शिकार है स्वयं ईसा मसीह।
पिछले साल आठ दशकों से चल रही खोजों से जो तथ्य प्रकट हुए हैं ,उन्हें छोटे-छोटे लेखों द्वारा पश्चिम में कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया है, किंतु उनका संकलन कर पुस्तक रूप में प्रकाशित करने वाले अमेरिकी विद्वान Sh. Daniel Hoffmann ने हर दरवाजा खटखटाया पर विकासशील कहे जाने वाले पश्चिम जगत के किसी भी देश में किसी भी प्रकाशक ने धर्मगुरुओं के डर से उसे छापने की हिम्मत नहीं की। आखिर वह किताब छापी गई, भारत में विनोबा जी के पवनार आश्रम के प्रेस में, जिसका शीर्षक है - Essage on Early Christianity and its Betragal.
नई खोजो मे एक दिलचस्प बात यह है कि ईसा मसीह स्वयं शाकाहारी थे और उनके शिष्यों को भी शाकाहारी बनना पड़ता था। ईसा मसीह जैसे अहिंसा के पुजारी का शाकाहार आग्रह स्वाभाविक ही था। रोम में 'चर्च" की स्थापना के बाद यानी तीन-चार दशकों के बाद, धार्मिक विधि में मांस और मदिरा का प्रवेश हुआ और मांसाहार आम बात बन गई। विज्ञान के विकास के साथ आज शाकाहार की महिमा को पश्चिम जगत के कई विद्वान स्वीकार कर रहे हैं ।पश्चिमी देशों में शाकाहार के प्रचार प्रसार के लिए कई छोटे-छोटे समूह काम कर रहे हैं। भगवद गीता ने बहुत पहले सात्विक- राजस- तामस आहार का विश्लेषण कर, आहार शुद्धि की बात बताई थी। "जैसा खाओ अन्न वैसा बनेगा मन" वाली कहावतें लोक जीवन का हिस्सा बन गई थी। अहिंसा की साधना में शाकाहार की आवश्यकता पर जैन धर्म ने विशेष जोर दिया था ।बौद्धों में भी ऊंचे साधकों के लिए शाकाहार का विधान है। इसमें गांधी -विनोबा ने शाकाहार का विशेष प्रचार- प्रसार किया।किन्तु इस तथ्य को अभी तक उजागर नहीं किया गया कि ईसामसीह ने शाकाहार को आध्यात्मिक साधना का अनिवार्य अंग माना था।
यह मानी हुई बात है कि जो सेवा इसाई मिशनरी करते हैं, वह बेजोड़ है। दुनिया के कोने कोने में पहुंचकर दीन दुखियों की सेवा का करुणा कार्य कर वे सेवा की अद्भुत मिसाल पेश कर रहे हैं। हमारे देश में भी सुदूर जंगलों में , पहाड़ों में, जहां कोई नहीं पहुंचता है, वहां पर पहुंचकर शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवा, कुष्ठ सेवा आदि के द्वारा उपेक्षित जनता का उत्थान किया है। हर किस्म के बेसहारा का बेसहारा बन जाते हैं। इस सेवा को देख कोई भी सिर झुकाए बगैर नहीं रह सकता।
किंतु इस अनुपम सेवा के साथ जुड़ी हुई एक बात उस सेवा की महिमा को घटा देती है। विनोबाजी इसाई मिशनरियों की सेवा के लिए तारीफ करते हुए उनसे पूछा करते, "जैसे बड़ी हंडिया भर शुद्ध दूध में नमक की छोटी सी डली पड़ जाए तो सारा दूध फट जाता है ,उसी तरह आपकी इस उत्तम सेवा के साथ धर्म परिवर्तन वाली बात को जोड़ने से वही बात हो जाती है। क्या आप धर्म परिवर्तन किए बिना सेवा नहीं कर सकते हैं?उन ईसाई मिशनरियों ने सच्चाई के साथ जवाब दिया- धर्म परिवर्तन ही तो हमें प्रेरणा देता है सेवा करने की। उनके बिना कैसे चलेगा?
और यही बात है जो ईसाइयों की सेवा में खटास पैदा कर देती है और कहीं कहीं उन्हें संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर देती है। महापुरुष ईसा के महान संदेश पर धब्बा लगा देती है। सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या स्वयं ईसा यह मसीह चाहते थे?
हाल की खोजें बताती हैं कि ईसा मसीह ने कभी कोई नया धर्म स्थापित करने की सोची तक नहीं थी और न उन्होंने कोई 'चर्च' की स्थापना की थी। उनका उद्देश्य था शुद्ध साधकों का समूह बनाना, शुद्ध आचरण तथा सेवा के द्वारा प्रस्थापित धर्म पन्थों में घुसी हुई विकृतियों को दूर कर उन्हें परिशुद्ध बनाना, ताकि हर इंसान सही राह पर चल सके।' चर्च 'की स्थापना में तो सेंट पॉल के विचारों का प्रभाव है ,न कि ईसामसीह के विचारों का। तथ्य बताते हैं सेंट पॉल संगठित धर्मपंथ के पक्ष में थे ।इसी आधार पर काफी बाद में रोम में 'चर्च' की स्थापना हुई, जिसके सर्वोच्च धर्मगुरु पोप कहलाये गये ।यह परंपरा अभी तक चली आ रही है और सर्वाधिक संख्या "रोमन कैथोलिकों" की है, जो पोप की हर बात को प्रमाण मानते हैं। जिसके बारे में प्रश्न उपस्थित करना , धर्म विरोधी करार दिया जाता है ।इसी कारण इस पंथ में अधिक कट्टरता पाई जाती है। लेकिन विडंबना तो यह है कि इस कट्टरता के खिलाफ हुए विद्रोह के बाद जिसे प्रोटेस्टंट पंथ की स्थापना हुई, उसमें भी काफी विकृतियां है आ गई। धर्म परिवर्तन के मामले में कैथोलिकों और प्रोटेस्टंटो में होड़ लगी रहती है।
जब ईसा मसीह अलग धर्म पंथ ही कायम करना नही चाहते थे तो धर्म परिवर्तन के लिए कैसे स्वीकृति दे सकते थे? वह एक सच्चे आध्यात्मिक महापुरुष थे, जिनके हृदय में मानव मात्र के प्रति करुणा थी। मैं प्रस्थापित (धर्म को) उखाड़ फेंकने के लिए नहीं आया हूं। धर्म की परिशुद्धि करने आया हूं। जैसे ईसा- वचन इस भूमिका को प्रकट करते हैं। मेरे अन्य प्रासाद भी हैं। कहकर उन्होंने सभी धर्म पन्थों को समान मानने का संकेत दिया है। संगठित धर्म पंथ की स्थापना ईसा मसीह के विचार से कोसों दूर है ,इसलिए धर्म परिवर्तन कराना भी उनके विचार से कोसों दूर है। दुनिया इस बात को समझ लें तो ईसा मसीह का उपदेश अपने मूल स्वरूप में प्रकाशित होगा और तब ईसा मसीह का जन्मदिन मनाने के योग्य बन पाएंगे ।
लेखक : स्व. निर्मला देशपांडे पूर्व सांसद। 16 दिसंबर 1994
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