मानवाधिकारवादियों,
लोकतंत्र-प्रेमियों, जनवादी योद्धाओं और विविध धनोपासक एनजीओ का समूह
निश्चित ही विकास दुबे की ‘हत्या’ को वीभत्स पुलिसिया अपराध करार देगा।
सर्वोच्च न्यायालय में जांच हेतु याचिका दायर हो चुकी है। विपक्ष तो कमर
कसकर धमाल करेगा ही| वे सब कागनेत्र से ही इस परिदृश्य को देखेंगे|
मानवतावादियों के दहशत के कारण यह दिवंगत द्विज, दो वेदपाठी (द्विवेदी),
यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण, पण्डित विकास दुबे पुलिस के मुठभेड़ के बजाय उसकी
गिरफ्त में रहता तो ?
वह
पहले केवल हिरासत (पुलिस तथा न्यायिक जेल) का निवासी बनता। फिर अभियोग
पत्र (चार्जशीट) पुलिस खरामा-खरामा साठ दिनों में भी तैयार न कर पाती, तो
जमानत लेकर, सीना तानकर छुट्टा घूमता, जैसा गत तीन दशकों से वह करता रहा
है। रासुका भी लगता तो एक सीमित अवधि तक ही। भाजपाई विधायक कुलदीप सिंह
सेंगर भी सालों तक मुक्त नागरिक जैसा था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कुछ समय
पूर्व निर्देश भी दिया था कि : “विकास दुबे के विरुद्ध पुलिस कोई जोर
जबरदस्ती (coercive) वाला कदम न उठाए|” यहाँ निखालिस तथ्य यह है कि दुबे
सभी राजनीतिक दलों का चहेता रह चुका था। इसकी अपराधी पारी शुरू हुई थी, जब
कांग्रेस (1989) सत्ता में थी। पूरा खेल अनवरत, निर्बाध चलता रहा। भला हो
योगी आदित्यनाथ का जिन्हें कोई लागलपेट है ही नहीं। धर्म-कर्म से राजकाज
में आए हैं। इसीलिए तुरंत-न्याय पर निर्णय किया। दुबे कैसा दुर्दांत था यह
सब प्रकाशित खबरे हैं।
बस
एक तर्क बड़ा मजबूत है। इसकी माँ सरला दुबे ने गत सप्ताह कह दिया था कि
विकास दुबे को मार दो। आज वे बोली कि कानपूर नहीं जायेंगी। पुत्र का चेहरा
भी नहीं देखेंगी। आमतौर पर हर माँ में ‘कैकेयी ग्रंथि’ होती है। सरला
दुबे पन्ना धाय सरीखी निकली| पुत्रमोह नहीं रहा। अब भले ही राजनीतिक दल या
मानवाधिकार गण कुछ भी मांग करें मगर इतना तो स्पष्ट हो चुका है कि
जन्मदायिनी को न कोई गम हुआ, न कोई मांग की।
तो इसे विचारणीय मानना चाहिए।
- अब प्रश्न है मुठभेड़ में मारे जाने वाला
अर्थात
पुलिस तंत्र ने न्यायतंत्र का हक़ हथियाया, जबकि तीनों पालिकाओं का
कार्यक्षेत्र बंटा हुआ है, कार्यकारी, विधायिका और न्यायतन्त्र का| यहाँ एक
मूल मसला उठता है। निर्भया (युवती ज्योति सिंह) बलात्कार काण्ड में नई
दिल्ली जिला अदालत से सर्वोच्च न्यायालय तक सुनवाई हरिकथा की भांति अनन्त
होती गई। द्रोपदी की साड़ी की तरह। सात वर्ष लग गए। उधर हैदराबाद में डॉ.
प्रियंका रेड्डी बलात्कार के दोषी का फैसला चार दिन में हो गया।
- जनता ने पुलिस पर पुष्प वर्षा की थी
अतः
न्यायपालिका द्वारा लगातार विलम्बित न्याय पर अब खुलकर बहस-मीमांसा होनी
चाहिए| तारीख पर तारीख वाला फ़िल्मी डायलाग याद आता है| जहां तीन करोड़
मुकदमें अभी सुनवाई के लिए बाकी हों, वहां प्रलय तक भी पीड़ितों का
कष्ट-निवारण मुमकिन नहीं होगा| देर से इंसाफ मिलना अर्थात अन्याय होना माना
जाता है। अतः नुक्ता यही है कि वकीलों से अनुनय-विनय की जाय, न्यायाधीशों
की चरण वंदना हो, निर्भया के साहसी माता-पिता की भांति न्यायार्थी तप करता
रहे, तभी शायद मंजिल मिलेगी, समाधान होगा। कितनों में इतनी धैर्यशीलता
होगी? मजबूरी में वह रणछोड़ हो जाता है। हर कोई पान सिंह तोमर जैसा योद्धा
बनता नहीं है।
अतः
पलायनवादिता होगी यदि दुर्दांत कुकर्मी विकास दुबे के एनकाउंटर पर मामूली
भटकती, बहकी बहस हो| तर्क इस पर हो कि ऐसी वारदात फिर न घटे, इसका उपाय और
मार्ग ढूंढें।
मेरे
साथी NDTV के कमाल खान ने सटीक सिनेरियो को रेखांकित किया। यदि विकास दुबे
मारा न जाता तो यही मंजर पेश आता कि वह राजनीति में बैंडबाजे के साथ
प्रवेश करता। सवर्णों का नेता बनता। विधानसभा या संसद पहुँचता। शायद माननीय
मंत्री बन जाता। यही सब वर्दीधारी इस पूर्व हत्यारे को सैल्यूट ठोंकते। और
हम पत्रकार उसकी बाइट लेने, उसके द्वार पर खड़े, पड़े रहते। तब यह अपराधी से
माननीय मंत्री बना नर पिशाच राष्ट्र और समाज को न्याय और प्रेम के कर्तव्य
पर लेक्चर देता। भला हो मुठभेड़ का कि ऐसी निकृष्ट प्रक्रिया से देश की
जनता को बचा लिया गया। अंततः स्वयं विरंचि, चतुरानन, पितामह, प्रजापति,
विधाता, सृष्टिकर्ता, परमपिता, परमात्मा ब्रह्मा ही इस हत्यारे ब्राह्मण पर
उसके कर्मफल के अनुसार निर्णय देंगे। कोई अन्य विकल्प उपलब्ध है?
- K Vikram Rao Sr. Journalist, Mobile : 9415000909
E-mail : k.vikramrao@gmail.com
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