Chinese Dragon 's grass Can become tiny

  •  ड्रैगन का ग्रास न बने एक और नन्हा !



  • के. विक्रम राव    


        अरब महासागर पर स्थित भारत के लक्षद्वीप समूह से दस हजार किलोमीटर दूर मगर क्षेत्रफल में उसका आधा और आबादी में एक तिहायी, प्रशांत महासागर का इस पिद्दी से सालोमन द्वीप समूह ने विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन के नाकों में दम कर रखा है। गत सात दशकों में बलवान भारत भी कभी भी ऐसा नहीं कर पाया। गत सोमवार को (6 दिसम्बर 2021) सालोमन राष्ट्र की संसद में प्रधानमंत्री मानासेह सोगावारे की सरकार डांवाडोल थी क्योंकि उसने बागी ताईवान गणराज्य से 36 साल वाले पुराने संबंधों को तोड़कर कम्युनिस्ट चीन से पल्ला बांध लिया था। नेहरु से नरेन्द्र मोदी की सरकारों तक किसी का भी साहस नहीं हुआ, बल्कि कोई में भारत सरकार हौसला नहीं जुटा पायी कि इस संघर्षरत, दिलेर द्वीपराष्ट्र बागी ताइवान से करीबी बना सके। साम्राज्यवादी चीन की धौंस और धमकी को नकार सके।


        कल (6 दिसंबर) को सालोमन द्वीप राष्ट्र से खबर आयी कि ताइवान से दोस्ती के मसले पर चीन—परस्त सोगावारे सरकार से कोई विरोध कर नहीं सकता है। जब नेहरुवादी भारत सरकार स्वयं ताईवान को चीन का भूभाग मानता चला आ रहा है तो इस नन्हे देश की क्या बिसात वह कुछ कर पाये?


       सलाम करें सालोमन संसद में नेता प्रतिपक्ष मैथ्यूवाल को। उनके मात्र पन्द्रह सांसदों ने प्रधानमंत्री के बत्तीस सांसदों को सदन में डुला दिया। हालांकि उनका अविश्वास प्रस्ताव गिर गया। किन्तु त्रासदी यह रही कि भारतहितकारी यह समाचार इस चीन—परस्त सरकार को नतमस्तक कर  सुदूर सागर की लहरों को लांघने के बावजूद भारत के केवल चैन्नई वाले दैनिक में प्रकाशित हुआ। और किसी अन्य पत्र—पत्रिका में ​स्थान नहीं पा पाया।


       परिहास नहीं है। चीन ने चावल मुफ्त में भेजकर सालोमन द्वीप राष्ट्र में वोटरों को लुभा लिया। जबकि विपक्ष का दावा रहा कि शीघ्र ही जनता इन राष्ट्रद्रोहियों को शिकस्त देगी। अर्थात इतना तो हो गया कि सालोमन गणराज्य के सर्वाधिक जनसंख्या वाले प्रदेश मलाइटा के ताइवान—प्रशंसक मतदातागण कम्युनिस्ट तानाशाही से संबंध तोड़कर ही सांस लेंगे।


       इस द्वीप राष्ट्र पर दो ही प्रतिद्वंद्वी आमने—सामने भिड़ रहे है। लोकतांत्रिक भारत और कम्युनिस्ट चीन। चीन—विरोधी नमकीन—पानी (समुद्रतटीय) जनता भी अब झाड़ीवासी जनजातीय चीनभक्त लोगों से अनवरत संघर्ष में जुटी है। जब 1978 में मलिका एलिजाबेथ के राज का यह खूबसूरत द्वीपराष्ट्र आजाद हुआ तभी से प्रशांत सागर के इस अनमोल मोती को लालची चीन के शासक लपलपाती नजर से घुरते रहे। गिद्ध दृष्टि गड़ायें थे। आक्रोशित मलैता द्वीप के राज्यवासियों ने जनआन्दोलन चलाया। संसद भवन में आग लगा दी। उनका खुला समर्थन ताइवान के लिये था। मगर बहुमत के बल पर प्रधानमंत्री मानासेह सोगावारे ने चीन से दौत्य संबंध जोड़ लिया। ताईवान से नाता तोड़ दिया। फिर भी चीन—विरोध की चिनगारी धधकती रही।


       इसी बीच भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार पुरानी सरकारों की लीक से हटकर सालोमन राष्ट्र से विकास के नये आयाम जोड़ती रही। यूं तो मई 1987 से नरसिम्हा सरकार ने सालोमन द्वीप में कूटनीतिक कार्यालय खोला था पर अधिक ध्यान दिया नहीं। हालांकि पश्चिमी अफ्रीका के बुर्कीना फासो (स्वाहिली में ''ईमानदारों का देश'') सरीखे लघु गणराज्य में जरुर भारत का दूतावास खुल गया।


       मोदी शासन ने एक लाख डॉलर (7 करोड़ रुपये) सालाना सहायता तय किया। मगर पहले के किसी भी प्रधानमंत्री ने इस सागरिक महत्व के द्वीप समूह पर ध्यान नहीं दिया। इसी से लोलुप चीन की नौसेना ने अपना अड्डा निर्मित करने की साजिश रची। व्यापार की दृष्टि से एशियन और वर्जर पेन्ट (रंग) की कम्पनियों ने कुछ आर्थिक रिश्ते कायम किये।


      हालांकि सालोमन द्वीपों पर भारतीयों की संख्या केवल बीस जन ही है। वे सब इस द्वीप समूह के विकास में जुटे है। उनका संगठन भारतीय मूल की जनता की संख्या में बढ़ोत्तरी कर रहा है। व्यापार तो  बढ़ सकता है, पर उद्योग नहीं क्योंकि ढांचागत संसाधन उपलब्ध नहीं है। चीन की दृष्टि इसी पर है।


  • K Vikram Rao, Sr. Journalist
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