CORONA LOCKDOWN : मीडिया नहीं भांप रही जन अविश्वास का खतरा

  • CORONA LOCKDOWN : मीडिया नहीं भांप रही जन अविश्वास का खतरा  
                                                                   
  • मुबाहिसा : आर.के. मौर्य                                      
कोरोना से निपटने को बचाव के रूप में पूरी दुनिया ने डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइन पर सबसे बड़े बचाव के रूप में  लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग के हथियार को अपनाया। हालॉकि शुरूआत में  कोरोना वायरस के  फैलाव के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार चीन से लेकर सभी देशों ने इसकी अनदेखी की।  कोरोना की भयावहता अब पूरी दुनिया में चरम पर है। दुनिया में करीब पचास लाख लोग कोरोना की चपेट में आ चुके हैं, जिनमें काफी लोग सही भी हो रहे हैं, इसके बावजूद करीब सवा तीन लाख लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। यह आँकड़ा कभी भी एक शतक पहले आई महामारी स्पेनिश फ्लू से पीड़ितों और जान गंवाने वालों के आँकड़ों को पछाड़ भी सकता है। इससे यह भी साबित होता है कि कोई भी देश अपने को 100 साल में किसी महामारी से लड़ने के लिए आत्मनिर्भर नहीं कर पाया है। हालात कमोबेश सभी देशों के एक समान हैं। सभी देशों में चिकित्सा संसाधन जवाब दे गए हैं।
  • कोरोना महामारी की शुरूआत
 माना जा रहा है कि चीन में कोरोना वायरस का 17 नवंबर को पता चल गया था, लेकिन चीन सरकार ने विश्व को पता न चल पाने देने की हर संभव कोशिश की। आखिर कोरोना की सूचनाएं लीक होने लगीं और बेकाबू होते हालातों पर काबू नहीं होता देख चीन सरकार ने 31 दिसंबर 2019  को डब्ल्यूएचओ को सूचना देने की औपचारिकता निभाई। यह कैसी रही होगी, यह इसी से साबित होता है कि इस सूचना को डब्ल्यूएचओ ने भी गंभीरता से नहीं लिया, जिसका नतीजा पूरी दुनिया भुगत रही है। प्रथम सूचना के लगभग एक माह में कई बार अपनी गलतबयानी से दुनियाभर के निशाने पर WHO ने 22 जनवरी 2020 को कोरोना को वैश्विक महामारी घोषित किया। इसके बाद हालात ये हैं कि अमेरिका समेत सभी देशों में रोजाना मौतों की संख्या निरंतर बढ़ रही है और हालात सामान्य होने में अभी लंबा समय लगेगा।
  • वैश्विक महामारी घोषित होने के बावजूद हुए बड़े आयोजन   
WHO  द्वारा वैश्विक महामारी घोषित करने के बावजूद सभी देशों में भारी भीड़ जुटने वाले कार्यक्रम बेरोकटोक होते रहे। भारत में पहला कोरोना केस केरल में जनवरी में मिल गया था, हालांकि वह उपाचर के बाद ठीक कर लिया गया था। वैश्विक महामारी घोषित होने के बावजूद हमारे देश में भी बड़ी भीड़ वाले आयोजन बेरोकटोक चलते रहे, जिनमें केंद्र सरकार का नमस्ते ट्रंप हो या फिर निजामुद्दीन मरकज का जलसा। पर आज तक किसी भी मीडिया हाउस ने नमस्ते ट्रंप जैसे बड़े आयोजन को मुद्दा नहीं बनाया, जबकि अन्य जानकारी के अभाव में लॉकडाउन घोषित होने से पहले छोटे-छोटे आयोजनों  को लेकर मीडिया ने खूब शोर मचाया और उन आयोजनों को लेकर एक तरह सख्त से सख्त कार्रवाई की भी बात कही गई, यह कौन सी पत्रकारिता हो रही है, ये बात अब आम आदमी तक समझता है !
 

  • मजदूर पीड़ा में
लॉकडाउन जारी रखने को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। एक बड़ा सवाल, हमारे देश में लॉकडाउन के दौरान मजबूर हुए मजदूरों की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ?, भी खड़ा हुआ है। देशभर में इस सवाल को लेकर कांग्रेस  भाजपा सरकार को घेरे हुए है। कांग्रेस मजदूरों के मुद्दे पर अब तक दो बार सरकार को बैकफुट पर ला चुकी है, एक, सरकार द्वारा मजदूरों से स्पेशल ट्रेनों में अतिरिक्त शुल्क के साथ भाड़ा वसूली करने पर कांग्रेस द्वारा मजदूरों का भाड़ा अदा करने की घोषणा और दूसरा, अब मजदूरों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए 1000 बसों को यूपी बॉर्डर पर लगा देने से पूरी सरकार ही हिल गई। इस पर सरकार को कुछ राह नहीं दिखी तो बस वाहनों की वैद्यता की बात करके मुकदमे दर्ज करा दिए।  जब मजदूरों की पीड़ा को देखने की कांग्रेस और कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़कर विपक्षी दल भी मजदूरों को इस हाल में पहुँचाने वालों की बगलगीर बने हैं। और मीडिया का हाल तो बुरा है, जिनमें एक भाजपा समर्थित सांसद के चैनल के महान संपादक तो मजदूरों के ल‌िए कहते सुने गए कि जब ये मजदूर शराब खरीदकर पीते हैं, तो फिर रेलगाड़ी का भाड़ा अदा क्यों नहीं कर सकते हैं ? ये हाल है इस आधुनिक भारत के जिम्मेदार नई पीढ़ी के पत्रकारों का।   
  • पत्रकारिता खो रही जनविश्वास
हर ओर से निराश और हताश हर पीड़ित मीडिया की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखता है, यही उम्मीद देश में मजबूर बने करोड़ों मजदूरों की भी रही होगी, लेकिन हमारे आधुनिक पत्रकारिता जगत में जब किसी गरीब की झौपड़ी और उसकी पीड़ा का भी मखौल उड़ाने की आदत हो गई हो तो उनसे किसी हमदर्दी या हक की बात उठाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इस दौरान मीडिया का रवैया मजबूर मजदूरों के हक में नहीं दिख रहा है, बल्कि कई मीडिया हाउस जहां सरकारी प्रवक्ता ही बने दिखाई दे रहे हैं, वहीं कुछ मजबूर मजदूरों और कांग्रेस को ही गलत साबित करने में तुले हैं।  इन हालातों के लिए आखिर कौन जिम्मेदार हैं, इसको देशवासी समझते नहीं हैं क्या ? अपने  निहित स्वार्थों की प्रतिपूर्ति के लिए सरकारों का पक्षकार बनना कोई नई बात नहीं है, लेकिन ऐसी पत्रकारिता,  जिससे जनविश्वास समाप्त होने लगे, यह पिछले कुछ वर्षों से ही देखने को मिल रहा है। पत्रकारिता अपने धर्म और कर्तव्य से विमुख होकर जन विश्वासघाती होती जा रही है।
मित्रों, भारत में पत्रकारिता का जन्म केवल सूचनाएं देने वाले माध्यम के रूप में नहीं हुआ, बल्कि यहां अंग्रेजी हुकुमत की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए आजादी के संघर्ष के गर्भ से पत्रकारिता का जन्म हुआ है। इसका खयाल भी नए जमाने की पत्रकारिता और पत्रकारों को रखना चाहिए। अब नहीं समझे, तो फिर जन अविश्वास की आंधी में पत्रकारिता को उड़ते देर नहीं लगेगी और बाद में सोचने से कुछ नहीं होगा। इसलिए पत्रकारों और मूल रूप से पत्रकारिता के पुरोधाओं द्वारा स्थापित किए गए मीडिया घरानों को आत्ममंथन करने की जरूरत है।           

  • साभार : 
  • आर.के. मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार।

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