Mahabharata (VIDEO): सूर्य पुत्र कर्ण को माता कुंती ने बनाया सूत पुत्र, हुआ कदम कदम पर अपमान




  • Mahabharat : दुर्योधन से दोस्ती का अंतिम सांस तक निभाया कर्ण ने
  • अपमानित किए जाने पर कर्ण को दुर्योधन ने भरी सभा में बनाया अंगदेश का राजा

महाभारत में कर्ण को भले ही हर मोड़ पर पाप का साथ देने वाला योद्धा साबित करने की कोशिश की गई।  कर्ण की हर मौके पर बुराई ही दिखाई दी। फिर चाहे वह द्रौपदी चीर हरण हो या फिर हर अन्याय के फैसलों में अपने दोस्त दुर्योधन का साथ देना। कर्ण के जीवन को जब भी देखा जाता है तो उसमे बुराइयाँ ही दिखाई देती हैं। हालाँकि कर्ण के अंदर अच्छाइयों का अथाह भंडार था।
  • कर्ण अर्जुन से भी बड़े तीरंदाज थे
महाभारत में कर्ण का शुरूआती जीवन बहुत सारी कठिनाइयों से भरा रहा था, क्योंकि वह एक सूतपुत्र माने जाते थे। चूंकि अनाथ कर्ण का पालन पोषण एक रथ चालक ने किया था। और रथ चालक निचले दर्जे की जाति से था।  इसकी वजह से ही कर्ण को तमाम मुश्किलें सहनी पड़ीं। उन्हें वह अधिकार नहीं मिले थे, जो बाकी लोगों को मिलते थे। कर्ण भले ही सूतपुत्र के नाम से जाने जाते थे मगर उनकी रगों में वीरता का खून था, इसलिए ही वह बचपन से धनुष-विद्या सीखना चाहते थे। माना जाता है कि कर्ण बचपन से ही एक अच्छे तीरंदाज थे। अपनी इस खूबी को नए मुकाम तक लाने के लिए वह बड़े गुरुओं से इसे सीखना चाहते थे। इसलिए वह सीधे गुरु द्रोणाचार्य के पास गए। कर्ण ने द्रोणाचार्य से कहा कि वह उनके शिष्य बनना चाहते हैं और उनसे धनुर्विद्या सीखना चाहते हैं।
  • गुरु द्रोणाचार्य ने कर्ण को सिखाने से किया मना
गुरु द्रोणाचार्य ने कर्ण की यह इच्छा पूरी नहीं होने दी और उन्हें कुछ भी सिखाने से मना कर दिया। ऐसा करने के पीछे उनकी वजह थी कि कर्ण क्षत्रिय नहीं थे। द्रोणाचार्य किसी भी गैर क्षत्रिय को अपनी युद्ध कला की विद्या नहीं सिखाते थे। द्रोणाचार्य से तो कर्ण को कुछ सीखने को नहीं मिला मगर इससे उनके हौंसले पर कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने सोच लिया कि अब वह गुरुओं के गुरु भगवान परशुराम से धनुर्विद्या सीखेंगे।
  • परशुराम के यहां भी शर्त क्षत्रिय की थी
परशुराम के पास से सीखना आसान था मगर उनकी एक ही शर्त थी कि सीखने वाला क्षत्रिय नहीं होना चाहिए। कर्ण के पास तब तक खुद के क्षत्रिय होने का ज्ञान नहीं था, इसलिए उन्होंने सीखना शुरू कर दिया। उन्होंने थोड़े ही समय में धनुर्विद्या में महारत हासिल कर ली। इतना ही नहीं उन्होंने महान ब्रह्मास्त्र का मंत्र तक प्रभु परशुराम से सीख लिया था। कहते हैं कि उस समय में वह अर्जुन से भी बड़े धनुर्धारी बन गए थे मगर तभी उनकी किस्मत बदल गई, लेकिन परशुराम को जब पता चला कि कर्ण एक क्षत्रिय नहीं  हैं, इसलिए उन्होंने कर्ण को श्राप दे दिया। उन्होंने कहा कि जिस दिन उन्हें अपनी युद्ध कला की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, उस दिन ही वह उसे भूल जाएंगे।
  • धनुर्विद्या के प्रदर्शन में कर्ण की जाति का सवाल उठाया
गुरुकुल में शिक्षा पूरी होने के बाद युद्ध कला का प्रदर्शन हुआ, जिसमें गुरु द्रोण के शिष्य पांडव व कौरव शामिल थे। उस प्रदर्शन में सभी योद्धाओं को अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन करना था। अर्जुन ने भी अपनी कला दिखाई मगर जब अचानक कर्ण मैदान में आए, तो सब हैरान हो गए। कर्ण की धनुर्विद्या अर्जुन से भी अच्छी प्रतीत हो रही थी। किसी को यह आभास भी नहीं था कि कर्ण ऐसा कर सकते हैं। हर कोई आश्चर्यचकित हो गया था। उस दिन सबको पता चल गया कि कर्ण अर्जुन से भी बड़े धनुर्धारी हैं। हालाँकि, उनकी जाति पर प्रश्न उठाकर उन्हें मुख्य प्रतियोगिता में भाग नहीं लेने दिया गया था।
  • दुर्योधन ने जाति की परवाह किए बगैर कर्ण को बनाया दोस्त, छोड़ा सिंहासन
कर्ण ने भले ही अपने जीवन में और किसी भी चीज की परवाह न की हो मगर दोस्ती उन्होंने हमेशा दिल से निभाई। दुर्योधन और कर्ण की दोस्ती इतनी पक्की थी कि दोनों एक दूसरे पर आँख मूंद के विश्वास करते थे। इस दोस्ती की शुरुआत उसी प्रदर्शन में हुई जहाँ कर्ण ने अपनी धनुर्विद्या को सबसे सामने दिखाया था। अपनी कलाओं को दिखाने के बाद कर्ण ने अर्जुन को द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा था। तभी गुरु कृपाचार्य ने कर्ण को रोका और उनसे उनके खानदान और वंश के बारे में पुछा। वह जानते थे कि कर्ण राजकुमार नहीं है. न ही क्षत्रिय! कहते हैं कि द्वंद्वयुद्ध के नियमों के अनुसार केवल दो राजकुमार ही एक दूसरे से इस प्रकार लड़ सकते थे।
यहां भी सूतपुत्र होने के कारण कर्ण को यहाँ भी उनके हक से दूर रखा गया। यह देख दुर्योधन को अच्छा नहीं लगा। वह उठे और उन्होंने तुरंत ही कर्ण को अंगराज घोषित कर दिया। कर्ण खुद भी नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर दुर्योधन ऐसा क्यों कर रहे हैं?,  हालांकि उनके ऐसा करने की वजह से कर्ण एक राजा बन गए और अर्जुन से लड़ने के योग्य भी।
मन में कई सवाल लिए कर्ण दुर्योधन के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि इस मदद के बदले में उन्हें क्या चाहिए। दुर्योधन ने बताया कि इसके बदले उन्हें बस कर्ण की दोस्ती की दरकार है। इस एक घटना ने कर्ण को दुर्योधन का सच्चा मित्र बना दिया।
और कर्ण ने कभी भी इसके बाद दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा। कहते हैं कि वह हर समय दुर्योधन की भलाई के लिए उन्हें समझाते रहे थे। वह तो दुर्योधन ताकत के नशे में चूर थे, इसलिए उन्होंने कभी भी कर्ण की बात पर खास गौर नहीं किया। महाभारत के युद्ध में भी वह दुर्योधन के लिए खुद को कुर्बान करने के लिए तैयार थे।
  • भगवान कृष्ण भी कर्ण को नहीं कर पाए थे विचलित
दुर्योधन से कर्ण की दोस्ती कितनी पक्की थी इस बात का एहसास एक किस्से से होता है। कहते हैं कि युद्ध से पहले एक दिन श्री कृष्ण कर्ण के पास आते हैं। वह उन्हें बताते हैं कि कुंती उनकी असली माँ है और पांडव उनके भाई हैं। वह कर्ण को युद्ध में पांडवों का साथ देने के लिए कहते हैं। इसके साथ वह उन्हें राजा बनाने का भी वादा करते हैं। श्री कृष्ण कर्ण को कितनी ही बातें कह के अपनी ओर करने की कोशिश करते हैं, मगर कर्ण उनका साथ देने से मना कर देते हैं। उनके ऐसा करने की वजह थी उनकी दोस्ती। वह अपने एक मात्र मित्र दुर्योधन को कभी भी धोखा नहीं दे सकते थे। वह दोस्ती के धर्म से दूर नहीं जा सकते थे। जब कोई कर्ण को कुछ नहीं समझता था, तब दुर्योधन ने ही उनकी मदद की। इसलिए कर्ण ने श्री कृष्ण के तमाम प्रस्ताव ठुकराए और आखिरी सांस तक दुर्योधन के साथ खड़े रहने का वादा पूरा किया।

  • प्रस्तुति :राजेश्वरी मौर्य, नई दिल्ली। 

Comments

  1. Congratulations for providing thought provoking information on Mahabharata.

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