Arya Samaj and Mahrishi Dayanand : वर्ण व्यवस्था और छुआछात पर चोट की महर्षि दयानंद ने

 






  • वर्ण व्यवस्था और छुआछूत पर चोट की महर्षि दयानंद ने
हर्षि दयानंद सरस्वती का सबसे ज्यादा प्रभाव संयुक्त पंजाब (पंजाब_पाकिस्तान, पंजाब-भारत, वर्तमान हरियाणा) के साथ-साथ पश्चिम उत्तर प्रदेश, दिल्ली तथा दक्षिणी राजस्थान में पड़ा। इसका कारण यह भी हो सकता है कि ये सभी इलाके कृषि प्रधान थे तथा इससे जुड़ी तमाम किसान जातियां एक दूसरे पर निर्भर थीं। मेहनती लोगों के पराक्रम ने भी महर्षि दयानंद के विचारों को उत्साहित किया।

     स्वामी दयानंद सरस्वती जन्मना ब्राह्मण, वर्ण एवं जाति से थे।  इसके विपरीत वे अस्पृश्यता, भेदभाव तथा जन्मजात वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध थे और जब वे अपने वक्तव्यों में कहते कि अस्पृश्यता वेद विरुद्ध है, महिलाओं को भी पुरुषों के समान बराबर के अधिकार हैं तथा किसी व्यक्ति के वर्ण को उसके जन्म से नहीं, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से जाना जाएगा तो इस क्षेत्र की तमाम श्रमिक जातियां जिसमें विशेष तौर पर जाट, गुर्जर, रोड, राजपूत ,सैनी व दलित जातियां थी, वे उनके पीछे लामबंद होने लगीं।

   जमींदारों ने भी अपने खेतों को बेघर व बेजमीन दलित लोगों की दैनिक क्रियाओं के लिए खुला छोड़ दिया। अब वे उनके कुएं से पानी भर सकते थे और सब मिलकर एक साथ भोजन भी करते थे। वास्तव में इस क्षेत्र में इन तमाम बातों की पुख्ता नीव गुरु नानक देव जी महाराज ने पहले से ही रखी हुई थी, पर दयानंद ने जब उसको विद्वता पूर्व वेद सम्मत ढंग से बताया तो लोग उनके दीवाने हो गए।

      मैं अपना एक  वृतांत रखना चाहूंगा, जो सन् 2008 में शहीद भगत सिंह के भतीजे सरदार किरनजीत सिंह संधू के साथ उनके पैतृक गांव बंगा (लायलपुर- फैसलाबाद- पाकिस्तान) में गया। गांव में पता करने पर जानकारी मिली कि भगत सिंह के परिवार के खेतों को आर्यों का खूँ (आर्यों का खेत) के नाम से जाना जाता था । आज भी गांव के रेवेन्यू रिकॉर्ड में ऐसा ही दर्ज है। जानकारी मिलने पर पता चला कि भगत सिंह के परदादा सरदार अर्जुन सिंह जो कि ऋषि दयानंद से प्रभावित होकर आर्य समाज में दीक्षित हुए थे। वे अपने खेत के मकान पर प्रति सप्ताह आर्य समाज का सत्संग आयोजित करते थे तथा सामूहिक भोजन करवाते थे। जिससे लोगों ने उनके खेतों का नाम आर्यों का खेत रख दिया।  

      यह आर्य समाज का ही प्रभाव था कि यज्ञोपवीत (जनेऊ), जिसको धारण करने का अधिकार मात्र ब्राह्मण और क्षत्रियों को था, अब प्रतीकात्मक रूप से पिछड़ी एवं दलित जातियों और महिलाओं को भी मिल गया। आर्य समाज द्वारा स्थापित गुरुकुल में पढ़ने वाले अनेक विद्यार्थी जो पिछड़ी एवं दलित जातियों के थे, अब वैदिक प्रवक्ता बन गए। अब उनको जाति सूचक संबोधन से नहीं अपितु पंडित जी कहकर संबोधित किया जाता था। हरियाणा में प्रोफेसर शेर सिंह जोकि रोहतक जिले के सापला गांव के थे, उन्होंने जब अपने खेत और कुएं को दलितों के लिए  खोला  तो बेशक उन्हें सामाजिक प्रताड़ना का तो शिकार होना पड़ा, परंतु उनके क्षेत्र के हजारों किसान मजदूर परिवारों ने आर्य समाज में दीक्षा ली।

       गांव-गांव में आर्य समाज के भजनीक अपनी टोलियां बनाकर घूमते थे तथा मूर्ति पूजा, अंधविश्वास और पाखंड के विरुद्ध कटाक्ष शब्दों में भजन गाते थे। जिसका सीधा प्रभाव पंजाब की कृषक जातियों पर पड़ा। पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ती, स्वामी ओमानंद, स्वामी इंद्रवेश, आचार्य बलदेव, स्वामी रामेश्वरानंद ,स्वामी स्वतंत्रतानंद,स्वामी दर्शनानंद ,भगत फूल सिंह, चौधरी छोटू राम, चौधरी टिंडा राम, चौधरी मातूराम जैसे लोग जो जाट कृषक समाज से थे, वे सब आर्य समाज के प्रकांड विद्वान के रूप में जाने जाते थे। महिलाओं को भी जब आर्य समाज का सदस्य बनाया गया और उन्हें मताधिकार का बराबर अधिकार दिया गया तो महिलाओं में भी आर्य समाज के प्रति आकर्षण बढ़ा। औरतों को भी न केवल यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार मिला, वहीं अब वे यजमान, ब्रह्म तथा प्रचारिकाएं बनी । स्वामी श्रद्धानंद की बेटी शन्नो देवी ,भगत फूल सिंह की बेटी सुभाषिनी, चौधरी चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी ऐसी महिलाएं थी, जिन्होंने आर्य समाज के प्रचार को न केवल आगे बढ़ाया अपितु महिलाओं की शिक्षा के लिए भी अनेक विद्यालयों की स्थापना की।

         आर्य समाज के मुख्य कार्यों में प्रमुख रूप से जहां मूर्ति पूजा तथा अंधविश्वास का विरोध किया , वहीं दलितोद्धार तथा बालिका शिक्षा पर विशेष जोर दिया गया। स्थान- स्थान पर कन्या पाठशालायें एवं कन्या गुरुकुल की स्थापना हुई। जहां महिलाएं वैदिक प्रवक्ता एवं ब्रह्मवादिनी बनकर निकलीं।  

       पंजाब के लोगों में अंधविश्वास के विरुद्ध भ्रम को तोड़ने का काम सिख धर्म ने किया ही था। बस अब उसे सिंचित करने का काम दयानंद और आर्य समाज ने किया। जिसका मूलाधार था- मूर्ति पूजा, अंधविश्वास और जन्मजात वर्ण व्यवस्था का विरोध।

           एक छोटी सी कहानी के माध्यम से इसे समझा जा सकता है। राम जन्म भूमि का आंदोलन जब स्थान- स्थान पर चरम सीमा पर था,उस समय पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आग जली नहीं थी । परंतु इसके कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर जय श्रीराम ,जय श्रीराम के नारे लगाकर लोगों को उत्तेजित करने का प्रयास कर रहे थे ।एक शाम एक गांव में कुछ भक्तजन ऐसे ही नारे लगा रहे थे तो एक किसान थका हारा अपने घर वापस जा रहा था। जब उसने यह नारे सुने तो उसने अपने साथी से पूछा कि यह क्या हो रहा है तो उसके साथी ने कहा कि मंदिर में आरती उतर रही है तो उस भोले किसान ने कहा कि इसे इतना चढ़ाया ही क्यों था कि उतारने में दिक्कत आ रही है। भावार्थ यह   हैं कि हरियाणा का किसान मूर्ति पूजा ,मंदिर तथा ऐसे ही किन्हीं प्रयोगों से दूर था। यही कारण था कि उसके पास वैज्ञानिक सोच थी। परंतु बाद के वर्षों में इस सोच को खत्म करने की बकायदा साजिशें की गई। जिस पर हम अलग से चर्चा करेंगे।

  • साभार :
  • राम मोहन राय, वरिष्ठ अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट.

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