BSP IN UP : यूपी: बसपा हाशिये की ओर
- यूपी: बसपा हाशिये की ओर
यूपी में अगल वर्ष 2022 में विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक गलियारे में नेताओं ने राजनीतिक पंडितों के जरिए अपना भविष्य बनाने के लिए कुंडली देखना शुरू कर दिया है और आ रही ग्रहों की बाधाओं को दूर करने के लिए उपाय करने की ओर बढ़ने लगे हैं। भाजपा इन दिनों किसी भी नुकसान से बचने के लिए कदम फूंक-फूंक कर उठा रही है, वहीं बसपा कील-कांटे निकालकर अपने को मजबूती के साथ खड़ा करने की कोशिश कर रही है। वह अलग बात है कि वह 19 विधायकों से सात पर पहुंच गई है और अपने कई निष्ठावान नेताओं और कार्यकर्तांओं को बाहर का रास्ता दिखा चुकी है। इस मोर्चे में ब्राह्मणवादी नेता सतीश मिश्रा निरंतर मजबूत हो रहे हैं। लगता है, यह नेताजी ही किसी विशेष योजना के तहत इस पार्टी से दलितों, पिछड़ों तथा मुस्लिम नेताओं को बाहर निकलवाकर न जाने किस वर्ग की पार्टी बनाना चाहते हैं। इससे यह भी लगता है कि यह पार्टी अपने मूल मिशन के बजाय केवल दो लक्ष्य बनाए हुए हैं पैसा और सत्ता। लोगों को लगता है कि बहनजी बोल्ड निर्णय लेती हैं, लेकिन वे निर्णय क्यों और कैसे और कितने पार्टी के लिए नुकसान वाले है, इसपर कोई नहीं सोचता है। शायद इस पार्टी का एकल नेतृत्व भी नहीं इस पर अपने घमंडी रुख से कभी नहीं सोचता है, इसी का परिणाम है कि मान्यवर कांशीराम की यह पार्टी निरंतर सिमटकर देश से उत्तर प्रदेश में एक वर्ग के छोटे से वर्ग तक सीमित होती जा रही है। हाल यह है कि एकल नेतृत्व के निर्णय बसपा को हाशिये पर ले जा रहे हैं। वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान सपा से गठबंधन से मिले चुनावी फायदे ने पाटीं को थोड़ी ताकत दी, लेकिन यही दशा रही और निरंतर भाजपा से आंतरिक समझौते में फैसले होते रहे तो बसपा की राजनीतिक ताकत खत्म होने से कोई नहीं रोक पाएगा।
- भीम आर्मी का बढ़ता प्रभाव
दलितों के बीच बसपा के घटते प्रभाव और पार्टी में बढ़ते सबल वर्ग के प्रभाव का नतीजा है कि भीम आर्मी का दलितों के बीच निरंतर प्रभाव बढ़ रहा है। बसपा से नाराज आम लोगों को भी एक मंच मिल रहा है। ऊपर से भीम आर्मी के कार्यकर्ताओं द्वारा दलितों के बीच छोटे-छोटे मामलों के जरिए बनाई जा रही पकड़ बसपा को कमजोर कर रही है।
- बसपा को तोड़ने की रणनीति
बसपा के निर्णयों को अन्य राजनीतिक दल भी बाखूबी समझते हैं, इसलिए उनकी रणनीति बसपा में टूट कराने के लिए बनती रहती है। इसकी शुरुआत पिछले वर्ष के अंत में हुए राज्यसभा चुनाव में होती दिखी, जिसमें अगले विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने रणनीति के लिए ऐसी चाल चली, जिसमें बीजेपी तो नहीं फंस पाई, लेकिन बसपा पूरी तरह फंसती दिख रही है। बीजेपी जिस टूट से बचने के लिए राज्यसभा नौवां प्रत्याशी सामने नहीं लाई वो टूट बसपा में हो गई।
उधर, भाजपा ने नौ प्रत्याशी उतारने को लेकर कभी हां कभी ना के बीच आठ प्रत्याशी ही मैदान में उतारे थे। गए। बहुजन समाज पार्टी भी अपना प्रत्याशी रामजी गौतम मैदान में उतार चुकी थी। भाजपा का सहयोगी दल अपना दल (एस) एक प्रत्याशी के लिए दबाव बना रहा था, क्योंकि केंद्र की एनडीए सरकार में इस बार अपना दल (एस) का कोई मंत्री भी नहीं बन पाया था। भाजपा के एक खेमे की राय बन रही थी कि नौवां प्रत्याशी अपना दल का मैदान में उतारा जाए, लेकिन दूसरे खेमे ने डर के साथ सफलता पर आशंका जताई कि विधायक जुड़ने के बजाय टूट सकते हैं, जो मिशन 2022 की नींव को कमजोर कर सकते हैं। इस रणनीति के तहत नौवां प्रत्याशी नहीं उतारा गया और बसपा के गुपचुप समर्थन की रणनीति बना ली गई।
- सपा ने बसपा को दिया सात का नुकसान
समाजवादी पार्टी बसपा और भाजपा को आईना दिखाने के लिए एक डमी कैंडिडेट उतारा जिसपर भाजपा पसोपेश में दिखी। क्योंकि, भाजपा कतई मतदान की नौबत नहीं चाह रही थी। इसी बीच सपा ने बहुजन समाज पार्टी में सेंध लगाकर सात विधायकों को तोड़ लिया। बसपा के टूटने वाले विधायकों के नाम असलम राइनी, सुषमा पटेल, वन्दना सिंह, मुस्तबा सिद्दीकी, असलम चौधरी, हाकिम चंद बिंद और हरगोविंद भार्गव हैं, जिनको मायावती ने निलंबित कर दिया। रामवीर उपाध्याय और अनिल सिंह पहले ही निलंबित चल रहे हैं। लालजी वर्मा और रामअचल राजभर को भी अब निष्कासित कर दिया गया है। राज्यसभा चुनाव में जोड़तोड़ के बावजूद बसपा अपना प्रत्याशी तो बचा ले गई थी, लेकिन समाजवादी पार्टी की रणनीति सफल हो गई। परिणाम, बीएसपी सुप्रीमो ने जहां खुद ही कह दिया था कि एमएलसी चुनाव में वो बीजेपी का समर्थन करेंगी। वहीं पार्टी में टूट निरंतर जारी है, जिसके लालजी वर्मा और रामअचल राजभर के निष्कासन पर ही रुकने की उम्मीद कम दिखती है। अभी और कई बड़े बड़े नाम बसपा से अलग होते सुने जा सकते हैं।
- राजेश्वरी
- संपादक, मौर्य टाइम्स, नई दिल्ली।
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