Arya Samaj & UNITED PUNJAB (3) : आर्य समाज ने महिलाओं को बराबर माना

  • आर्य समाज ने महिलाओं को बराबर माना 






स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी संपूर्ण कार्यों में सर्वोपरि महिलाओं की शिक्षा को रखा। अपने बाल्यकाल में ही अपनी अत्यंत प्रिय बहन का वियोग उन्होंने सहा था। उसकी मृत्यु के बाद वे कई दिन तक शोक ग्रस्त तथा उद्विग्न रहे। अपनी माता के कहने पर ही उस मूलशंकर ने शिवरात्रि के अवसर पर पूरी रात जाग कर शिव  प्राप्ति का संकल्प लिया था।

        स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना के बाद तो महिलाओं के सशक्तिकरण ,उद्धार एवं उन्हें शिक्षित करने का अनुप म कार्य किया। उनसे पूर्व ब्राह्मण समाज में यह धारणा थी कि,

  • *स्त्री शूद्रौ नाधीयातामिति श्रुते:*

अर्थात स्त्री और शूद्र न पढ़ें यह श्रुति है । परंतु दयानंद ने इसके उत्तर में कहा कि सभी स्त्री-पुरुष अर्थात मनुष्य मात्र को पढ़ने का अधिकार है। उन्होंने उन पौराणिक ग्रंथों की भर्त्सना की  जिसमें महिलाओं सहित अन्य पिछड़े दलित वर्गों को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया गया था। अपने पक्ष के समर्थन में वेद के इस मंत्र को, '

  • *यथेमां वाच कल्याणीमावदानी
  • जनेभ्य:*

ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय' अर्थात परमेश्वर कहता है कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिए इस कल्याण अर्थात संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी ऋग्वेद आदि चारों वेदों की वाणी का उपदेश करता हूं, वैसे तुम भी किया करो ।

   स्वामी दयानंद सरस्वती महिलाओं की शिक्षा का समर्थन करते हुए जब संयुक्त पंजाब (हरियाणा, पंजाब- भारत, पंजाब- पाकिस्तान ,हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में आए तो जहां उन्होंने किसानी बिरादरियों को आकर्षित किया, वहीं महिलाओं को भी शिक्षा प्राप्त करने की प्रेरणा दी । यह उन्हीं का पराक्रम था कि बरेली में उन्होंने सर्वप्रथम आर्ष कन्या पाठशाला की स्थापना की । भगवान बुद्ध ने जिस प्रकार स्त्रियों को भी दीक्षा देने का काम किया था ,उसी तरह पंजाब की धरती पर दयानंद ने । पंजाब गुरु नानक देव जी  महाराज की वाणी से ओतप्रोत था व इस बात से खिन्न भी कि उनके समाज में महिलाओं को उचित स्थान नहीं था ।गुरु नानक देव जी महाराज ने अपने यज्ञोपवीत के समय यह सवाल तत्कालीन ब्राह्मण समाज के सामने उठाया कि यदि उन्हें जनेऊ दिया जा रहा है तो उनकी बड़ी बहन को क्यों नहीं ? 400 वर्षों के इतिहास में यह प्रश्न अनुत्तरित था। पर दयानंद व उनके आर्य समाज ने न केवल महिलाओं की शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया, वहीं उन्हें यज्ञोपवीत (जनेऊ) प्राप्त करने का भी अधिकार दिया। कुछ लोगों की नजरों में बेशक यह ऐसा कर्मकांड हो सकता है जिसका कोई गुणात्मक लाभ न हो। परंतु यह इस बात का सूचक था कि महिलाएं भी पुरुषों के बराबर हैं। 

      

इसका सबसे बड़ा प्रभाव तत्कालीन संयुक्त पंजाब की किसान महिलाओं पर पड़ा, जो खेती का काम तो पुरुषों के बराबर करती थीं, परंतु अन्य अधिकारों में शून्य थीं। आर्य समाज ने घर-घर वैदिक संध्या, यज्ञ, स्वाध्याय ,वेद कथा तथा शास्त्रार्थ की परंपरा डाली । घरों में ये सभी कार्य सभी परिवारिक जन मिलकर करते थे। जिसमें महिलाओं की भूमिका अग्रणी होती थी। वे महिलाएं जिन्हें देवी मानकर मूर्ति की तरह पूजित तो किया जाता था, परंतु किसी भी प्रकार का सम्मान नहीं दिया जाता था।हिंदू धर्म ने उन्हें 'ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी- ये सब ताड़न के अधिकारी' कहकर पुरुषों को उन्मुक्तता प्रदान की थी। मूर्ति पूजा के विरोध में ऐसी तमाम मूर्तिवत आस्थाओं को खंडित कर दिया। वे मानती थीं कि जिस तरह से मूर्ति जड़वत है ,उसी प्रकार से मूर्ति पूजकों के सिद्धांत, कर्म और आदेश भी

जड़वत है ,अतः  अमान्य है। मूर्ति पूजा, अंधविश्वास और पाखंड के कोई अगर सबसे ज्यादा शिकार थे तो वे महिलाएं और दलित ही थे। वाममार्गी, चोली मार्गी तथा अवैदिक धारणाएं जो महिलाओं को प्रतिबंधित करती थी, आर्य समाज ने उनका खुलकर खंडन किया। अनेक मंदिरों में जिनमें महिलाओं एवं दलितों का प्रवेश निषिद्ध था, दयानंद ने उन मंदिरों का ही बहिष्कार करने का आह्वान किया और कहा कि सभी महिलाएं आर्य समाज की उसी प्रकार सदस्य हो सकती हैं ,जिस प्रकार पुरुष। आर्य समाज का ढांचा लोकतांत्रिक संगठन था। जहां बकायदा सदस्यता होती थी, सभासद बनते थे, निर्वाचन और निर्वाचित होते थे। बैठकें और संवाद होते थे और उन सब में महिलाओं की बराबर की भागीदारी होती थी। तत्कालीन संयुक्त पंजाब में आर्य समाज ने इन दरवाजों को खोल दिया था और इन सब का अमूल्य अचूक हथियार था- दयानंद ,उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज और उनकी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश।

      स्वामी दयानंद सरस्वती के बाद उनके दीवाने अनुयायियों ने महिला शिक्षा के लिए जो काम किया, वह अद्भुत था। बेशक अंग्रेजी सरकार लड़कियों के स्कूल खोल रही थी। उस पर भी दयानंद की टिप्पणी थी कि मूर्ति पूजा व्यर्थ है।चाहे वह किसी हिंदू देवता की हो, ईसा मसीह की हो अथवा किसी फकीर की मजार। अंग्रेजी स्कूल लड़कियों की शिक्षा का पूरा प्रबंध तो कर रहे थे ,पर साथ-साथ ईसा मसीह व चर्च की व्यर्थ उपासना में भी लगाते थे। आर्य समाज ने सिंहनाद करते हुए कहा ,'न तस्य प्रतिमा अस्ति।' महिलाओं की शिक्षा के लिए अनेक स्कूल, गुरुकुल एवं संस्थान खोले गए। आर्य समाज एक ऐसा केंद्र बना जो महिलाओं को शिक्षा देने का एक  विशिष्ट प्रयोग था । यह कर्मकांड का मंदिर नहीं था, अपितु विचार-विमर्श का केंद्र था।

        महात्मा मुंशीराम जो स्वयं एक विज अरोड़ा थे ,पेशे से वकील थे। स्वामी दयानंद ने उनके जीवन में एक बदलाव किया था। एक दिन उन्होंने अपनी पुत्री के गायन के ये शब्द सुने,' ईसा- ईसा बोल, तेरा क्या लागेगा मोल। ईसा तेरा राम रमैया, ईसा तेरा कृष्ण कन्हैया।' मुंशीराम ने उसी समय प्रतिज्ञा की कि वह कन्या पाठशाला की स्थापना करेंगे। जहां बेटियां किसी भी मूर्ति के सामने नहीं झुकेंगी। सन 1913 में जालंधर में उन्होंने आर्ष कन्या पाठशाला की स्थापना की । उसी वर्ष पानीपत में पंडित रतीराम शर्मा के सहयोग से उनकी कालकल्पित पुत्री श्यामा के नाम से श्यामा आर्य पुत्री पाठशाला की स्थापना हुई और फिर यह सिलसिला ऐसा चला कि जिसने रुकने का नाम नहीं लिया। यह सत्य निर्विवाद है कि पूरे संयुक्त पंजाब में आर्य समाज ने कन्याओं की शिक्षा के लिए जितने संस्थान खोले ,उतने कभी किसी ने नहीं खोले। दयानंद एंग्लो वैदिक संस्थान (डीएवी) के संस्थापक महात्मा हंसराज ने अपनी पुत्री को पहली छात्रा बनाया। हरियाणा के भगत फूल सिंह ने अपनी तमाम जमीन जायदाद महिला शिक्षा के लिए समर्पित करते हुए कन्या गुरुकुल,खानपुर की स्थापना की। इन तमाम कार्यों में दयानंद की यह विचारधारा प्रमुख थी कि महिला न तो कोई देवी की मूर्ति है और न ही पाषाणवत।

      सन 1974 में राजस्थान के देवराला कस्बे में एक रूप कंवर नाम की युवती को उसके पति के निधन होने पर सती धर्म के नाम पर ज़िंदा जला दिया गया । पूरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद पुरी ने इसका समर्थन करते हुए इसे शास्त्र व वेद सम्मत बताया । इस पर आर्य समाज की विदुषी महिलाओं ने इसका भरपूर विरोध किया तथा उसके मठ के बाहर ही विरोध कर प्रदर्शन करके उनसे शाश्त्रार्थ की चुनौती दी । कथित शंकराचार्य इस चुनौती का सामना न कर सका और चुपके से खिसक गया ।

     आर्य समाज की एक यह धारा थी जिसने परिवर्तन का काम किया पर प्रतिगामी शक्तियां भी इसने रोकने में लगी थी । ऐसा स्वाभाविक भी है क्रांतिकारी व प्रगतिशील शक्तियों का संघर्ष । पोंगापंथियों ने जहां दुर्गा वाहिनी , शक्ति सेना ,स्वयं सेविका संघ की स्थापना की वहीं दूसरी ओर आर्य समाज ने भी आर्य महिला समाज ,आर्य वीरांगना दल , आर्य युवती परिषद का गठन किया । पिछली सदी का अंतिम दशक इस मायने में काफी संघर्षमय रहा । यह समय वह भी था जब राम जन्मभूमि मंदिर का आंदोलन विकराल रूप धारण किये था । प्रश्न यह भी था कि आर्य समाज मंदिर -मूर्ति पूजा के साथ ही या उसके विरोध में । यज्ञ वेदी पर भी क्या राम शिलाओं का पूजन होगा अथवा आर्य समाज दृढ़ता से फिर कहेगा कि मूर्ति पूजा किसी भी रूप में हो वह उसके विरोध में है।

  • साभार:
  • राममोहन राय, वरिष्ठ एडवोकेट
  • सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली




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