Santas of Panipat पानीपत के संत

  • पानीपत के बुज़ुर्ग       

     संतो की दूर दृष्टि होती हैं साथ साथ वे त्रिकाल दर्शी भी होते है । हम सामान्य जन अपने जीवन की उठापटक में ही समय बिताते है  जबकि वे हमारे प्रारब्ध को जानते हुए हमारा मार्गदर्शन करते है ।

  पानीपत जिस शहर में मेरा जन्म हुआ ऐतिहासिक महत्व का है साथ साथ उसके औद्योगिक विकास ने इसे नए आयाम भी दिए है और अब इसकी पहचान निर्यातक नगर के रूप में भी विश्व पटल पर जाना जाता है । 

      पानीपत का कुल क्षेत्रफल 1,268 किलोमीटर है अर्थात 490 वर्गमील । दिल्ली से उत्तर की तरफ चलने पर 90 किलोमीटर सड़क मार्ग पर यह पहला बड़ा कस्बा है । सन 1857 से पहले तक यह जिला मुख्यालय भी हुआ करता था ,परंतु यहां के लोगों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध क्रांति में बढ़ चढ़ कर भाग लिया जिस वजह से यहां से बदल कर करनाल को जिला मुख्यालय बना दिया और पानीपत को उसका उपमंडल। वर्ष 1991 में पानीपत को दोबारा जिला बनाया गया  और इसके साथ 190 गांवों को जोड़ा गया जिसमें से चार बड़े गांव समालखा, इसराना, मडलोडा  और बापौली  उन्हे उप तहसील। 

  • रूहानियत पहचान

    इसकी इनसे अलग एक रूहानियत पहचान भी है । लड़ाई का मैदान तो इसलिए भी रहा क्योंकि खैबर दर्रे से दिल्ली तक, राजधानी के करीब एक ही खुली जगह थी जहां यमुना की नजदीकी होने के कारण पानी भी उपलब्ध था वह पानीपत ही था और इसीलिए इसे लड़ाई के मैदान के तौर पर चुना गया । यहां यह बात भी काबिले गौर है कि पानीपत के लोगों का इन किसी भी लड़ाई से कभी भी कोई ताल्लुक वास्ता नहीं रहा है । असलियत तो यह है कि ये पानीपत में लड़ाइयां थी न की पानीपत की । इन तमाम लड़ाइयों से आज़ीज़ होकर यहां के लोग तीन व्यवसायों में काम नहीं करते थे । एक-फौज,  दूसरे - पुलिस और तीसरे-  शराब का कारोबार ।

  • पानीपत था मुस्लिम शहर

       हम सब जानते है कि पानीपत एक मुस्लिम बाहुल्य शहर था । भारत विभाजन से पूर्व यहां कि कुल तीस हजार आबादी में से सत्तर फीसदी आबादी मुस्लिम थी । इनमें से भी अधिकांश मुस्लिम अंसारी थे । ये लोग पढ़े लिखे थे और अन्य दूसरी मुस्लिम रियास्तो में उच्च पदों पर आसीन थे । शहर में रहने वाले सामान्य जन हथकरघा और उसके साथ जुड़े काम से जुड़े थे । खेस, चादरे, कम्बल और दूसरा कपड़ा बहुत ही बेहतरीन तरीके से तैयार किया जाता था ,जिसकी मांग दूर दूर तक थी ।  घरों की देखभाल, खेतीबाड़ी और दूसरा स्थानीय कारोबार औरते ही  करती थी इसलिए घर की पहचान मर्दों से न होकर उन्हीं से थी यानी " फला बी का घर" (अमुक महिला का घर)। घर की औरते ही इक्के पर बैठ कर सारी व्यवस्थाएं करती थी । ऐसा कोई अकस्मात नहीं था, यह एक ऐसा परिवेश था जो उन्हे एक परंपरा से प्राप्त हुआ था ।

  • आध्यात्मिक माहौल

     शहर में आध्यात्मिक माहौल था । लगभग 1300 साल पहले इराक से धर्म प्रचार करते हुए लगभग पांच संतो जिनके नाम हज़रत रोशन अली शाह ,  शेख़ कालू पीर, पंचपीरा  रहमतुल्ला, शेख़ अबू इशहाक और सैय्यद अली सरवर थे धर्म प्रचार और इंसानियत का संदेश देते इन्होंने अपना पड़ाव यहां डाला और उन्हें यह स्थान इतना पसंद आया कि वे यहीं बस गए और अपनी हयात तक यहीं रहे । और इसके बाद तो दुनियां भर से संत - फकीरों के आने का सिलसिला जारी रहा ।    

     सन 1267 के आसपास बादशाह बलबन के समय में इराक़ से ही सरफुद्दीन नौमानी तशरीफ फर्मा हुए और यहीं उन्होने अपना मुकाम बनाया । वे फ़ारसी, अरबी , संस्कृत एवम ब्रज भाषा के जानकार थे और उन्होंने अपने उपदेशों को इन्हीं भाषाओं के माध्यम से छंदों एवम कविताओं में दिया ।  सरफुद्दीन नौमानी ने अनेक वर्षों तक इसी शहर में तप - साधना की तथा बताया कि ईश्वर को प्राप्त  करने का रास्ता गुरु( शाह ) के माध्यम से ही है । इसलिए सच्चे गुरु का मिलना जरूरी है । उन्होने कहा है -

  •   सरफू चूड़ी लाख की टके टके की बेच, जे गल लागे शाह के लाख टके की एक

सरफुद्दीन फरमाते है कि हाथ में लाख की बनी  पहनी चूड़ी का मूल्य एक तीन पैसे का है परंतु यदि यही हाथ सतगुरु के गले लग जाए तो यही तीन पैसे की  मामूली चूड़ी अमूल्य हो जाती है ।

     अपनी इसी तप-साधना और ईश्वर भक्ति के कारण वे बाद में बू अली शाह कलंदर के नाम से जाने लगे अर्थात जिसमे सम्पूर्ण गुरु की तरह खुशबू है । उन्हीं के समय में पानीपत में लगभग 80 ऐसे आलिम संत थे जो हर समय अपनी साधना में लगे रहते थे । जिनमें प्रमुख रूप से हजरत मखदूम साहब आदि प्रमुख थे । सुलतान ग्यासुद्दीन बलबन के कोई बेटा नही था जिसकी वजह से वह बेहद चिंतित था । उन्होंने कलंदर साहब से अपनी औलाद के लिए दुआ की गुजारिश की । इस पर उनका कहना था कि एक नही दो बेटे होंगे परंतु बड़ा बेटा उन्हें बतौर शागिर्द देना होगा । सुलतान के दो बेटे हुए और उन्होने अपने वायदा के मुताबिक बड़ा बेटा कलंदर साहब को दे दिया । कलंदरी शागिर्दी में चेला गुरु के अनुरूप ही था । परंपरा के अनुसार उन्होने  अपनी कब्र अपने जीवन काल में ही बनवा ली थी परंतु इसी बीच शागिर्द का इंतकाल हो गया । उस्ताद ने भी अपने इस आज्ञाकारी शिष्य को अपनी आरामगाह देकर खुद उसके पैरों की तरफ अपनी कब्र खुदवाई । पूरी दुनियां में यह एक अजीब मिसाल है कि शिष्य सिर पर है जबकि गुरु पैरों की तरफ है । ऐसा मानना है कि पूरी दुनियां में ढाई कलंदर हुए है । एक पानीपत में ,दूसरे सिंध में शहबाज कलंदर और तीसरे इराक में एक महिला कलंदर हुई है जिसे आधा माना गया है ।

  • सतगुरु का आशिक

     ये सभी संत स्वयं को सतगुरु का आशिक कहते थे तथा अपने मुर्शीद को अपनी माशूका। वे तमाम जिंदगी शहर में नंग - धरंग घूमते थे क्योंकि उनका मानना था कि शरीर और रूह अलग अलग है और वे अपनी माशूका यानी सतगुरु से रूहानी रूप से मिलना चाहते है ।  फारसी में आशिक तथा माशूक के मिलन की रात को आरिस कहते है । ये संत भी उस दिन का इंतजार करते है जब वे अपनी माशूका से मिलेंगे यानी आत्मा का उस शाह से मिलन अर्थात इस शरीर से मुक्ति । इस मुक्ति को ही उनके सहभागी खुशी और आनंद का दिन मानते थे यानी उर्स के रूप में मनाते थे ।

       उसी काल में हेरात से प्रसिद्ध शिक्षाविद एवम आध्यात्मिक गुरु हज़रत ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी दिल्ली के तत्कालीन सुलतान बलबन से मिलने के लिए आए । बेशक दिल्ली राजधानी थी परंतु बादशाहो से मिलने के इच्छुक लोगों को पानीपत में ही रुकना पड़ता था । यदि आज के शब्दों में कहो तो ये राजकीय प्रतीक्षा गृह था । मुलाकात का समय मिलने पर ही आगे बढ़ते थे । इसी व्यवस्था का पालन करते हुए ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी भी पानीपत में ही रुके और यहीं उनकी मुलाकात हज़रत बू अली शाह कलंदर से हुई । एन उनकी आध्यात्मिक चर्चा पर अलग से एक पूरी किताब है जिसमे ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी की रूबाइयों को फ़ारसी में प्रकाशित किया है । इस किताब का अंग्रेजी में अनुवाद सर सरदार जोगेंद्र सिंह तथा ऑर्थर जॉन आर्बेरी     ने सन 1939 में किया है जिसकी प्रस्तावना महात्मा गांधी ने लिखी थी । इस किताब के 14 संस्करण प्रकाशित हुए और अब पुन: इसे प्रसिद्ध महिला नेत्री तथा योजना आयोग की पूर्व सदस्य डाo सईदा हमीद,जो खुद भी पानीपत की है तथा ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी की वंशज है के परिचय के साथ प्रकाशित किया गया है ।

       यहां ये बताना बहुत जरूरी है कि हज़रत बू अली शाह कलंदर इस मुलाकात से इतना खुश हुए कि उन्होने ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी को परिवार सहित यहीं बसने की दुआ की और उनकी दुआओं का असर यह रहा कि सुलतान बलबन ने ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी से खुश होकर पानीपत की बड़ी जागीर उन्हें तोहफे के रूप में दे दी ।  ये सभी गृहस्थ संत थे । हजरत बू अली शाह कलंदर ने भी  अब्दुल्ला अंसारी के दो बेटों की शादी अपने समकक्ष संत हजरत मखदूम साहब की दोनो बेटियों से करवाई । पानीपत के जानकार लोग इस बात को बखूबी जानते है कि आज के दिन भी यह शहर राजस्व की दृष्टि से  चार हिस्सों में बंटा है । एक- पट्टी अंसार  ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी की जमीनें, दो  पट्टी मखदूम जादगान संत मखदूम साहब की जमीनें, पट्टी अफगानां और पट्टी राजपूतान।

      इन्हीं ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी के परिवार में ही सन 1831 में प्रसिद्ध शायर एवम समाज सुधारक ख़्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली का जन्म हुआ ।

     हज़रत बू अली शाह कलंदर के वंशज सन 1947 में भारत विभाजन के समय पाकिस्तान चला गया और उनकी 39 वीं पीढ़ी में सज्जादा नशीन आबिद आरिफ नोमानी और उनका परिवार लाहौर में रहता है जबकि हज़रत मखदूम साहब के वंशज बहावलपुर में रहते है ।

     आज से लगभग 1300 वर्ष पूर्व साउदी अरब से हज़रत इमाम बदरुद्दीन साहब धर्म प्रचार के लिए हिन्दुस्तान आए परंतु पानीपत से आगे न जा सके । उनका कहना था कि इस जमीं में रूहानियत की इतनी कशिश है कि वे चाहते हुए भी आगे नहीं जा सकते है । आज भी मोहल्ला इमाम साहब में उनकी मजार है ।

       हज़रत गोस अली शाह का तो किस्सा ही अजीबो गरीब है । उनके बचपन में ही वे अनाथ हो गए थे । एक हिंदू ब्राह्मण पंडित राम स्नेही और उनकी पत्नी ने ही उन्हें पाला पोसा। यह माता अपने एक स्तन से अपने पुत्र को दूध पिलाती तो दूसरे से इनको।  इन्होंने ने इस बच्चे की परवरिश भी इस्लामिक मर्यादाओं से ही की थी। दुर्भाग्य से इनका  अपना पुत्र बचपन में ही गुज़र गया । अब गोस अली की बारी थी । उन्होने भी अपनी इन माता- पिता की एक सुयोग्य पुत्र की भांति ही सेवा की और उनके देहांत होने पर एक हिन्दू पुत्र की तरह तमाम रीति रिवाजों का पालन करते हुए दाह संस्कार किया और यमुना नदी पर जाकर तमाम मजहबी विरोध के बावजूद धोती और जनेऊ धारण कर श्राद्ध कर्म किया ।  उन्हीं गोस अली साहब की दरगाह पानीपत में ही सेक्टर 11-12 में है ।

  • हज़रत गोस अली ने अपनी तमाम जिंदगी रूहानियत और इंसानियत के प्रचार के लिए लगा दी ।

      सुप्रसिद्ध सूफी संत बाबा फरीद के पौत्र हजरत शमशुद्दीन तुर्क पानीपती ने भी अपना यही मुकाम बना कर आध्यात्मिक साधना की । उनकी दरगाह भी सनौली रोड पर स्थित है । इस शहर का कोई गली मोहल्ला अथवा गांव नही है जहां किसी न किसी संत का वास नही रहा हो । इन सभी की खासियत यह रही हैं कि ये सभी दिवाली, ईद,होली और अन्य त्यौहार मिल कर मनाते थे। राम -रहीम का सांझा संदेश देते हुए शाह यानी सतगुरु को पाने की बात करते थे।

     पानीपत एक छोटा सा ही इलाका था परंतु यहां गुरु नानक देव जी महाराज पधारे और सन 1882 में आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती भी आए । गांव चुलकाना में चुंकत ऋषि ने अनेक वर्षों तक तपस्या की और इस स्थान को सिद्ध किया ।

      उन सैंकड़ों संतो महात्माओं में से कुछ संतो के बारे में ख्याति है जिनके नाम है  इमाम कासिम, इमाम बद्रुद्दीन,इमाम गजरोनी, सैय्यद मेहमूद शाह, सारा फखरुद्दीन इराक़ी, हकाजिर जमील बीबी, ख़्वाजा शमसुद्दीन शाह विलायत, जलालुद्दीन कबीरूल अवालिया उस्मानी, ख़्वाजा कादिर साहब, इब्राहिम उस्मानी, मौलाना हलीम, ख़्वाजा शिवली उस्मानी, मौo अब्दुल कद्दस, हजo निज़ामुद्दीन, सिराजुद्दीन मक्की, सैय्येद अमीर दुलारी, मौo अमान, ख़्वाजा अब्दुल सलाम, जफरुद्दीन साहब, वली अहमद कश्मीरी, ख़्वाजा अम्मान शाह, मुबारक खान, शाह कबीर, मौo गुल हसन, सैय्यद कीवा, सुलातुल अवालिया, मौo अहमदुल्लाह उस्मानी, काज़ी सनाउल्लाह मुहद्दीस , सैय्यद दाऊद, मौo कमर अली, मौo अहमद हसन, मौo कारी रहमान फरवर कुरा जहां, मौo मुहद्दिस अंसारी, शेख अफगान बक्शी, मुहमुद्दीन दुलैर आदि है । 

      बाकी शोध का विषय रहेगा उनके बारे में भी जो हजारों की संख्या में गुमनाम है ।



  •  लेखक : राम मोहन राय, 
  • वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट नई दिल्ली।

Comments

Popular posts from this blog

mirror of society : समाज का आईना है "फीका लड्डू"